Friday, April 3, 2020

‘आधे-अधूरे’ में पूर्ण पुरुष को तलाशती सावित्री के चरित का अध्ययन


‘आधे-अधूरे’ में पूर्ण पुरुष को तलाशती सावित्री के चरित का अध्ययन


 आधुनिककाल के नाटककारों में मोहन राकेश एक प्रयोगवादी नाटककार थे। नाटक की पूर्व परंपराओं को  तोड़कर उन्होंने अपने नाटकों में विषय वस्तु एवं रंगमंच दोनों ही की दृष्टि से परिवर्तन किए।  जब आधे-अधूरे नाटक की रचना की गई थी उस समय भारतीय समाज अपनी संस्कृति एवं परंपराओं को त्यागकर नवीन परिवेश में प्रवेश कर रहा था अर्थात् भारतीय समाज पाश्चात्य देशों का अनुसरण करने लगा था। जहाँ उसकी संस्कृति और संस्कार शून्य होने के कगार पर थे । अत: जब हमारे संस्कारों पर, हमारे परिवेश पर, हमारे मूल्यों पर पश्चिम की चोट होने लग गई, तब  हम जिन मूल्यों और संस्कारों की दुहाई दे रहे थे, जब वे ही सब मिटने लगा गए तो ऐसे वातावरण में रचनाकार का भी दायित्व था कि वह परिवेश के अनुरूप ही साहित्य सर्जना कर समाज के समक्ष उसका यथार्थ प्रस्तुत करे। साथ ही नये परिवेश के अनुरूप नये मूल्यों को खोज कर तथा उनका नव-संस्कार कर नवीन साहित्य की सर्जना करे। यही कारण है कि मोहन राकेश ने अपने रचना संसार में परंपरागत नाटकों की लीक से हटकर न केवल आधुनिक संवेदनाओं को नाटक का विषय बनाया वरन् हिन्दी नाटक को एक अभूतपूर्व रंगमंच भी उपलब्ध कराया । उनके नाटकों में आधुनिक भावबोध और अपने भोगे हुए यथार्थ जीवन को आधुनिक पृष्ठभूमि पर उकेरने का स्तुत्य प्रयास किया है । राकेश ने अपने नाटकों में उन बदलती हुई परस्थितियों के भारत के समाज को हुबहू उकेरा है । जिन विषयों को उठाने से उस काल के रचनाकार भयभीत हो रहे थे राकेश ने उन्हें न केवल सहजता से प्रस्तुत किया अपितु बेबाक चित्रण भी किया।  “राकेश ने  मूलतःआधुनिक संवेदनाओं को,आधुनिक मानव के द्वंद्व  और जटिलता को ही पकड़ना चाहा है । वहां इतिहास की प्रामाणिकता का प्रश्न इतना महत्वपूर्ण नहीं जितना आधुनिक संवेदना और मानवीय द्वंद्व के सूक्ष्म जटिल स्तरों की विश्वसनीयता का ।”1
राकेश के नाटकों में से प्रमुख हैं –आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस और आधे अधूरे ।  इन तीनों ही नाटकों में प्रमुख भूमिका में नारी पात्र हैं । प्रथम नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ में मल्लिका को एक आदर्श भारतीय नारी के रूप में चित्रित किया है जो अपने प्रेम के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देती है और जीवन भर कालिदास की प्रतीक्षा करती रहती है । यह बात अलग है कि वह प्रौढावस्था में विवाह कर एक पुत्री की माँ  बनती है परन्तु जीवन भर कालिदास का इंतजार करती रहती और कालिदास के आगमन पर उसके साथ जाने को भी उद्द्यत हो जाती है ।  वहीँ दूसरे नाटक लहरों के राजहंस में स्त्री के अहं को अभिव्यक्त कर नाटककार ने बताया है कि सौंदर्य की मूर्ति सुंदरी अभिमानी, शंकालु और अहं भावना से परिचालित  है । वहीँ  तीसरे नाटक ‘आधे -अधूरे’ में सावित्री को आधुनिक युग की महिला के रूप में चित्रित किया है जो एक पूर्ण पुरुष की तलाश में भटकती फिरती है परन्तु किसी को भी पूर्ण  पुरुष के रूप में स्वीकार नहीं करती है । सावित्री अपने आपको आर्थिक रूप से सक्षम करना चाहती है साथ ही अपनी स्वतंत्रता और अधिकारों के लिए विद्रोह करती भी नजर आती है  

आधे अधूरे राकेश का एक यथार्थवादी समस्यापरक नाटक है जिसमें शहरी माध्यमवर्गीय परिवार की विसंगतियों, आर्थिक दबाओं, पारिवारिक तनावों, सामाजिक रिश्तों के खोखलेपन एवं व्यक्ति के अधूरेपन की समस्या को अभिव्यक्त किया गया है । इस नाटक की धुरी पात्र है – सावित्री । सावित्री महेन्द्रनाथ की पत्नी है परन्तु वह उसे आधा-अधूरा समझती है और पूर्ण पुरुष की चाह में परपुरुषों के पीछे भागती रहती है  अर्थात काल्पनिक पूरेपन की तलाश में वह भटकती रहती है । मोहन राकेश ने सावित्री का किरदार एक महत्वाकांक्षी औरत को केंद्र में रख कर रचा है । सावित्री की चाह उस हर एक वस्तु को पाने की है जो संसार में उसे दिखाई दे जाती है इसी कारण वह धन की प्यासी बनकर हर एक व्यक्ति के पीछे भागती रहती है  
सावित्री ऐश्वर्य और धन की प्यासी है। वह सोसायटी में अपना रुतबा जमाना चाहती है ।  इसीलिए अपने ऑफिस  बोस  को बार-बार घर बुलाना चाहती है । आरम्भ में जब महेन्द्रनाथ के पास बिजनेस था, अपार पैसा था तो वह उसके पीछे दौड़ी चली आयी और आज जब उसका  बिजनेस ठप्प हो गया और वह बेकार हो गया तो उसकी नज़रों में आधा-अधूरा पुरुष रह गया । सावित्री के चरित्र को इंगित करते हुए सिद्धनाथ कुमार ने इंगित किया है सावित्री की असन्‍तोषजनित विक्षुब्‍धता ही उसकी भटकन की सहज परिणति बनती है । सावित्री की ट्रेजेडी एक साथ ही अनेक भौतिक उपलब्धियों के प्रयत्‍न में हारने वाले व्‍यक्ति की ट्रेजेडी है।“2
 अस्थिर व्यक्तित्व की धनी है सावित्री। अपनी इस अस्थिरता के कारण ही वह किसी भी व्यक्ति के प्रति पूर्णतया समर्पित नहीं हो पाती है । काल्पनिक पूर्ण पुरुष की खोज में वह प्रयोग करती चली जाती है । अपनी असीमित आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अलग-अलग पुरुषों यथा जगमोहन,जुनेजा,मनोज और सिंघानिया को अपना माध्यम बनाती है ।  ये सभी पुरुष अपनी वासनाओं की तृप्ति  कर उसे उसी हाल में छोड़  देते हैं ।  मनोज तो उसकी पुत्री को ही ले भागता है ।  ये स्त्री अपना सर्वस्व लुटाकर भी अय्याशी की जिंदगी जीना चाहती है। यही कारण है कि नाटक के समापन के समय वह सदा-सदा के लिए महेन्द्रनाथ का घर छोड़कर जगमोहन के साथ रहना चाहती है जबकि  जगमोहन तो उसे मात्र उपभोग की वस्तु समझता है । स्वयं नाटककार ने इस नाटक की भूमिका में लिखा है “यह आलेख एक स्‍तर पर स्‍त्री-पुरुष के बीच के लगाव और तनाव का दस्‍तावेज है। महेन्‍द्रनाथ सावित्री से बहुत प्रेम करता है। सावित्री भी उसे चाहती रही होगी, लेकिन ब्‍याह के बाद महेन्‍द्रनाथ को बहुत निकट से जानने  पर उससे वितृष्‍णा होने लगी, क्‍योंकि जीवन से सावित्री की अपेक्षाएं बहुत कटु हो गई है। एक ओर घर को चलाने का असह्य बोझ है तो दूसरी ओर जिंदगी में कुछ भी हासिल न कर पाने की तीखी कचोट। अपने बच्‍चों के बरताव से अत्‍यंत तिक्‍त हुई सावित्री बची-खुची जिंदगी को ही एक पूरे, संपूर्ण पुरुष के साथ बिताने की आकांक्षा रखती है। पर यह आकांक्षा पूरी नहीं हो पाती, क्‍योंकि संपूर्णता की तलाश ही शायद वाज़िब नहीं। ।“3
सावित्री एक सुविधाभोगी नारी है । अपने बलबूते पर तो वह इन सुविधाओं का उपभोग करने में असमर्थ है क्योंकि परिवार की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ नहीं हैं फिर इन सुविधाओं का उपभोग करने के लिए उसे अन्य पुरुषों की ओर आकर्षित होना पड़ता है और उनकी अंकशायनी बनना पड़ता है । महेन्द्रनाथ बेरोजगार है और सावित्री की दृष्टि में  एक निठल्ला, बेकार और पराधीन पुरुष है । जिसकी अपनी कोई अहमियत या माद्दा नहीं है । इसीलिए सावित्री  इसकी खोज अन्य स्थानों पर, अन्य पुरुषों (जुनेजा,मनोज, सिंघानिया, आदि) में करती रहती है । परिवार की इस स्थिति का कारण भी वह महेन्द्रनाथ को ही मानती है । सावित्री  नौकरीपेशा है साथ ही साथ घर का पूरा काम भी करती है । सावित्री की समस्या पूर्ण पुरुष की चाह है इसीलिए सावित्री पूर्णता की खोज में पर पुरुषों के पीछे दौड़ती रहती है । परन्तु सभी पुरुष एक से चाहे वह महेन्द्रनाथ हो, जुनेजा हो, मनोज हो या फिर सिंघानिया । महेन्द्रनाथ  तो उसकी दृष्टि में पूर्णतया अधूरा पुरुष है । वह अधूरे पुरुष को स्वीकार नहीं कर पाती । यही तनाव, संशय और कुंठा इन दोनों की नियति बन गई है । महेन्द्रनाथ भी स्वयं को बार-बार घिसने वाला रबर का एक टुकड़ासमझता है जिसकी परिवार के सदस्यों की दृष्टि में कोई अहमियत नहीं है । यही कारण है कि उनके घर में  ‘इतनी गर्द भरी रहती है हर वक्त इस घर में । पता नहीं कहाँ से चली आती है ।’ वस्तुतः यह ‘गर्द’ और कुछ नहीं पारिवारिक घुटन.संत्रास और विचारों की ‘गर्द’ है जो इस परिवार में जम चुकी है । इस घर में ही अपने अंदर कुछ ऐसी चीज है जो किसी भी स्थिति में किसी को भी स्वाभाविक नहीं रहने देती है जिसे ‘हवा’ कहा जा सकता है जो सावित्री और महेन्द्रनाथ के बीच गुजरती है तो कभी  बिन्नी और मनोज के बीच से गुजरती है  
          सावित्री एक जटिल चरित्र है  जिसे समझ पाना न केवल कठिन है अपितु नामुमकिन भी है  । उसके भीतर और बाहर में गहरा असामंजस्‍य है, और उसके चेहरे भी अनेक हैं । उसकी चारित्रिक जटिलता के कारण ही उसके स्वभाव में विशेष रूप से चिड़चिड़ापन है । वह अपने मार्ग से भटकी हुई औरत है जो परिस्थितियों के फेर में पड़कर अनदेखे पूर्ण पुरुष की तलाश में भटकती रहती है । हर एक व्यक्ति ने उसका उपभोग किया और छोड़ दिया । इसीलिए वह कहती है ‘“सब के सब एक से । बिलकुल एक से हैं आप लोग । अलग-अलग मुखौटे,पर चेहरा ?   चेहरा सबका एक ही ।”
सावित्री भौतिक संसाधनों के ही पीछे लगी रहती है वह अय्याशी की जिंदगी जीना चाहती है । सावित्री  की भटकन देख कर लगता है कि वह व्‍यक्तियों के पीछे नही, पैसे और प्रतिष्‍ठा के पीछे भागती रही । यही कारण  है कि वह ऊँचे वेतन वाले, रुतबे वाले  और प्रतिष्ठा वाले व्यक्ति के पीछे भागती रहती है । उसके बेटे ने उसे बहुत सही समझा है ‘‘उसकी किसी ‘बड़ी’ चीज की वजह से । एक को कि वह इंटेलेक्चुअल बहुत बड़ा है । दूसरे को कि उसकी तनख्वाह पांच हजार है । तीसरे को कि उसकी तख्ती चीफ़ कमिश्नर की है । जब भी बुलाया है,आदमी को नहीं – उसकी तनखाह को, नाम को, रुतबे को बुलाया है।“4 इसी  कारण अशोक  मानता है  कि ‘जिनके आने से हम जितने छोटे हैं, उससे और छोटे हो जाते हैं अपनी नजर में ।’  सावित्री की दृष्टि में व्यक्ति का महत्त्व नहीं  अपितु पद और पैसे का महत्त्व है । सावित्री व्‍यक्ति की अपेक्षा दुनिया की चमक-दमक-वाली दूसरी बहुत सारी चीजों के पीछे दौडती रही, पर सारी चीजों का किसी एक ही बिन्‍दु पर या एक ही व्‍यक्ति में मिल पाना सम्‍भव नहीं होता। जुनेजा उससे कहता है- वह उतना कुछ कभी तुम्‍हें  किसी एक जगह नहीं मिल पाता, इसलिए जिस किसी के साथ भी जिन्‍दगी शुरू करती, तुम हमेशा इतनी ही खाली, इतनी ही बेचेन बनी रहती।5 परन्तु यह भी एक विडंबना ही है कि पूरे आदमी की खोज में, दूसरे शब्‍दों में, पूर्णता की खोज में भटकने वाली सावित्री स्‍वयं अपूर्ण है, आधी-अधूरी है । । सावित्री के घुटनभरे दुखी जीवन का कारण यह भी है कि वह व्‍यक्ति से नहीं, बल्कि उससे सम्‍बद्ध 'वस्‍तु' से जुडना चाहती  है और ये वस्तु है पैसा,रुतबा और नाम । सावित्री का व्‍यक्ति‍त्‍व अस्थिर है । वह किसी एक के प्रति पूर्णनिष्‍ठ और समर्पित हो ही नहीं पाती  । काल्‍पनिक पूर्ण पुरुष की खोज में वह प्रयोग करती चलती है ।  जगमोहन शिवजीत, मनोज और जुनेजा सब उसकी महत्‍वकांक्षा की कसौटी पर अधूरे उतरते हैं । उनमें से वह किसी एक का भी चयन नहीं कर पाती । वह अनुभव करती है  “सब के सब एक से । बिलकुल एक से हैं आप लोग । अलग-अलग मुखौटे,पर चेहरा ?   चेहरा सबका एक ही ।”6 सावित्री  को चाहिए एक पूर्ण पुरुष । ‘वह एक पूरा आदमी चाहती है अपने लिए एक...पूरा आदमी ।’ उसे ‘लिजलिजा- सा’ और ‘चिपचिपा- सा’ महेन्द्रनाथ जैसा आदमी नहीं चाहिए । सावित्री का यही अस्थिर व्‍यक्तित्‍व उसे  बार-बार छलता है और वह कहीं पर भी स्थिर नहीं हो पाती, टिक नहीं पाती । उसकी यह अस्थिरता उसे इतना गिरा देती है कि वह सभ्रांत वारांगना बनकर रह जाती है । वह ऐश्‍वर्य, पद, धन और सम्‍मान की प्‍यासी है वह महत्‍वाकांक्षिणी है और काल्‍पनिक पूरे पन की तलाश में वह भटकती है । महेन्द्रनाथ उसकी इसी भटकन को इंगित करते हुए कहता है “अधिकार,रुतबा,इज्जत-यह सब बाहर के लोगों से मिल सकता है इस घर को । इस घर का आज तक कुछ बना है,या आगे बन सकता है, तो सिर्फ बाहर के लोगों के भरोसे । मेरे भरोसे तो सब कुछ बिगड़ता आया है ।7
मोहन राकेश ने आधे अधूरे नाटक में घर का आर्थिक बोझ उठा रही सावित्री जैसी भारतीय स्त्री की स्थिति का यथार्थ चित्रण किया है । वह इतनी टूट चुकी है मेरे पास बहुत साल नहीं है जीने को । पर जितने हैं, उन्हें मैं इसी तरह निभाते हुए नहीं काटूंगी । मेरे करने से जो कुछ हो सकता था इस घर का, हो चुका, आज तक । मेरी तरफ से अब अंत है उसका, निश्चित अंत ।8  यद्यपि इस पूरे नाटक में सावित्री  के चरित्र को लेकर पाठक  शंकित बना रहता है कहीं –कहीं उसके प्रति संवेदना भी जागती है तो कहीं-कहीं पाठक उसे धिकारता भी है  और नाटक के अंत में नाटककार ने  उसे पूर्णतया भारतीय नारी के रूप में व्यक्त कर दिया है । साथ ही  सावित्री को जुनेजा के साथ चल निकलने का निर्णय लेते हुए तो दिखाते है परंतु अंततः उसे अपने ही निर्णय के अनुसार मुक्त होते हुए नहीं दिखा पाते वहां उन्हें भारतीय नारी का आदर्श रूप याद आता है । भारतीय नारी सब कुछ कर सकती है,अपने पति को कापुरुष ,निठल्ला या कामचोर सब कुछ कह सकती है  परन्तु अपना घर छोड़ कर नहीं जा सकती । भारतीय  परंपरा में तो यह  भी कहा जाता है कि जिस घर में  स्त्री दुल्हन बनकर डोली में आती है और अर्थी में जाती है । यही कारण है कि वह जुनेजा के साथ जाने को तैयार तो होती है परंतु जा नहीं पाती है । इस प्रकार सावित्री के माध्यम से राकेश ने आधुनिक नारी का चित्रण किया है जो आज की पारिवारिक वर्जनाओं को तोड़ने का साहस करती तो है पर तोड़ नहीं पाती है । सावित्री एक जटिल चरित्र है जो आधुनिकता की चकाचौंध से घिरी हुई है जो इसी जीवन में सबकुछ प्राप्त कर लेना चाहती है ।  परंतु सावित्री को न तो ऐशोआराम ही मिलता है और न पूर्ण पुरुष, जिसकी तलाश वह जीवन भर भटकती  रहती है ।
अत: निष्कर्ष रूप में यही कहा जा सकता है कि सावित्री की इस स्थिति का मूल कारण उसका महत्वाकांक्षी होना,अय्याश जीवन, धन के पीछे अंधी दौड़, उसकी विलासी प्रवृति और नकारापति है । इस प्रकार इन सब परिस्थितियों ने मिलकर सावित्री को आवारा बनने को विवश कर दिया और वह निरन्‍तर पुरुषों द्वारा छली जाती रही और अन्‍तत: उसी अधूरेपन  को समेट कर रह जाती है जिससे मुक्‍त होने के लिए वह भटकती रही ।
  

पाद –टिप्पणी
  1     रस्तोगी,गिरीश,हिंदी नाटक और रंगमंच : नयी दिशाये,नये प्रश्न,अभिव्यक्ति प्रकाशन,
  इलाहाबाद, - पृ. 33
2          कुमार सिद्धनाथ, आधे अधूरे : संवेदना और शिल्‍प, सरोज प्रकाशन,
  देवीमण्‍डप मार्ग, हेसल, रांची- पृ. 65
3          मोहन राकेश, आधे अधूरे,राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लिमिटेड,दिल्ली,निर्देशक का वक्तव्य पृ. V
4         मोहन राकेश, आधे अधूरे,राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लिमिटेड,दिल्ली,पृ. 53
5         मोहन राकेश, आधे अधूरे,राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लिमिटेड,दिल्ली,पृ. 91
6         मोहन राकेश, आधे अधूरे,राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लिमिटेड,दिल्ली,पृ. 93
7         मोहन राकेश, आधे अधूरे,राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लिमिटेड,दिल्ली,पृ. 39
8         मोहन राकेश, आधे अधूरे,राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लिमिटेड,दिल्ली,पृ. 56





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