समृद्ध वाचिक परम्परा का क्षीण होता लोक
हज़ारों हज़ारों साल नर्गिस अपनी बेनुरी पे रोती है ।
बड़ी मुश्किल से होता है, चमन में दीदावर पैदा ।।
उक्त
पंक्तियाँ मेरे विषय को सारगर्भित रूप से स्वत: ही इंगित कर देती हैं। क्योंकि हजारों
वर्षों की साधना के उपरांत लोक की किसी स्वस्थ विधा यथा - किसी परम्परा, किसी
लोकोक्ति, किसी लोकगीत या लोक कथा का सर्जन होता है। परन्तु निष्ठुर काल के प्रवाह
को भी मात देकर सदियों-सदियों से लोकजन के कंठहार बने लोक साहित्य को अपनों द्वारा
ही आधुनिकता के फेर में पड़कर, भविष्य से
अनजान बनकर, पाश्चात्य संस्कृति का चोला पहनकर उसे काल कवलित कर देना ह्रदय में
हुक पैदा करता है।
आधुनिकता
के परिणाम स्वरुप आज लोक साहित्य हाशिए के साहित्य में परिवर्तित हो गया है।
आधुनिकता की चकाचौंध में फंसा आज का युवा लोक और लोक-साहित्य से कट-सा गया है।
प्रस्तुत शोधालेख में लोक की विलुप्त होती वाचिक परम्पराएं यथा -लोक कथा, लोक
गाथा, लोक गीत, लोक नाट्य, लोक गायिकी की चारबैत शैली, लोक ख्याल एवं लोकोक्तियों
में निहित ज्ञान सम्पदा को अभिव्यक्त करते हुए यह बताने का प्रयास किया है कि
हमारे पूर्वजों के जीवनानुभव, उनके जीवन संघर्ष की अनुभूतियाँ इस लोक साहित्य में
समाहित हैं। ये अनुभवजन्य लोक साहित्य अनेक समस्याओं और जटिल प्रश्नों का समाधान
प्रस्तुत करता हैं। विरासत में मिली इस प्राचीन लोक ज्ञान सम्पदा को संकलित,
संरक्षित एवं सुरक्षित रखने के लिए सचेत और संकल्पित होना चाहिए।
आज की उपभोक्तावादी संस्कृति में लोक
संस्कृति का ह्रास तीव्र गति से हो रहा है। उसे अपनी जड़ों से उखाड़ा जा रहा है। ऐसी
स्थिति में लोक शैली की अस्मिता को कैसे और कब तक बचा पायेंगे, इस पर विचार होना चाहिए। उत्तर आधुनिकता, औद्योगीकरण, बाज़ारवाद, वैश्वीकरण
तथा समूह संचार माध्यमों ने लोक साहित्य के स्वरुप और कथ्य में परिवर्तन किया है।
पूंजीवाद की गिरफ़्त में आकर अब लोक साहित्य बाज़ार की वस्तु हो गई है।
लोक
साहित्य अतीत से लेकर भविष्य तक सर्वत्र और सर्वदा व्याप्त विधा है। लोक साहित्य
में लोक मानस की अभिव्यक्ति होती है। लोक मानस में नैतिक मूल्यों, रीति-रिवाजों, विश्वासों
और धारणाओं के साथ- साथ साहित्यिक रूपों को भी अभिव्यक्ति मिलती है। इस प्रकार लोक
साहित्य लोक जीवन की अभिव्यक्ति है। लोक साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह
व्यवसाय प्रधान नहीं होता, परम्परागत मौखिक रूप से उपलब्ध होता है जिसे लोक मानस
अपनी ही कृति स्वीकार करता है। लोक साहित्य या लोक संस्कृति व्यक्ति रचित न होकर
लोक रचित होती है। यह अतीत का दस्तावेज़ भी है और भविष्य का दिशावाहक भी। लोक
साहित्य लोक संस्कृति का निर्माण करता है। अत: लोक साहित्य में लोक संस्कृति का ज्ञान
संचित रहता है। लोक साहित्य न समाप्त होने वाली अगाध यात्रा है क्योंकि यह पीढ़ी दर
पीढ़ी हस्तांतरित होती रहती है।
लोक
साहित्य की परम्पराओं के अध्ययन से एक ओर अतीत को समझने की दृष्टि मिलती है, तो
दूसरी ओर वर्तमान परिदृश्य में उसकी आवश्यकता, अनुकूलता ही नहीं अपरिहार्यता का भी
अनुभव होता है। यह लोक साहित्य आज के खंड- खंड होते जा रहे सामाजिक जीवन को लगाव-
जुड़ाव की ओर ले जाने की पुनः ललक दे सकता है।
यह
सर्व विदित है कि परम्परा और आधुनिकता दोनों एक दूसरे के विलोम और विपरीतार्थक
शब्द हैं। आधुनिकता की ओट में आज का युवा अपने परंपरागत साहित्य एवं संस्कृति से
विलग होता जा रहा है या यूँ कहा जा सकता है कि वह अपने लोक से कटता जा रहा है। जिसका
सीधा अर्थ यह है कि वह अपनी परम्पराओं और जड़ों से कटता जा रहा है।
जैसा
कि पहले कहा जा चुका है कि लोक साहित्य का लिखित रूप प्राप्त नहीं होता है। यह पीढ़ी दर पीढ़ी वाचिक परम्परा द्वारा ही जन तक पहुंचता है। लोक
साहित्य अलिखित एवं तर्क से परे होता है। वाचिक शब्द का अर्थ है - वाणी सम्बन्धी, वाणी से किया हुआ, संकेत में कहा
हुआ।
अर्थात् मौखिक रूप से अभिव्यक्त हुई वाणी या बातचीत। वैसे तो लोक का मूल स्वरूप ही वाचिक परम्परा पर टिका हुआ है या यूँ कहा जा सकता है
कि लोक की प्रमुख विशेषता ही उसका वाचिक होना ही है लोक की वाचिक परम्परा
की एक ओर महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें केवल भाषा ही नहीं होती, वक्ता का
सम्पूर्ण व्यक्तित्व और उसके सामाजिक संसार के सारे हाव-भाव और संकेत भी इसमें
समाहित होते हैं।
मौखिकी की
परम्परा अनादि, अनंत और सतत चलने वाली प्रक्रिया है। अत: लोक साहित्य न समाप्त
होने वाली अगाध यात्रा है। सम्पूर्ण लोक साहित्य यथा -लोरियां, लोकगीत, दादी -नानी
द्वारा कही जाने वाली कथाएँ, लोक कथाएँ, लोक नाट्यों के संवाद, कहावतें लोकोक्तियाँ
आदि सभी का मूलाधार वाचिक परम्परा ही है।
यदि देश के परिदृश्य में राजस्थान के
लोक की बात करें तो यहाँ का सांस्कृतिक वैभव बेजोड़ है। यहाँ के लोक साहित्य का
क्षेत्र बहुत ही व्यापक और विस्तृत है। त्याग और वीरता -की इस भूमि को ऐसे ही वीर
प्रसूता नहीं कहा जाता। त्यागमयी ललनाओं, साहसी वीरो
और गरिमामयी संस्कृति के इस प्रदेश का लौकिक साहित्य अनूठा है। इस मरु प्रदेश की
लोक गाथाएँ, लोकगीत, लोकसंगीत, लोकनाट्य, लोक कला और जीवन शैली निराली और जीवंत है।
राजस्थान के लोक साहित्य पर विचार करें तो ज्ञात होता है कि अनेक वाचिक परम्पराएँ विलुप्त
होने के कगार पर हैं।
राजस्थान
की प्रमुख वाचिक परम्परा में यहाँ के लोकगीतों का स्थान प्रमुख है। लोकमानस की
सुखात्मक-दुखात्मक अनुभूतियों का नाम ही लोकगीत है। प्राचीन समय में मनुष्य के जन्म से मरण तक अर्थात् सोलह संस्कारों पर
लोकगीत गाये जाते थे। संस्कार गीत, बन्ने, बन्नी एवं हरजस गाने वाली बूढी नानी-दादी,
काकियां कहाँ बची हैं? ये भी इन वाचिक परम्पराओं के सामान ही लुप्तप्राय हो गई हैं।
प्राचीन काल में समधी जी को गालियाँ गायी जाती थीं, जिनमें प्रेम पूर्वक भोजन करने
के निमंत्रण के साथ-साथ समधी और समधन के हास -परिहास होता था तो साथ ही समधी जी के
सारे परिवार को आधार बनाकर उन्हें उलाहने भी दिए जाते थे परन्तु आज ये समधी गाने
वाली नानी-दादियाँ लोक में कहीं भी नज़र नहीं आती हैं।
राजस्थानी
लोक में त्योहारों का विशेष महत्त्व है। यहाँ ख़ुशी एवं त्योहार के अवसर पर पहले घर-घर में महिलाओं और ललनाओं द्वारा गोखे पर
बैठकर कर्ण प्रिय लोक गीत गाये जाते थे और सुनते-सुनाते कंठगत हो जाते थे। सोलह
संस्कारों पर हर घर में लोकगीत गाये जाते थे। प्राचीन समय में अवसरों पर गीतों का
न गाया जाना अशुभ माना जाता था परंतु आज की भाग-दौड़ भरी जिंदगी में न तो त्योहारों
का महत्त्व ही शेष रहा है और न ही प्रदूषित होते संस्कारों के कारण न तो ललनाएं ही घर से बाहर निकलती हैं और न ही उन्हें
त्योहारों के गीत ही आते हैं। किसी भी
मौखिक साहित्य का मूल तत्त्व शब्द, उसकी बनावट, उसकी संरचना तथा उसके अर्थ में होता है।
जैसे उड़
-उड़ रे म्हारा काला र कागला, कद म्हारा पिव जी घर आवै
सोने की चोंच मंडाऊँ .....
यहाँ बताना चाहता हूँ कि बाज़ारवाद के बढ़ते प्रभाव के कारण
लोकगीत पुनः जीवित तो हो रहा है परन्तु उसके प्राण तत्व खो गए हैं, अर्थ का अनर्थ
होता जा रहा है। जैसे उक्त गाने में परन्तु काला और काळ। के दो अर्थ हैं - काला
-काला रंग , नालायक, अव्यवाहारिक, बेईमान ।
परन्तु मूल लोकगीत में नायिका कवै के रंग के कारण उसे काला कहती हैं एवं लालच
स्वरूप उसकी चोंच सोने से मंडवाने की बात करती है। अप्रत्यक्ष रूप से उसे उपहार
देना चाहती है।
लोक साहित्य में प्रतिमान एवं बिम्ब भी लोक से ही ग्रहण
किए जाते हैं। यहाँ नायिका कवै को शगुन कारक मानकर अपने दुःख का साथी बनाती है।
इसी
प्रकार एक और उदाहरण देखिए -
सूती छी रंगमहल में, सूती ने आयो र जनजाळ,
सपना रे बैरी भंवर मिला दीज्यो।
साधारण -सा यह लोकगीत परन्तु शब्द गाम्भीर्य और अर्थ
गाम्भीर्य इसमें विशिष्ट है ।
प्रथमत: नायिका सामान्य नहीं है। वह विरह दग्द है। पल-पल
अपने पति की बाट जोहती है, परन्तु प्रियतम विदेश में है, मिले तो कैसे? वह रनिवास
में नहीं अपितु रंगमहल में सोई हुई है। रंगमहल से तात्पर्य आमोद प्रमोद की स्थली
अर्थात् आंग्ल भाषा का बेड रूम। नायिका जंजाल (स्वप्न) देखती है, जंजाल से
तात्पर्य अस्पष्ट दिखाई देना, विचित्र सी घटनाएँ, हो सकता है वहां नायिका को नायक
भी विरह में दग्द दिखाई दे, प्रिय मिलन की उत्कंठा उधर भी हो? (नदी किनारे धुंवा उठत, मैं जानू कछु होय, जिसकी
याद में मैं जलु, वो न जलता होय)
वह विरह
दग्द्द नायिका जंजाल देखकर सपने को बैरी कहती है। सपन क्यों बैरी है ? क्योंकि
नायिका को प्रिय वियोग के कारण नींद नहीं आती और जब नींद नहीं आती तो सपना कैसे
आये और बिना सपने के प्रियतम दर्शन संभव
नहीं। अत: नायिका सपने से कहती है कि मेरा प्रियतम तो विदेश में है प्रत्यक्ष रूप
से तो आकर नहीं मिल सकते कम से कम सपने में तो उसके दर्शन हो जाए।
अत: कहा जा सकता है कि लोक साहित्य अपने अर्थगत स्वरुप को
लेकर विशिष्ट होता है।
जैसे - झख मारना, हाणतो फिरे, हुन्करियो, छोगे।
राजस्थान
की वाचिक परम्परा में यहाँ की लोक कथाएँ भी अन्यत्तम स्थान की अधिकारी हैं। पहले गाँवों
में चौपाल लगता था, लोग बैठते थे, कथाएँ सुनते-सुनाते थे। जो न केवल मनोरंजन करती
थी अपितु बातों ही बातों में उपदेश भी दिया करती थी साथ ही सामूहिकता की भावना का
विकास भी करती थी। परंतु आज के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कारण न तो कथाएँ कही जाती
है और न ही इन्हें सुनाने वाले बचे हैं।
राजस्थान
की प्रमुख वाचिक परम्परा यहाँ की लोक गाथाएँ भी हैं, जो लोक का कंठाहार बनी हुई थी।
बगड़ावत गाथा, निहालदे-सुलतान, पृथ्वीराज-सुरजां, जीणमाता, सत्यवादी राजा
हरिश्चंद्र, राजा भरथरी, सत्यवान-सावित्री, राजा मोरध्वज, अमर सिंह राठौड़, वीर
तीजाजी, रामदेव जी आदि के वीरता पूर्ण चरित द्वारा लोक का स्वस्थ मनोरंजन होता था। परन्तु लोक की यह वाचिक परम्परा आज लुप्त प्राय
हो गई है। चिराग लेकर दूँढने पर भी लोक गाथाओं के उस्ताद नहीं मिलते हैं।
कठपुतली,
अंग आलेखन (गोदना), चारबैत, घूमर नृत्य, चरी नृत्य आदि भी विलुप्त होने के कगार पर
हैं। इतना ही नहीं शहनाई, सारंगी,
पेटीबाजा, ढ़ोलक, मंजीरे जैसे वाद्य यंत्र भी समय के प्रवाह में खो गए हैं।
चारबैत :- चारबैत उर्दू की वह शायरी है जो समूह में गायी
जाती है और जिसके हर बंद में चार मिसरे होते हैं। अर्थात् जिस प्रकार ग़ज़ल के
प्रत्येक शे'र में दो मिसरे होते हैं उसी प्रकार चारबैत के हर बंद में चार मिसरे
होते हैं। चारबैत शायरी क़व्वाली की तरह एक ख़ास अंदाज में गायी जाती है। उत्साह एवं
जोशो ख़रोश इसकी गायकी की विशिष्टता है। शे'र के आधे हिस्से को पंक्ति या मिसरा कहा जाता
तथा दो मिसरे मिलकर एक शे'र बनता है।
चारबैत शब्द के अर्थ को देखें तो ज्ञात
होता है कि फ़ारसी भाषा में 'बैत' शब्द का अर्थ 'पंक्ति' होता है। इस प्रकार चारबैत
का अर्थ है, चार पंक्तियों वाली कविता क्योंकि इसके हर बंद में चार मिसरे होते हैं
और ये एक विशेष 'बहर' अर्थात एक धुन में लिखी जाती है। इसलिए इसे चारबैत के नाम से
जाना जाता है। कुछ आलोचक इसे अफ़गानी लोक गीत भी मानते हैं। यह भी माना जाता है कि इस शैली का उद्भव अफगानिस्तान में
हुआ था। "चार बैत मूलतः पठान संस्कृति से जुड़ी गायन परंपरा है। फ़ारसी भाषा में चार पंक्ति के विशेष तुक युक्त छंद को
बैत कहा जाता है। चार बैत के समुच्चय को चारबैत नाम से जाना जाता है।"1
पुरानी मान्यताओं के अनुसार यह गायन शैली करीब 1,500 साल
पहले पश्तो और फारसी के माध्यम से अफगानिस्तान में शुरू हुई जहां युद्ध के
दौरान एवं आराम के समय ये लोक गीत गाए
जाते थे।
कुछ आलोचक चारबैत का अर्थ चार
व्यक्तियों की परस्पर तकरार से भी लेते हैं। क्योंकि चारबैत मुख्यतः चार
व्यक्तियों की तकरार से ही आरंभ होती है। अर्थात गायक दो दल बनाकर सवाल-जबाब करते
थे। चारबैत में जो शायरी गायी जाती है उसमें कविता को सवाई, दो बंदी, चौबंदी, पांच
बंदी और छह बंदी आदि कहते हैं। परंतु अधिकांश चारबैंतों में चौबंदी लिखी गयी है।
सवाई चारबैंत में एक पूरी पंक्ति और दूसरी पंक्ति प्रथम की एक चौथाई होती है। दो
बंदी में दो पंक्तियाँ तथा चौबंदी में चार पूरी-पूरी पंक्तियाँ होती हैं। पांच बंदी में पांचो पंक्तियाँ तथा छह
बंदी में छहों पंक्तियाँ बराबर होती हैं।
कुछ आलोचकों का मानना है कि चारबैत सेना
में जोश भरने का काम भी करती थी। इस कारण इसे फ़ौजी राग़ के नाम से भी जाना जाता
है। जैसे -
हम वो जंगी हैं जिन्हें देखकर थर्राते
थे।
नाम सुनते ही उदु दिल में लरज जाते थे।
एक इशारे पे खुदा की कसम लड़ जाते थे।
रुकने वाले थे कहीं मीर खां
तलवारों में। 2
(कलाम - मुहम्मद उमर मियां
टोंक)
राजस्थान के एक लोकनाट्य के रूप में भी
इसे मान्यता प्राप्त है। राजस्थान का तुर्रा-कलंगी लोक नाट्य इससे बहुत कुछ साम्य
रखता है। उसमें भी दो दल एक, तुर्रा एवं दूसरा कलंगी शिव और शक्ति के प्रतीक के रूप में सवाल जवाब करते हैं।
चारबैत एक लोकनाट्य - भारत में चारबैत
को विभिन्न नामों से जाना जाता है यथा पठानी लोक गीत, पठानी राग़, कबाइली राग, अखाड़ा,
पार्टियाँ, पठानों का लोक गीत आदि। राजस्थान में चारबैत से मिलता-जुलता लोकनाट्य
है- तुर्रा-कलंगी एवं हेला ख्याल। इन दोनों लोकनाट्यों में भी सवाल-जवाबी एवं
हाज़िर जवाबी अनिवार्य शर्त है। तुर्रा-कलंगी तो हुबहू चारबैत से मिलता है।
वाद्ययंत्र-
चारबैत में गायक एक विशेष प्रकार के वाद्य यंत्र का प्रयोग करते हैं जिसे ढप कहते
हैं। ये ढप लकड़ी के फ्रेम के बने होते हैं
तथा बकरे या हरिन की खाल से मढ़े होते हैं। अर्थात एक ओर इन पर ख़ाल चढ़ाई जाती है तो दूसरी ओर यह पूरा खाली
होता है जिससे थाप ख़ाल पर पड़ने के कारण जोर की आवाज आती है।
मंच
- चारबैत एक प्रकार से अखाड़ों में आयोजित की जाती है क्योंकि इसमें दो दल परस्पर
सवाल-जवाब शैली में प्रतिस्पर्धा करते हैं इसलिए चारबैत का कार्यक्रम प्राय: बड़े
मैदानों में आयोजित किया जाता है।
चारबैत
के वर्ण्य विषय - चारबैत में हर प्रकार की शायरी गायी जाती है। जैसे नात, बारहमासा
वर्णन, त्योहार, चौमासे, बारह मासे, आशिकाना, इश्क, जुदाई आदि। इस प्रकार चारबैत
में ऋतु वर्णन होता है, बारह महीनों के तीज त्योहारों, ऋतु प्रकृति वर्णन, चौमासे
के समय बारिश की फुहारों में भीगते तन-मन एवं आशिकों की दशा का वर्णन इसमें विशेष
प्रकार से किया जाता है। साथ ही आशिकी की जुदाई और विरह को भी विशेष तरजीह दी जाती
है। चारबैत की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें सबसे पहले हम्द अर्थात् अल्लाह की
शान में ख़ुदा की इबादत के लिए नात- ए -पाक का गायन किया जाता है जिसमें खुदा के
आशीर्वाद की कामना के साथ साथ सर्वे भवंतु सुखिनः की भावना निहित होती है और सबके
मंगल की कामना की जाती है। जैसे
आओ आओ मेरे महबूबे ख़ुदा बिस्मिल्लाह।
आफ़ताबे अरबीमाहे लकब बिस्मिल्लाह।
ये
इरादा है कि अब हम्द इलाही लिखूं।
बाते
सरदारे रसूल सुबहा मसाहिल लिखूं।3
श्रृंगार -
बाहर
पर्दानशी बैठी है करके सिंगार।
हर घडी चिलमन उठाकर देखती
है बार-बार।
आशिके नाशाद का करती है सीना
फ़िगार।
हेफ़ यह सद हेफ़ किस बेरहम
पे दिल आया है।4
(कलाम-
मुहम्मद उमर मियां टोंक)
प्रेम और विरह मनुष्य के जीवन के अहम पहलू
हैं। जो मिलता है वह बिछुड़ता भी है चाहे वह प्रेमी हो, प्रियतम हो या फिर पत्नी।
टोंक के चार बैत शायर मुहम्मद उमर मियां ने बताया कि उनका प्रेम विवाह हुआ था और
वे अपनी पत्नी को 'रफ्फो' कहकर बुलाते थे। पत्नी के निधन पर परिवार के सब लोग मातम
मना रहे थे, उसी वक्त मुहम्मद उमर मियां उनकी जुदाई में चारबैत गा रहे थे -
क्या कहू इस दिल की हालत में दिखा सकता
नहीं।
गम जुदाई का तो रफ्फो अब सहा जाता नहीं।
बिन तेरे मुझ से तो रफ्फो अब रहा जाता नहीं।
मैंने तेरी
याद में दुनियां से निसबत तोड़ दी। 5
(कलाम-
मुहम्मद उमर मियां टोंक)
साहित्य का
मुख्य विषय मानव अध्ययन माना गया है परन्तु प्रकृति के साहचर्य बिना मनुष्य की
चेष्टाओं और मनोदशाओं का वर्णन करना असंभव है। प्रकृति और मनुष्य का सम्बन्ध
स्थायी होने के कारण मन की किसी भी दशा में प्रकृति उसे प्रभावित करती है।
प्राकृतिक दृश्य संयोग-वियोग में आश्रय के हृदय में जगे हुए भावों को तीव्रतर कर
देते हैं। यही कारण है कि काव्य में प्रकृति चित्रण हर काल में मिलता है। संस्कृत
काव्य से लेकर आधुनिक काव्य तक में प्रकृति के दर्शन होते हैं। अत: प्रकृति के
अभाव में किसी सुंदर काव्य की कल्पना कुछ अधूरी-सी ही प्रतीत होती है। चारबैत में
बारहमासा का वर्णन परिलक्षित होता है। वर्षा ऋतु में जैसे ही पपीहा या मेंढक बोलता है तो विरहणी हृदय में हुक -सी उठ
जाती है
प्यारी प्यारी ये पपीहे की सदा कोयल की
कूक।
सुनके दादर की सदा उठती है मेरे दिल में
हूक।
उसपे तेरी
याद करती है ज़िगर के टूक-टूक।
दिल को तड़पाती है मेरे घर अदा बरसात की। 6
(कलाम-
मुहम्मद उमर मियां टोंक)
वियोग की दशा में प्रकृति के समस्त उपकरण वियोग मग्न ह्रदय के ताप को बढ़ाने
वाले होते हैं। नायिका का दिन रात -रो रोकर बुरा हाल है, वह अपने प्रिय से यही
फ़रियाद करती है कि अब तो तुम आ जाओ तुम्हारे बिना ये बेरन रैन काटे नहीं कटती है -
सेज
पे तड़पूं अकेली मैं पीया की याद में।
तुम
वहाँ पर शाद रहो और यहाँ नाशाद मैं।
रातों
दिन रो-रो के करती हूँ यही फ़रियाद मैं।
रात
अँधेरी कैसे काटूँ पी बिना बरसात की। 7
लोकोक्ति
:- लोक में प्रचलित उक्ति को लोकोक्ति कहा जाता है। लोक के अनुभवजन्य ज्ञान को
लोकोक्ति अभिव्यक्त करती है। इसे इस प्रकार भी कहा जाता है कि लोकोक्ति लोक का अलिखित
संविधान है। लोक जीवन की ज्ञान संपदा अगाध है। जीवन का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं
है, जहाँ व्यक्ति की दृष्टि न पहुंची हो। प्रकृति, पशु-पक्षी, धरती-आसमान आदि से
सदैव निकटता रही है। लोकोक्तियाँ भी किसी एक क्षेत्र से सम्बंधित नहीं है मानव का
सम्पूर्ण क्षेत्र इसमें समाहित है।
वस्तुतः
कहावतों की विविध दृष्टियाँ होती हैं। यथा
प्रथम अर्थ पोषण की दृष्टि से - गाय न बाछी नींद आवे आच्छी।
अर्थात् इस प्रकार की कहावतों में अर्थ को प्रधानता दी जाती है।
द्वितीय
शिक्षण की दृष्टि -
ऐसी कहावतों में कोई न कोई शिक्षा होती है। यह शिक्षा नीति या ज्ञान
विषयक होती है। जैसे -
तीसरी
दृष्टि आलोचना विषयक होती है। जिसमें वस्तु स्थिति की गंभीर एवं कटु आलोचना निहित
होती है। साथ ही अनेक मानसिक तथ्यों को भी
प्रकट करती है। जैसे गधे को घी पिलाये तो सोचता है, उसकी आंख फोड़ रहे हैं।
चौथी
दृष्टि सूचना विषयक होती है। इनमें ऋतु, खेत, व्यवसाय, व्यवहार आदि के लिए उपयोगी
बातें निहित होती हैं । जैसी बुध बावणी, बिस्पत लावणी।
इन
कहावतों में जनमानस को प्रभावित करने की अद्भुत क्षमता है। यथा-स्वास्थ्य एवं भोजन
से सम्बंधित, नीति एवं मानव से सम्बंधित, ऐतिहासिक, धन-माया से सम्बंधित, भाग्य
एवं कर्मवाद से सम्बंधित व्यवसाय सम्बंधित सबका सुखद-दुखद विश्लेषण कर लोकोक्तियाँ
प्रस्तुत की हैं। जैसे सुखद जीवन के लिए स्वास्थ्य पर लोकोक्तियाँ कही-
पहलो
सुख नीरोगी काया, दूजो सुख घर में
माया ।
तीजो सुख पतिवरता नारी, चौथो सुख पुतर आज्ञाकारी ।।
लोकोक्तियों की उपयोगिता को इंगित करते हुए डॉ.
सत्येंद्र ने कहा है "लोकोक्तियाँ मानवी ज्ञान का सार हैं । ये मर्म को
स्पष्ट करती हैं और थोड़े में ही बहुत कुछ कह देने की सूत्र प्रणाली को साधारण लोक
में बनाए हुए हैं। इनमें नीति तो होती ही है, ग्रामीण दर्शन भी होता है। ये गाँवों
के ज्ञान कोश का भी काम करती हैं। पशुओं
एवं कृषि से सम्बन्ध रखने वाली अनेकों प्रामाणिक रचनाएँ इनमें भरी पड़ी हैं। इस
प्रकार कहावतों में हम लोक मानस के कितने ही पक्षों का साक्षात्कार कर सकते हैं। ये
कहावतें लोक जीवन के यथार्थ पक्ष से निबद्ध होती हैं। अतएव इनकी उपयोगिता लोक
व्यवहार में पद-पद पर दिखायी पड़ती है।" 8
समीक्षकों
का मानना है कि इन लोकोक्तियों में जीवन का समस्त विस्तार अंकित हुआ है। पशु-पक्षी, ग्राम-जनपदों
के स्त्री-पुरुष और नगरों के राजा और मंत्री सबके लिए स्वागत का भाव है। वस्तुतः लोकोक्तियाँ
सबको अपना मानकर जीवित रहती हैं। उनके लिए त्याज्य कुछ नहीं है। नगर, ग्राम, धनी और निर्धन के जो वर्ग हमने सब कल्पित कर
लिये हैं और जिनके तापमान से साहित्य भी अछूता नहीं बचा है, उसके
लिए लोक-साहित्य में और लोकोक्तियों में स्थान नहीं है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि लोक कथा की विषय व्यापकता अन्य साहित्यिक
विधाओं से अपेक्षतया अधिक है।
लोकोक्तियाँ
वस्तुतः लोक की काम चलाऊ अभिव्यक्तियाँ हैं। बहुत सीधे-सादे शब्दों में लघुत्तम
रूप में अपने भावों को प्रकट करने की चेष्टा में व्यवहार दृष्टि से उपयोगी बनाने
के लिए इनका जन्म हुआ होगा।
स्वास्थ्य का ध्यान
रखते हुए जन सामान्य को सचेत करते हुए लोकोक्तियों में खाद्य -अखाद्य के बारे में बताया गया है कि कौनसे मौसम में
कौनसी खाद्य सामग्री का सेवन करना चाहिए।
चैत्र मास में गुड़,बैसाख में तेल, ज्येष्ठ मॉस में महुवा, आषाढ़ में बेर,सावन के
महीने में हरी सब्जी, भादों में मठा क्वार में करेला तथा कार्तिक महीने में दही
नहीं खाना चाहिए।
चैते गुड़ बैसाखे तेल जेठे पंथ असाढ़े बेल ।
सावण साग भादवै दही, क्वार करेला काती दही ।।
जनसामान्य
जानता है कि खाने की तासीर ठंडी और गर्म होती है परन्तु हम बिना जाने ही ठंडी
तासीर की वस्तु के साथ गर्म तासीर का वस्तु का सेवन कर लेते हैं जिससे कफ़, पित्त
एवं वात रोगों में वृद्धि हो जाती है। खाने
में किन -किन वस्तुओं को साथ में नहीं खाना चाहिए। इस हेतु सावधानी के रूप में
बताया है -
केला संग इलायची, आम संग पय पाय ।
शरबत खरबूजा सहित, ककड़ी नमक लगाय ।।
खाना किस समय खाना चाहिए, उसका भी उल्लेख इन लोकोक्तियों
में हुआ है। यह ऐसे ही संभव नहीं हुआ है
अपितु लोक परीक्षण की प्रवृति इसमें समाहित है-
सूर्योदय, सूर्यास्त में खाना कबहूँ न खाय ।
जो मनुष्य भोजन करे बुद्धि मंद हो जाय ।।
प्रतिदिन भोजन का समय निश्चित कर खाय ।।
मिटे कब्जियत बल बढे, अरु जठराग्नि बढाय ।
लोकोक्तियाँ एवं
कहावतें देखने में छोटी लगे पर घाव करे गंभीर वाली कहावत को चरितार्थ करती हैं। कहावतों की
सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जन-जन के कंठ में समाहित हैं। ये तत्काल और सटीक प्रभाव
डालती हैं। लोक के मध्य ये कहावतें लुप्त होती जा रही हैं। प्राचीन समय में
बात-बात में कहावतें बोलकर एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति पर प्रभाव जमा लेता था। अब
ऐसा नहीं है आज ये कहावतें किसी बुजर्ग व्यक्ति के कंठ का ही हार हो सकती है, युवा
की नहीं।
कोई व्यक्ति एक व्यक्ति के समझाने से भी
समझ जाता है तो कोई पचास के समझाने पर भी नहीं समझता है, ऐसे व्यक्ति को आधार
बनाकर लोकोक्ति कही गई है-
मान र पांच्या पांचन की, न माने तो पचासन की
घड़ा गेल ठीकरी माँ गेल ढीकरी
खेती करो तो राखो गाड़ो, राड़ करो तो बोलो आडो
आयुर्वेद के ज्ञाता जानते हैं कि स्वस्थ शरीर के लिए खाना
खाने के बाद लघुशंका जाना चाहिए और बायां करवट लेकर कुछ समय विश्राम करना चाहिए। ठन्डे
पानी से स्नान करना चाहिए। जन सामान्य भी इस बात को अपने शब्दों में इस प्रकार
व्यक्त करता है -
खाकै मूते सोवै बाउं, काहै वैद बसवै गाऊं
ठंडो नहाय तातो खाय, ताके वैद कबहूँ न जाय
भोजन करके
परे उतान, आठ स्वांस ताको परमान
सोलह दहिने बत्तीस बायें, तब कल परै अन्न के
खायें
कार्तिक दूध अगहन में आलू, पूस पान अरु माघ
रतालू
फागुन शक्कर घी जो पाय, चैत आंवला कच्चा खाय
बैसाखे जो खाय करेला, जेठ दाख असाढे केला
सावन निसि में जब तब खाय, भादौ ब्यारु कबहुं न
पाय
क्वार कामना देय बचाय, तो शत बरस आयु जन पाय
लोक में
कुछ बातें विज्ञान सम्मत नहीं होती है। आधुनिक विज्ञान यह कहता है कि शाम को भोजन
नहींकरना चाहिए या हल्का भोजन करना चाहिए। स्वास्थ्य की दृष्टि से लोक में
प्रसिद्ध है कि शाम का खाना कभी भी नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि उसे शरीर निर्बल हो
जाता है -
ब्यालू कबहूँ न छोडिए, जासौ ताकत जाय
जो ब्यालू अवगुण करै, दुपेरे थोरो खाय
राजस्थानी
लोकोक्तियों में न केवल आयुर्वेद ही समाहित है अपितु समुद्र शास्त्र भी इसमें
समाया हुआ है । प्राचीन समय में मौसम विज्ञान के अभाव में भी लोक जीव- जंतुओं एवं
प्रकृति के आधार पर मौसम का सही आकलन कर लेते थे।
यदि मटकें में पानी गरम रहने लग जाए, चिड़िया मिटटी में नहाने लग जाए,
चींटियाँ अंडे लेकर बिल से निकलने लगे तो समझना चाहिए कि बरसात होने ही वाली है
-
मटके में पाणी गरम, चिड़िया नहावै
चींटी लै अंडा चले, तौ वर्षा नहिं दूर
यह लोक ज्ञान की ही विशेषता थी कि तिथियों के आधार पर भी
मौसम, प्रकृति के मिज़ाज एवं फ़सल की समृद्धता का पता लगा लिया करते थे।
चौदस पून्यू जेठ की
बरखा बरसे जोय
चौमासो बरसे नहीं,
नदियां में नीर न होय
ज्योतिषीय ज्ञान के आधार पर यदि चित्रा नक्षत्र में वर्षा होती है तो कोदो,
तिली और कपास की फ़सल की उपज नहीं होती है और गेहूं, गन्ना और घास की उपज बहुत
अच्छी होती है।
चित्रा बरसे तीन गए
कोदो तिली कपास
चित्रा बरसे तीन भए
गेहूं, शक्कर, घास
कार्तिक शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को यदि बुधवार हो तो
उस दिन बीस अंगुल वर्षा होती है।
पंचम कार्तिक शुक्ल
की, जो बुधवार की होय
बीस बिसे वृष्टि परै बरसा
झमाझम होय
इसी प्रकार
चैत चमके बीजली बरखा
सुदी बैसाख
जेठे सूरज जो तपै,
निश्चै बरसा भाख
रोहणी बरसे भृगु तपै,
कुछ-कुछ बरसा जाय
बहु कहे सब जनन से
स्वान भात खाय
माघ मास में हिम पड़े,
बिजली चमके जोय
जगत सुखी निश्चय रहे,
वृष्टि घनेरी होय
कृष्ण अषाढ़ी
प्रतिपदा, को अम्बर गरजंत
छतरी-छतरी जुझिया,
निहचे काळ पड़न्त
लोक का पशु ज्ञान भी बहुत समृद्ध
है।
किसी भी पशु के लक्षण, उसकी कद-काटी एवं शरीर को देखकर उसके बारे में जान सकते हैं
कि वह पशु शुभ या अशुभ, मेहनती है अथवा नहीं। जिस बैल की पूंछ लम्बी हो और कान छोटे हो तो समझना चाहिए वह बैल मेहनती है । यदि किसी
बैल के सींग मुड़े हुए हो, सर उठा हुआ हो, मुंह गोल हो, रोम नरम हो, कान चंचल हो तो
समझना चाहिए कि ऐसा बैल अनमोल है।
लम्बी पूंछ छोटे कान,
ऐसे बळद मेहनती जान
सींग मुड़े माथो उठ्यो
मुंडो हुवे गोळ, रोम नरम चंचल कान
ऐसे बैल अनमोल
इसी प्रकार दुधारू गाय के लक्षणों के बारे में भी जाना
जा सकता -
पतली पिंडी मोटी राण,
पूंछ हो मुंह के परमान
लंबा थण होवै जिके
गाय, होय दुधारू सबको भाय
प्राचीन समय में
घोड़ा सवारी एवं युद्ध में बहुतायत से प्रयुक्त होता था। युद्ध में
भी उसी घोड़े को प्रयोग में लिया जाता था जो शुभ हो, और शुभ के लक्षण
लोक ने अपने आधार पर निर्मित किए हैं -
मेंढा सिंगी कंठ मन
जिस घोड़े के होय
अरजुन के रथ में
जुटे, रोक सके न कोय
तीन पाँव एक रंग हो,
एक पाँव एक रंग
घर आये सम्पति घटे, पिया पड़े परदेस
लोक साहित्य
के समक्ष बहुत चुनौतियां हैं। जिन गाँवों ने इस अगाध परम्परा को जीवित रखा आज वहीं
इस लोक का रस सूखने लगा है। व्यावसायिकता की प्रदूषित हवा ने लोक जीवन के सहज
सौन्दर्य बोध को मुरझाने के लिए विवश कर दिया है। लोक गीतों पर फ़िल्मी राग -रंग
चढ़ने लगा है। उत्तर आधुनिकता, औद्योगिकीकरण, वैश्वीकरण तथा
समूह संचार माध्यमों ने लोक साहित्य का रूप भी बदला है और कथ्य पर भी प्रभाव छोड़ा
है। पूंजीवाद की गिरफ़्त में आकर अब लोक साहित्य बाज़ार की वस्तु हो रहा है। उत्सव
धर्मिता बढ़ तो रही है परन्तु व्यवसाय के रोप में। वर्जनाएं तो स्वीकार हो रही हैं,
आस्था खंडित हो रही है। परम्परा जिस रूप में अपनी विरासत और धरोहर को आगे बढ़ा रही
थी उसमें न केवल अवरोध आया है बल्कि उसे विकृत करके उसे बाज़ार का रूप देकर
प्रस्तुत करने की साजिश भी रची जा रही है। क्योंकि किसी भी देश की पहचान उसकी
संस्कृति होती है, उसकी परम्परा होती है। आज भारतीय समाज के सामने ऐसे बाज़ार हैं,
जहाँ ख़रीदे गए चश्में से भारतीय परम्परा को जो देखते- दिखाते हैं, वह सहज रूप नहीं
है। आज भी उस परम्परा का सहज रूप अत्यंत
सरल, सरस, मधुर और अपनेपन की सुगंध से भरा है ।
निष्कर्ष
:- वाचिक परम्परा के लिए आज के युग की मांग है कि उसे लिखित और दृश्य-श्रव्य रूप
भी प्रदान किया जाए। आज केवल संकलन, संग्रहण की ही नहीं, सुचारू क्रमबद्ध -अनुशीलन
और इनके मर्म की आत्मीय व्याख्या और मूल्याङ्कन की भी आवश्यकता है।
कहने का
तात्पर्य है कि हमारी जीवन संस्कृति से जुडी यह विविध वर्णी, बहुरंगी अनुभूत ज्ञान
सम्पदा जीवन का अक्षय कोष है। अधिकांश सम्पदा ऐसी है जो शाश्वत और अक्षुण्ण है। आज
की अंग्रेजी और विज्ञान शिक्षा से सम्पन्न
नयी पीढ़ी अहंकारवश इसकी उपेक्षा करके अपना ही अनर्थ करके महत्वपूर्ण ज्ञान सम्पदा
से दूर हो रही है, जो घातक है। विरासत में मिली इस पुरा लोक ज्ञान सम्पदा को
संकलित, संरक्षित, सुरक्षित रखने के लिए सचेत और संकल्पित होना चाहिए।
लोक में व्यक्तित्व का विलय हो जाना ही
लोक साहित्य की पहली शर्त है। आज लोक साहित्य को मुख्य धारा से विलग करके देखा जा
रहा है। इसका मूल कारण यह है कि उसे वस्तु के रूप में देखने की हमारी दृष्टि प्रबल
हो रही है।
लोक
को बाज़ार की वस्तु बनाने की कोशिश हो रही है, उसे उपभोक्ता संस्कृति का शिकार होने
से बचाया जाना चाहिए। लोक साहित्य का मुख्य ध्येय लोक मंगल की भावना, परोपकार,
त्याग, करुणा आदि है तो यह आवश्यक हो उठा है कि उसे मुख्य धारा में बनाए रखने की
पहल की जाए। यदि लोक साहित्य बाज़ार की वस्तु बन जायेगी तो उसमें समाहित लोक मंगल
भाव, आत्मीयता का भाव समाप्त हो जाएगा तो हम जमीन से उखड़ जायेंगे क्योंकि लोक
साहित्य में हमारी परम्पराएं निवास करती हैं। एक प्रकार से
लोक हमारा मौखिक संविधान है। यह आवश्यक हो उठा है कि उसे मुख्य धारा में बनाए रखने
की पहल की जाए।
अत: निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता
है कि हमारी परम्परा लोक और शास्त्र दोनों में मौजूद है। लोक जितना शास्त्र
से संचालित नहीं होता उससे कई गुना ज्यादा परंपरा से संचालित होता है, गतिशील होता
है। जिसका मूल कारण लोक का परस्पर संवाद है। लोक के अनुभव में आयी हुई चीज आख्यान
बन जाती है ।
मन के
मरुस्थल में, रूखेपन से बेजान वीरानियों को, अनजाने में घर बना लिया है।
कामना है
मेरी, सावन की घटाएँ छाये, लोक बने दीवाली हम सब ख़ुशी मनाएं
पाद टिप्पणी -
1.
भानावत, डॉ. महेंद्र, भारतीय लोक
नाट्य,आर्यावर्त्त संस्कृति संस्थान, दिल्ली
2.
मुहम्मद, उमर मियां का हस्तलिखित अप्रकाशित
चारबैत संग्रह, टोंक
3.
मुहम्मद, उमर मियां का हस्तलिखित अप्रकाशित
चारबैत संग्रह, टोंक
4.
मुहम्मद, उमर मियां का हस्तलिखित अप्रकाशित
चारबैत संग्रह, टोंक
5.
मुहम्मद, उमर मियां का हस्तलिखित अप्रकाशित चारबैत
संग्रह, टोंक
6.
मुहम्मद, उमर मियां का हस्तलिखित अप्रकाशित
चारबैत संग्रह, टोंक
7.
मुहम्मद, उमर मियां का हस्तलिखित अप्रकाशित
चारबैत संग्रह, टोंक
8.
डॉ. सत्येन्द्र, लोक साहित्य विज्ञान,
राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, द्वितीय संशोधित संस्करण 2007, पृष्ठ सं. 369
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसर लोक साहित्य के संरक्षण पर आपका लेख अति सराहनीय है आज लोक साहित्य लोक कलाएं लोक संगीत जो हमारे मानस से स्वतः ही अंकुरित होता है और मनुज मानस को आनंदित कर देता है अलौकिक सुख प्रदान करता है रोते मनुज को आनंद की अनुभूति कराता है वो आज कि पाश्चात्य संस्कृति में कहीं खो गया है उसे वापस उजागर करने की जरूरत है जिससे जन मानस का कल्याण हो सके इस दिशा आप द्वारा किया जा रहा प्रयास अति प्रशंसनीय हैं हम सब को मिलाकर प्रयास करना चाहिए और और विलुप्त होते लोक साहित्य को संरक्षित रखने और उजागर करने में अपना योगदान देना चाहिए आपके द्वारा किए जा रहे प्रयासों के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद
ReplyDeleteआपका ये लेख वर्तमान लोक जीवन की यथार्थ अभिव्यक्ति है। वर्तमान समाज से लोक जीवन की वाचिक या अन्य परम्पराओं का क्षीण होना चिंतनीय विषय है।
ReplyDeleteआपका ये लेख वर्तमान लोक जीवन की यथार्थ अभिव्यक्ति है। वर्तमान समाज से लोक जीवन की वाचिक या अन्य परम्पराओं का क्षीण होना चिंतनीय विषय है।गुरूदेव प्रणाम। आपका लेख लोक जीवन की वाचिक परम्पराओं का क्षीण होना ,जिससे महान व्यक्तित्व वाले लोगों की जीवनी ,जो हमें प्रेरित करती थी अच्छा नागरिक बनने की लिए उसका अभाव हो गया। गुरूदेव अपनी माटी के लिए ये लेख आपका महत्वपूर्ण एवं शानदार प्रयास है ।🙏🏻
ReplyDeleteशुक्रिया सर,लोक साहित्य के आत्मपक्ष को पढ़कर हार्दिक हर्ष व गर्व का अनुभव हुआ, राजस्थान की लोक परम्पराओं,लोक गीतों,लोकनृत्यों, ख्याल शैलियों का संवेदनात्मक अनुशीलन करने का यथार्थरूप स्तुत्य रहा,आज के इस आधुनिकता के दौर में लोकसाहित्य के प्रति उदासीनता स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है, लेकिन लोक जीवन,लोकसाहित्य, लोकसंस्कृति को परिभाषित करने के लिए लोक जीवन की ऐतिहासिक परख होना अति आवश्यक है,इस ऐतिहासिक संवेदात्मक परख को जानकार ही हम लोक जीवन,लोकसाहित्य, लोक संस्कृति का विश्लेषण करते हुए भविष्योन्मुख हो सकते है.।
ReplyDeleteशानदार ब्लॉग लिखा है गुरु जी आपने... आधुनिकता की इस चकाचौंध में हमारी लौकिक संस्कृति तो निसहाय,निर्बल होती जा रही है।अब अपने शेखावाटी के लोकनृत्य गींदड़ और चंग को ही ले लीजिए,पहले हर ढाणी हर गाँव में ये नृत्य प्रचलित था और अब इसका दायरा सिमट कर रह गया है।
ReplyDeleteफिर हम आते हैं लोकगीत पर तो आज की पीढ़ी के कितने युवाओं को लोकगीत आते हैं?
सौ में से संभवत:1 युवा पूरा लोकगीत सुना सकता है।
हमारी पड़दादी,दादी किसी शुभ अवसर पर जो लोकगीत गाती थी ,आज की कितनी महिलाओं और युवतियों को वो लोकगीत आते हैं?
संक्षेप में यही कहूंगा गुरुजी कि लौकिक संस्कृति बहुत रफ्तार से लुप्त होती जा रही है।
अगर हमने इसको बचाने के तेज प्रयास नहीं किये तो लौकिक संस्कृति जल्द ही विलुप्त होने की कगार पर खड़ी है।
आपका शिष्य-हरीश शर्मा🙏🙏
आपका ये लेख लौकिक संस्कृति की पूर्णतया यथार्थ अभिव्यक्ति है।और लौकिक संस्कृति को जीवट करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा🙏
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर लेख है सर वर्तमान समय में लोक जीवन की यथार्थ अभिव्यक्ति हैं।आधुनिकता की चकाचौंध में हमारी लोक संस्कृति कहीं पीछे छूट गयी है। इसके लिए यह लेख एकदम सही ठहरता हैं। लोक संस्कृति को जीवन्त करने के लिए यह एकदम बढिया लेख है सर प्रणाम गुरुवर
ReplyDeleteआदरणीय!सादर वंदे। आपका यह ज्ञानवर्धक आलेख पढ़कर अत्यंत हर्ष हुआ।साथ ही हमारी लोकरंजन संस्कृति की विविधता और उपादेयता को तार्किक रूप से समझने का अवसर भी प्राप्त हुआ। आधुनिकता की आड़ में लोकसंस्कृति, लोकसाहित्य और हमारी समृद्ध वाचिक संपदा को बिसराना दुर्भाग्यपूर्ण है। आपका यह शोध आलेख निश्चित ही लोक संस्कृति के संरक्षण की दिशा में पाठकों के लिए प्रेरणादायक सिद्ध होगा। आशा है समय-समय पर इसी प्रकार आपकी लेखनी सभ्य समाज को मार्गदर्शन प्रदान करती रहेगी। शुभेच्छा
ReplyDeleteगुरुदेव जी आपका यह लेख लोक जीवन व लोक साहित्य का जीवंत दस्तावेज़ हैं !निश्चित रुप से आपका यह आलेख आगामी पीढ़ीयों को लोक साहित्य को संरक्षित करने मे अपनी मुख्य भूमिका निभायेगा !धन्यवाद गुरुदेव जी !
ReplyDeleteगुरुदेव जी आपका यह लेख लोक जीवन व लोक साहित्य का जीवंत दस्तावेज़ हैं !निश्चित रुप से आपका यह आलेख आगामी पीढ़ीयों को लोक साहित्य को संरक्षित करने मे अपनी मुख्य भूमिका निभायेगा !धन्यवाद गुरुदेव जी !
ReplyDeleteगुरुदेव जी आपका यह लेख लोक जीवन व लोक साहित्य का जीवंत दस्तावेज़ हैं !निश्चित रुप से आपका यह आलेख आगामी पीढ़ीयों को लोक साहित्य को संरक्षित करने मे अपनी मुख्य भूमिका निभायेगा !धन्यवाद गुरुदेव जी !
ReplyDeleteप्रिय बंधु सुरेशसिहजी!
ReplyDeleteवाचिक परम्परा की क्षीण हो रही विधा पर विशद शोध परक लेख आपकी बौद्धिक विलक्षणता को दर्शाता है।
बंधु आपने विविध वाचिक विधाओ के हर पहलू को छूकर उसके महत्व पर रोशनी डाल कर इन विधाओ को संरक्षित रखने की अभिभावकीय तडफ के साथ की गई आपकी अपील प्रबुद्ध जनो तक पहुचेगी और क्षीण हो रही वाचिक परम्पराओं को बचाने के ठोस उपाय किये जाएंगे ऐसी।
आप जैसे वाणी पुत्रों को सादर नमन।
डाॅ.जयन्तीलाल खण्डेलवाल, जयपुर
सहायक प्रोफेसर, इतिहास।
लोक और विज्ञान का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है. लोक साहित्य में अंकित भाव सरणियाँ उल्लास से युक्त है. पीपल पूजा, तुलसी पूजन आदि के अपने निहितार्थ थे परन्तु आज हम भौतिकता की अंधी दौड़ का हिस्सा बन उनसे दूर होते जा रहे हैं
ReplyDeleteबहुत ही सटीक और ज्ञानवर्धक। आपके लेख में धार्मिक ज्ञान का दर्शन मिलता है,जो हमारी वर्तमान पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी के लिए प्रासंगिक है।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteगुरु जी प्रणाम,
ReplyDeleteआपका ब्लॉग पढ़कर बहुत अच्छा लगा। यदि संबंधित छायाचित्र हो तो वो भी संकलित करें... चार चाँद लग जाएंगे।
धन्यवाद
शोधपूर्ण विशद अध्ययन के उपरांत लिखा ब्लॉग। सुंदर।
ReplyDelete