Friday, December 20, 2024

 



कृष्णगढ (किशनगढ़) राजघराने के महाराजा नागरीदास (सावंतसिंह) काव्य कला में निपुण थे। वे कवि के साथ -साथ संगीतज्ञ, चित्रकार, सफल शासक तथा प्रकाण्ड पण्डित भी थे। उनका साहित्य भक्ति प्रधान है परन्तु समसामयिक विषयों के प्रतिपादन हेतु उन्होंने नीति एवं राजनीति सम्बन्धी पदों की रचना भी की है। भक्ति के मूल में राधा कृष्ण की युगल उपासना है। “नागरीदास पुष्टिमार्ग को प्रमुखत: मान्य समझते थे। पुष्टिमार्ग गोस्वामी श्री रणछोड़लाल जी से उन्होंने दीक्षा ली थी।”1 इससे स्पष्ट होता है कि निम्बार्क संप्रदाय से उनका निकटस्थ सम्बन्ध था। जीवन के उतरार्द्ध में इन्होंने सांसारिक भौतिकता का त्याग कर अनंत अलौकिक रस रत्नाकर श्री कृष्ण व राधा की युगल उपासना के लीलागान में ही अपना जीवन लगा दिया।   

संत नागरीदास के ग्रंथो की संख्या को लेकर आलोचकों में मतैक्य नहीं है। उनके  समस्त ग्रंथो का संग्रह ‘नागर समुच्चय’ के नाम से विक्रम संवत 1955 में ‘ज्ञानसागर मंत्रालय’ मुंबई से प्रकाशित हुआ है। जिसमें नागरीदास प्रणीत ग्रंथो की संख्या 69 मानी गई है। जबकि कृष्णगढ के दरबारी जयलाल तथा बाबू राधाकृष्णदास ने नागरीदास प्रणीत ग्रंथो की संख्या 75 मानी है, जबकि कुछ आलोचक इनके ग्रंथों की संख्या 73 मानते हैं।   

आलोचकों ने इनका रचनाकाल संवत 1780 से 1819 तक निर्धारित किया है। ‘मनोरथ मंजरी’ इनका पहला ग्रन्थ माना जाता है, जिसका रचनाकाल संवत 1780 है। संत नागरीदास के साहित्य पर वृन्द, रसखान तथा घनानन्द आदि कवियों का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। नागरीदास ने भी अपने समकालिक कवियों की तरह ही राधा-कृष्ण की छवि, युगल उपासना, झांकियां, प्राकृतिक सौन्दर्य आदि का चित्रण किया है। इनका काव्य अन्य कृष्ण भक्त कवियों से भले ही विषय वस्तु की दृष्टि से साम्य रखता हो परन्तु प्रस्तुतीकरण एवं शैलीगत भिन्नता, नवीनता और विशिष्टता लिये हुए है। क्योंकि इनके काव्य में संगीतात्मकता व चित्रात्मकता का अत्यंत मनोहर और सुन्दर समावेश है, जो सहृदय के समक्ष विशिष्ट भाव व्यंजना प्रकट करते हैं।

संत नागरीदास प्रणीत ग्रन्थों में विषय वैविध्य है। अत: विषय वस्तु के आधार पर इनके सम्पूर्ण काव्य संसार को किसी एक ही वर्ग मे नहीं रखा जा सकता। ‘नागर समुच्चय’ में इनके सम्पूर्ण ग्रंथों को (अ) वैराग्य सागर, (ब) शृंगार सागर तथा (स) पद सागर; वर्गीकरण ग्रंथों में प्रतिपादित विषयवस्तु को आधार मानकर किया प्रतीत होता है। ‘वैराग्य सागर’ में नागरीदास के 15 ग्रंथों को सम्मिलित किया है। इन सभी ग्रंथों का प्रतिपाद्य विषय भक्ति-भावना से सम्बन्धित है।  दूसरे वर्ग ‘शृंगार सागर’ में इनके 51 ग्रंथों का विवरण है। इस श्रेणी में शृंगारिक पदों या लीलाओं को स्थान दिया गया है। राधा-कृष्ण के युगल स्वरूप, प्राकृतिक सौन्दर्य तथा आकर्षण के पद संगृहीत हैं, जिनमें राधा-कृष्ण की भक्ति, उनकी युगल उपासना को आलोकित करने का प्रयास किया गया है। ‘पद सागर’ में केवल तीन ग्रंथ संगृहीत हैं।  

सुविधा की दृष्टि से नागरीदास के साहित्य को प्रमुखता से तीन भागों में बांटा जा सकता है - (अ) भक्ति परक साहित्य, (ब) नीति परक साहित्य (स) राजनीतिपरक साहित्य

 (अ) भक्ति परक साहित्य :-

संत नागरीदास ने सगुण भक्ति की मधुर व सौन्दर्यात्मक छवि प्रकट कर सामान्य लोगों के विरान हृदयों में भक्ति का बीज डाला। पुष्टिमार्ग में दीक्षित होने के कारण इनके भक्ति ग्रंथों में युगल लीला का स्थान सर्वोपरि है।

 वि.सं.1802 में विरचित ‘भक्ति मग दीपिका’ में भक्ति भावना के सैद्धान्तिक पक्ष के साथ-साथ संसार की असारता, मोह-माया के परित्याग, आसक्ति एवं पारिवारिक कलह आदि को अभिव्यक्ति किया है। मानव संवेदना, अनन्य भाव की शरणागति, गुरु का महत्व तथा नवधा भक्ति पर बल दिया है। उन्होंने अपने ग्रन्थ ‘बन जन प्रशंसा’ में गुरु के महत्व को स्पष्ट करते हुए कहा है-

“धन धन श्री गुरुदेव गुसांई।

वृदावन रस मग दरसायो, ऊबट बाट छुटांई।”2

          भक्तियुगीन समग्र साहित्य में गुरु के महत्त्व को रेखांकित किया गया है। इस काल के कवियों के अनुसार भक्त को ईश्वर की महत्ता तथा उसकी ज्ञान चेतना के बारे में बताने वाला गुरु ही है। गुरु ही सन्मार्ग का प्रशस्तकर्ता है, उचित- अनुचित का भेद बताने वाला गुरु ही है। इसलिए इस काल के साहित्य में गुरु को विशेष महत्त्व दिया है।  कबीर ने तो गुरु को ईश्वर से भी बड़ा बताया है। नागरीदास ने प्रेम भक्ति को स्पष्ट करते हुए नवधा भक्ति को महत्व दिया गया है।

“कलि के जनम विगारत लोग

 मूरख महा दोउ वे खोवत, हरि की भक्ति, विषय सुख भोग

कलइ कलेस करत दिन चितवत, विविधि विपति आस्वादी

 एसै ही सब आयु बितावत, टेब तजत नहिं बादी

दासी, दास, कुटुंब, मित्र, सब याही दुख रस पगे

 'नागर' नाहिं कोउ समुझावत, सब स्वारथ के सगे।।”3

रचनाकार ने उक्त दोहे के माध्यम से स्पष्ट रूप से भक्ति की महत्ता को प्रकट किया है और कहा है कि ईश्वर प्राप्ति का मार्ग श्रेष्ठ है, भक्ति मार्ग का अनुसरण कर साधक (भक्त) अपने आराध्य (ईश्वर) को प्राप्त कर सकता है। ध्यातव्य है कि मनुष्य के जीवन का अंतिम ध्येय मोक्ष की प्राप्ति है, जो ईश प्राप्ति से ही संभव है। इसलिए ईश्वर की भक्ति का एक प्रकार श्रव्य भी माना गया है।  

देहदशा’ नामक ग्रन्थ में भी गुरु के महत्त्व को रेखांकित किया है। समीक्षकों का मानना है कि संत नागरीदास की माता के देहावसान के कारण उनके मन में संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न हो गया था। रचनाकार के अनुसार वैराग्य के कारण भी भक्ति भावना का उदय होता है। इसलिए आलोच्य ग्रन्थ में मनुष्य की बीजांकुर से जन्मावस्था तक की देहदशा को प्रकट किया है। कवि का मानना है कि बच्चा संसार की हवा लगते ही भगवान से दूर तथा मोह-माया के निकट होता जाता है। बाल्यावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था आदि देहावस्थाओं से गुजरते हुए मनुष्य का विवेक नष्ट हो जाता है। अंतिम समय में नाना प्रकार के कष्टों, विकारों, आधियों-व्याधियों से घिर जाता है, तब उसे भगवान याद आते हैं। इसलिए वे साधक को समझाते हैं कि मनुष्य योनि करोड़ों तपों का फल  है। अतः मनुष्य को गर्भ से ही भगवत भक्ति में लग जाना चाहिए  -

“कलि में ते क्यों भक्त कहावै

वृद्ध होय जे विमुख संग फिरि देस-देस उठि धावै

होत निरादर दुख नहिं मानत, नींव देत अति औड़ी

चेतत नहीं, बनत सिर ऊपर यह घरियाल काल की डौंड़ी

बिन जमुना परसै। क्यों उतरत स्वेत कचन बिच धूर

'नागर' स्याम बैठि नहिं सुमिरत, बज की जीवन मूर॥”4

 

कृष्ण की बाल लीला का वर्णन   

संत नागरीदास ने अपने ‘छूटक पदों में कृष्ण के बाल स्वरूप का वर्णन किया है। उनकी रूचि बाल लीला वर्णन में अधिक रमी है। इसमें वैराग्य व भक्ति सम्बंधी विशिष्ट पद हैं। ‘छूटक पदों में ब्रज वर्णन, वृन्दावन प्रेम, कलिकाल वर्णन, कृष्ण भक्ति, राधा-कृष्ण के युगल प्रेम को प्रकट किया है। छुटक पदों में कवि ने पूर्ववर्ती कवियों के भावों का ही अनुसरण किया है। कवि ब्रज, वृन्दावन व कृष्ण प्रेम को प्रकट करते हुए कहते हैं-

                    “हमतो बृदावन रस अटके

 जब लगि इहि रस अटके नाहीं, तब लगि बहु विधि भटके

भए मगन सुख सिंधु माझ ह्या, सब तजि कै जग खटके

 अब बिलास रस रासहि निरखत 'नागरि' नागर नट के ।।” 5

  संत नागरीदास रचित ‘ब्रजलीला’ का आधार श्रीमद्भागवत गीता का दशम  स्कन्ध है। आलोच्य कवि नागरीदास पर सूरदास की रचनाओं का गहरा प्रभाव था, यह प्रभाव इस कृति पर भी स्पष्ट दृष्टिगत होता है। इसमें कृष्ण वन्दना, कृष्ण का पालना झूलन, दावानल पान, माखन चोरी, गोचारण लीला, वत्स हरण, चीरहरण, रासा-रम्भ, रास-रमन, गोपी-कृष्ण प्रेम, गोपियों की विनती पर कृष्ण का ब्रज आगमन, रासलीला, जल-विहार आदि प्रसंगों का मनोहर वर्णन हुआ है। सूरदास की तरह ही कवि नागरीदास कृष्ण के बाल स्वरूप तथा राधा की मधुर व रमणीय छवि को हृदय से बसाना चाहते हैं। राधा कृष्ण के युगल स्वरूप को आत्मसात करते हुए युगल स्वरूप की आराधना इस ग्रन्थ का मूल प्रतिपाद्य है-

गिरि गिरि परत विमल नग भूपन, रही जू तन सुधि नाहीं

रसानन्द सागर अति बाढ्यो, मगन भए तिहि माहीं

मंडल रास बीच दोउ उरझे, गर बाहीं पिय प्यारी

'नागरी दास' बसो हिय राधा अरु भी कुजविहारी ॥” 6

रसखान से प्रभावित होकर संत नागरीदास ‘ब्रज लीला’ ग्रन्थ की रचना की।  जिस प्रकार रसखान ने ‘मानुस हो तो वही रसखानि’ कहकर हर परिस्थिति में ब्रज में ही रहना चाहते हैं और ब्रजभूमि को स्वर्ग से भी श्रेष्ठ सिद्ध करते हैं ठीक उसी प्रकार नागरीदास भी इस ग्रन्थ में बैकुण्ठ की तुलना में ब्रज को विशिष्ट समझते हैं।  

“ब्रज को स्वाद बैकुंठ मै नाहीं

हरिगुन कथा भई जब मीठी, ब्रज रस मिल्यो तबै ता माहीं

 ब्रज रस बिन कहा रसिक गावते, ब्रज बिन रस मरि जातो

 ब्रज महिमा कौ वेई जानें, जिनकौ ब्रज सौं नातो

भुवन चनुर्दस माझ धन्य ब्रज, धन धन ये ब्रजवासी

 'नागरीदास' धन्य है सोई, जो ब्रज-रैन उपासी ॥” 7

इस प्रकार भक्तवर कवि नागरीदास के भक्ति साहित्य में ब्रज, वृन्दावन तथा राधा- कृष्ण के प्रति दृढ आस्था दिखाई देती है। कवि राधा-कृष्ण से सम्बन्धित प्रत्येक वस्तु, स्थान आदि से घनिष्ठ संबंध रखना चाहता है। ब्रजसार, विधि प्रकाश, ब्रज मंडल महिमा, उत्सव माला, वैराग्य वटी, रैन रूपा रस, रास रसलता आदि अन्य भक्ति परक ग्रंथ हैं जिनमें राधा-कृष्ण की रमणीय छवि का चित्रण नागरीदास ने बड़ी ही मार्मिकता से किया है। वैराग्य रूप ने नागरीदास को भक्ति की और उन्मुक्त किया। वैराग्य ही मनुष्य को शक्ति का अहसास कराता है तथा नागरीदास की भक्ति इसी प्रकार की थी। शक्ति की इसी सत्ता के समक्ष वह आत्मसमपर्ण करता है, इसी से भक्ति का उदय होता है। इन सबके अतिरिक्त उत्सव, सांझ के पद, पर्व, आदि को भी काव्य का आधार बनाया है। होरी के कवित्त, बसंत वर्णन, फाग विहार, निकुज विलास, नखशिख, शिखनख, चर्चेरिया, रेखता, बैन विलास गुण रस प्रकाश आदि अन्य ग्रंथों की रचना नागरीदास ने शृंगार व भक्ति के अन्तर्गत ही की है।

नीति परक साहित्य  

वैसे तो संत नागरीदास के सम्पूर्ण साहित्य की मूल चेतना की आधार भूमि भक्ति ही है। परन्तु रचनाकार अपने युग का चारण होता है। उसका साहित्य एकांगी नहीं हो सकता। जैसा की पूर्व में लिखा जा चुका है कि संत नागरीदास का संबंध किशनगढ़ राजघराने से है। इसलिए उनके साहित्य में नीतिगत पद होना स्वाभाविक है। अपने समकालीन यथार्थ को अभिव्यक्त करने के लिए उन्होंने नीतिगत साहित्य लेखन भी किया है। समकालीन सामाजिक चित्रण के साथ ही कवि ने प्रकृति नीति-नियोजन, कलिकाल की बुराई, सांसारिक प्रपंच, सामाजिक वर्ण व्यवस्था, श्रद्धाभाव, छल-कपट, न्याय-अन्याय आदि के यथार्थ को सशक्त अभिव्यक्ति दी है। सच्चे अर्थ में प्रजा सेवक होने के नाते और उसका उद्धार करने के हेतु वे समाज को उसकी त्रुटियों से अवगत करवाना अपना परम धर्म समझते थे। “महाराज नागरीदास ने अपनी उद्धार व पर दुखकातर तथा संवेदनशील दृष्टिकोण से समाज की वर्ण व्यवस्था व धार्मिक आडम्बरों को आड़े हाथों लिया। उन्होंने पाखण्ड, अत्याचार, दम्भ, मिथ्या आचार-विचार का विरोध प्रदर्शन किया। इसी अवधारणा को लेकर कवि नागरीदास के नीतिपरक भावों तुष्टि मिली है। कवि ‘वृन्द’ का साहचर्य नागरीदास को नीति नियोजन में सुदृढ़ता प्रदान करता है।”8 नागरीदास के ग्रंथ ‘छूटक पद’ में कलिकाल की बुराई प्रकट की है –

“आयो आयो रे कलि काल आयो ।

घरमहि मार उठावत आतुर, अधरम राज सवायो ।

अमर मानि छन- भंगुर तन, नर पाप करत न सकायो ।

छल करि पुत्र पिता कौ मारत, पिता पुत्र हित कै सुख पायो ।।”9

कवि नागरीदास अस्थिर मन को विकृति मानते हुए चंचल मन की स्थिरता को ही सांसारिक बन्धनों से मुक्ति मानते थे। अस्थिरावस्था में मन ईश्वरोपासना में बाधा उत्पन्न करता है तथा मनुष्य के लिए वस्तु जगत ही सर्वोपरि हो जाता है। अतः मन को सभी समस्याओं के समाधान में सहायक माना जा सकता है। कवि नागरीदास के ग्रंथ ‘छूटक पद’ में इसका उदाहरण इस प्रकार है-

   “मन ही लगाय थिर किजै, हरिभक्त मांझ, नागर चरन चित जब थिर है गहै।।”

भक्तवर नागरीदास ने हरि भक्ति को ही कलियुग से पार पाने का सबसे बड़ा सम्बल बताया है। कलियुग का सामान्य वर्णन, जिसमें वर्ण व्यवस्था, स्त्रियों की दशा, ब्राह्मणों के प्रति श्रद्धा, आपसी धार्मिक वैमनष्य आदि का विशिष्ट वर्णन इस ग्रन्थ में हुआ है। नागरीदास का कलिकाल वर्णन नीतिपरक साहित्य का उत्कृष्ठ उदाहरण है। वर्गों को व्यवस्था में एक-दूसरे की बुराई के अलावा दूसरा कोई काम नहीं था, जो आपसी वैमनस्य की राह पर बढ़ता ही गया। रचनाकार ने कलियुग के स्वरूप को प्रस्तुत करते हुआ लिखा है कि

“देखो सच जीवन की ख्वारी

महा घोर कलिजुग की भामिनि कलह भई सचहीं कै प्यारी

लगी रहै उर अन्तर माहीं, भावत नाहिं करी छिन न्यारी

याही कौं सर्वस करि जानै, सकल सुखन की बात बिगारी

यह जारन को नित्त लरावै, फिरि राखें ज्यों की त्यौं यारी

 'नागरिया' केवल भक्तन इहिं दारी दूर निकारी ॥”10

निम्बार्क सम्प्रदाय व वल्लभ सम्प्रदाय में नीति, शास्त्र, धर्म, चिकित्सा आदि के बोध का आरम्भ से ही महत्वपूर्ण स्थान रहा है। स्वयं नागरीदास भी शास्त्रों के जनकार थे। उन्होंने वस्तु की उपयोगिता के सिद्धान्त के सम्बन्ध में विचार प्रस्तुत किया तथा सांसारिक जीवन किसी वस्तु का मूल्य उसकी उपयोगिता के आधार पर ही निर्धारित किया-

“नीको हूँ फीको लगे, जा जाके नहिं काज

फल आहारी जीव के, कौन काम को नाज”

भक्तवर नागरीदास जीवनारम्भ से ही सहृदयता एवं संवेदनशीलता तथा उद्धारता  का परिचय देते रहे हैं। सामान्य जन के प्रति इनका हृदय सदैव मंगल की कामना करता रहा। समाज में व्याप्त विसंगतियों को काव्य के माध्यम से निराकरण करने का प्रयास करते रहे हैं। माया, चोरी-डकैती, जेब कतरों, बाजार हडताल, जुआँ खेलना, चोपड खेलना आदि विसंगतियों का इन्होंने खूब वर्णन किया है। कवि नागरीदास इन सांसारिक बन्धनों से मुक्ति पाकर सामान्य जन हृदय में भगवत भक्ति का प्रसार करना चाहते थे। सामाजिक बुराइयों में स्त्री का शोषण, सामन्तों की कूटनीति, अत्याचार आदि को भी इन्होंने काव्य में प्रस्तुत कर जनता को अवगत कराया है। मध्यकालीन उतरार्द्ध में स्त्री को भोग्य मात्र तथा मनोरंजन का साधन समझा जाने लगा था। पुरुष प्रधान समाज स्त्री की इस तात्कालीन स्थिति को नजर अंदाज करता रहा। अतः वह माया-मोह रूपी जाल में फंसता गया। मुगल काल में भटियारी स्त्रियाँ पुरूषों का मनोरजंन करने हेतु रखी जाती थी। पुरूष मदहोश हो उनके पीछे परिवार, माया, जगत यहाँ तक की स्वयं को भी खो देता था।

 इस प्रकार महाराज नागरीदास ने रीतिकालीन कवियों की भांति काव्य को सामाजिक उद्धार का माध्यम बनाया। सामाजिक यथार्थ को अभिव्यक्ति प्रदान करने में वे  समकालीन परिवेश में भी पीछे नहीं हटे तथा निरन्तर काव्य रचना करते रहे। गृह-कलह के कारण राज्य त्यागकर वृन्दावन जाना तथा भक्ति में रत होना, नागरीदास के सहृदय होने का प्रमाण है। इसी कारण कलियुग का सही चित्रण इनके काव्य में हो पाया है।  

राजनीति परक साहित्य  

नागरीदास पर रीतिकालीन प्रवृत्तियों का अत्यधिक प्रभाव था। वे कृष्णगढ़ के राजकुमार थे। नागरीदास का मुगल दरबार से सीधा एवं निकट सम्पर्क था। कृष्णगढ़ नरेश  मुगल दरबार की सेवा में आरम्भ से ही तत्पर थे। दिल्ली दरबार में रहकर इनकों मुगलों की सेवार्थ उपस्थित रहना पड़ता था। नागरीदास के पिता महाराज राजसिंह की वृद्धावस्था से ही दिल्ली मुगल बादशाहों के सानिध्य में रहने लगे थे। यहाँ रहकर नागरीदास ने मुगलों की नीतियों, व्यवहार, व्यवस्था, शासन प्रणाली, सामाजिक स्थिति आदि को भलीभांति जान लिया था। मुगलों का साथ नागरीदास को अत्यधिक प्रभावित करता है। इनका काव्य भी मुगल शासकों की नीतियों से बच नहीं पाया है। दोहा, कवित, पद आदि में दिल्ली दरबार का व्यावहारिक चित्र प्रस्तुत किया है। राजनीतिक घटनाओं, तत्कालीन शासकों की नीति, व्यवहार, उनके द्वारा किये गये कार्यों, लगान, कर, शासकों की अशक्तता, बख्शिसों आदि को काव्य में यथोचित स्थान दिया है। वे कृष्णगढ़ तथा मुगल दरबार की वैभव विलास की सम्पूर्ण सामग्रियों से परिचित थे। भावुक हृदय होने के कारण इस वैभव विलास को साहित्य में स्थान दिया। उन्होंने सामंतों के वैभव-विलास का सटीक वर्णन किया है। यहाँ ईश्वर के सानिध्य सुख की प्राप्ति तथा भक्ति के महत्व को प्रतिष्ठित करते हुए वस्तुजगत को विलासिता में उदय अस्त होते हुए बताया है ।

“सुरपति तै वैभव अधिक, उदय अस्त लौं राज

यह प्रभुताई स्वप्न सुख, भक्ति बिना किहि काज ॥”

          उक्त दोहे के माध्यम से राज्य के वैभव को व्यर्थ बताकर हरि भक्ति को महत्वपूर्ण माना है। कवि के अनुसार भक्ति के बिना तप, अष्ट सिद्धि, पांडित्य, चातुर्य आदि को निरर्थक बताया है। एक अन्य ग्रंथ में कवि ने मुगल बादशाहों के कृतित्व का सहज वर्णन किया है। बादशाह मोहम्मद बिन तुगलक के द्वारा चलाये गये चमड़े के सिक्कों की घटना इनके हृदय में जम गई जिसका उल्लेख भी  किया है –

“ए अभिमानी मुरलिया, करी सुहागनि स्याम ।

अरी चलाये सबलि पै, भले चाम के दाम”

          मुगल बादशाह अशक्त होते जा रहे थे। सामान्य जनता को उनकी अनेक शोषणकारी नीतियों का सामना करना पडा। ‘उत्सव माला’ ग्रन्थ में नागरीदास ने ‘वृषभान’ के यहाँ राधा के जन्मोत्सव का मनोहर चित्रण किया है। उत्सव में बधाई के पद के साथ ही कुछ राजसी ठाठ-भाट की वस्तुओं का भी उल्लेख हुआ है। कवि के इस प्रकार के वर्णन से उन पर मुगल दरबार की रीति परम्परा का प्रभाव स्पष्ट नजर आता है –

अरे लोगौं आज इहाँ, सादी-सी क्या है।

गोपियाँ हुँ गोप दान, देते ल्या ल्या है ।

स्यादी ब्रजराज जू कैं, रोसनी लगाई ।

फिररि रिररि ररि ररि, छुटती हवाई ।

           गाय बखसी, बैल बखसे और बखसे घोड़े ।

हुबे निहाल अमल दार, टूटे अरू षोड़े ।

           अत: निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि इन्होंने सम्पूर्ण काव्य रचनाओं में राधा-कृष्ण की उपासना, युगल स्वरूप की झांकियां, ईश्वर प्रेम आदि पर विशेष बल दिया है। सामयिक प्रभाव के कारण अन्य  विषयों का भी प्रतिपादन हुआ है।

 

पाद टिप्पणियाँ

1.       भक्तवर नागरीदास, डॉ. फैयाज़ अली खां, पृ.सं. 128

2.       बन जन प्रशंसा- नागरीदास, पद संख्या 2

3.       छूटक पद – नागरीदास- पद संख्या 37

4.       छूटक पद – नागरीदास- पद संख्या 38

5.       छूटक पद – नागरीदास- पद संख्या 118

6.       ब्रज लीला – नागरीदास , पद संख्या 18

7.       ब्रज लीला – नागरीदास , पद संख्या 146

8.       भक्तवर नागरीदास,  डॉ. फैयाज़ अली पृ.सं 364

9.       छूटक पद- नागरीदास, पद संख्या 7

10. छूटक पद –नागरीदास – पद संख्या 8

 

1 comment:

  1. 27 दिसंबर, 2024 को संत नागरीदास जी की जयंती है। आलोच्य लेख के माध्यम से नागरीदास जी को कालजयी बनाने का अल्प प्रयास है।

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