Friday, April 3, 2020

अन्धा -युग नाटक में युगबोध


अन्धा -युग नाटक में युगबोध

        काव्य नाटक ‘अंधा युग’ में डॉ. धर्मवीर भारती ने युद्ध के परिपेक्ष्य में आधुनिक जीवन की विभीषिका का चित्रण किया है। इस नाटक में एक ओर महाभारत के युद्ध की विभीषिका का विशद्ध वर्णन है तो दूसरी ओर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उपजी अराजकता को साक्षात् अभिव्यक्ति दी है। रचनाकार का मानना है कि स्वार्थ और मोहासक्ति के अंधेपन से उत्पन्न युद्धों के उपरान्त एक महान विघटनकारी संस्कृति का निर्माण होता है, जिसमे कुंठा, निराशा, पराजय, अनास्था, प्रतिशोध, आत्मघात जैसी अंधी प्रवृत्तियों का उद्घाटन होता है। अंधायुगकी कथा महाभारत युद्ध के अट्ठारहवें दिन की रात्रि तथा कृष्ण के स्वर्गारोहण की कथा है। इसमें धृतराष्ट्र, युयुत्सु, अश्वत्थामा, गांधारी, व्याध आदि पात्र प्रतीकात्मक हैं, जो अंधायुग की वेदना को स्पष्ट करते है
रचनाकार का मानना है कि जब जब युद्ध होता है तो उसमें मर्यादाओं का हनन होता है महाभारत में  भी युद्ध से पूर्व कृष्ण ने धृतराष्ट्र को समझाया था कि मर्यादा मत तोड़ो। टूटी हुई मर्यादाएं सारे कौरव वंश को नष्ट कर देंगी। परंतु धृतराष्ट्र न केवल आँखों से अंधा था अपितु मोहासक्ति, स्वार्थ तथा वैयक्तिकता के अंधेपन के कारण अपनी वैयक्तिक सीमाओं से बाहर नहीं निकल पाये और महाभारत जैसे युद्ध का बीजारोपण कर दिया। धृतराष्ट्र के इस अंधेपन ने संस्कृति को ह्रासोन्मुख बना दिया और पूरे युग को महाविनाश के कगार पर खड़ा कर दिया और मानवीय जीवन को ध्वस्त कर दिया। इस युद्ध में अनेक मर्यादाएं, आस्थाएँ टूट गई। भारती का मानना है कि जब-जब युद्ध होता है तब-तब मानवता शर्मसार होती है और उसे अनेक भीषण स्थितियों का सामना करना पड़ता है । यह सच  भी है कि युद्ध में जो भी सत्यं, शिवम् और सुंदरम होता है वह समूल नष्ट हो जाता है 
अंधायुग नाटक में भारती ने इसे अभिव्यक्त करते हुए कहा है "टुकड़े-टुकड़े हो बिखर चुकी मर्यादा, उसको दोनों ही पक्षों ने तोडा है। यह इस बात का साफ़ संकेत है कि युद्ध में विजयश्री का वरण करने के लिए सदैव मर्यादाओं का हनन होता आया है।
काव्य-नाटक
            काव्य-नाटक अंग्रेजी के ‘‘Poetic Drama’’ का  हिंदी रूप है । काव्य-नाटक काव्य और नाटक कि मिली-जुली विधा है। इसमें दोनों के तत्व समाहित होते हैं। नाटक को पंचम वेद कहा जाता है क्योंकि इसमें नृत्य, संगीत, गीत और काव्य सबका समावेश होता है। यद्यपि प्राचीनकाल में नाटक काव्यमय ही थे परंतु बाद में इनमें गद्य का समावेश हो गया। आलोचक काव्य नाटक शब्द को लेकर एक मत नहीं है। आलोचकों ने इसे गीतिनाट्य, दृश्य नाट्य, गीतिरूपक, काव्य रूपक कहा है। डॉ.बच्चन सिंह के अनुसार “गीति नाट्य मुख्यतः भावनामय होते हैं; उनमें बाह्य संघर्षों की अपेक्षा अन्तः संघर्षों की प्रधानता होती है, लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जीवन की कठोर वास्तविकताओं से उनका कोई संबंध नहीं जुड़ पाता।" 1  बच्चन सिंह के उक्त के उक्त कथन के आधार पर अंधायुग नाटक की समीक्षा करें तो ज्ञात होता है कि आलोच्य नाटक इसमें पूरी तरह खरा उतरता है । क्योंकि धृतराष्ट्र, गांधारी, युयुत्सु, अश्वत्थामा, कृष्ण सभी में आंतरिक संघर्ष ही अधिक दिखाई देते हैं।  हिंदी साहित्य कोश के अनुसार  काव्य नाटक के प्रमुख तत्व निम्नांकित हैं –प्रस्तावना, कथा, संवाद, गीत, नर्तन। आलोचकों ने जय शंकर प्रसाद रचित ‘करुणालय’ को हिंदी का प्रथम गीति नाट्य मन है। इस प्रकार समीक्षकों ने प्रसाद को हिंदी गीति नाट्यों का प्रथम पुरस्कर्ता होने का गौरव दिया हैं। हिंदी के प्रमुख गीति नाट्यों में मैथिलीशरण गुप्त रचित ‘अनघ’ सियारामशरणगुप्त रचित ‘उन्मुक्त’ तथा ‘स्वर्ण विहान’,भगवतीचरण वर्मा  रचित ‘तारा’,उदय शंकर भट्ट रचित ‘विश्वामित्र’,’मत्स्यगंधा’,और ‘राधा’,पन्त रचित ‘रजत शिखर’,’शिल्पी’,और ‘सौवर्ण’, गिरिजाकुमार माथुर रचित ‘कल्पान्तर’,’दंगा’, ‘राम’,सिद्धनाथ कुमार सिंह रचित ‘सृष्टि की सांझ’,’लौह देवता’,’संघर्ष’,’विकलांगों का देश’,और ‘बादलों का शाप’, धर्मवीर भारती रचित ‘अंधा-युग’,अज्ञेय रचित ‘उत्तर प्रियदर्शी’,दुष्यंत कुमार रचित एक ‘कंठ विषपायी’ हिंदी के प्रमुख गीति नाट्य माने जाते हैं।
            धर्मवीर भारती ने आलोच्य काव्य नाटक अंधायुग की भूमिका में इसे अलग अलग नामों से अभिहित किया है। नाटक की भूमिका के आरम्भ में ही उन्होंने इसे दृश्य काव्य कहा है " इस दृश्य काव्य में जिन समस्याओं को उठाया गया है, उनके सफल निर्वाह के लिए महाभारत के उत्तरार्द्ध की घटनाओं का आश्रय ग्रहण किया है। एक स्थान पर वे इसे काव्य कहते हैं "मूलतः यह काव्य रंगमंच को दृष्टि में रख कर लिया गया था।" इसी प्रकार वे इसे नाटक कहते हुए भूमिका में लिखते हैं "कुछ स्थानों को अपवाद स्वरुप छोड़ दें तो प्रहरियों का सारा वार्तालाप एक निश्चित लय में चलता है जो नाटक के आरम्भ से अंत तक लगभग एक-सी रहती है। इस प्रकार स्वयं भारती इसे  अनेक नामों से अभिहित किया है।
            युगबोध के सामान्य अर्थ के साथ ही इसका स्वरूप आभासित होता है। युगबोध के निर्माण की प्रक्रिया में ही इसका स्वरूप निहित है। युगबोध में युग के बारे में ज्ञान, पहचान करना समाहित है। युगीन परिवेश, विचारधारा, परिस्थितियाँ, मान्यताएं, परिवर्तन आदि एक युग का निर्माण करते हैं। और इन युगीन परिस्थितियों या स्वरूप में सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, स्थितियों को सम्मिलित किया जाता है। सामाजिक परिस्थितियों में उसकी परम्परा वर्तमान स्थिति मान्यताएं, पीढ़ियों के मध्य अंतर्द्वंद्व, युवा मानसिकता बुजर्गों की स्थिति, स्त्री विषयक दृष्टिकोण आदि को लिया जा सकता है। राजनीति का वर्चस्व और भ्रष्ट प्रशासन तंत्र या नौकरशाही की कार्यशैली को देखा जा सकता है। सता–विपक्ष  दोनों की कार्य शैली भाई भतीजावाद, भ्रष्टाचार तो जैसे आज राजनीति के मूल तत्त्व से प्रतीत होते हैं। वर्तमान समय में विघटित होते मानवीय मूल्य, व्यक्ति की स्वार्थपरकता, जातिवादी अवधारणा इंसान की लुप्त होती इंसानियत वर्ग-विभेद की स्थिति दिखाई पड़ती है। युगबोध में सामयिक संवेदना और युगीन परिवेश की प्रमुख भूमिका रहती है। युगबोध के स्वर को अपने साहित्य में कोई भी साहित्यकार नकार नहीं सकता है। धर्मवीर भारती ने भी अपने काव्य नाटक में युगबोध को रूपायित किया है ।
            आलोच्य  काव्य नाटक के रचनाकार धर्मवीर भारती ने महाभारत कालीन स्थितियों का आधुनिक युग की स्थितियों से तारतम्य बैठते हुए युगबोध को इंगित करते हुए बताया है कि महाभारत युगीन अमर्यादा, अनैतिकता, रक्तपात, निराशा, कुंठा, संत्राश आज के युग में भी वैसा ही है जैसा उस युग में था। आज भी युयुत्सु जैसे वीर योद्धा जो सत्य का साथ देते हैं, उन्हें आत्मघात करना पड़ता है।  युधिष्ठिर जैसे लोग सत्य का चोला पहनकर असत्य बोलते हैं, धृतराष्ट्र जैसे लोग आज भी सत्ता से चिपके रहना चाहते हैं, भीम जैसे लोग मद में डूबे हुए हैं, आम जनता युद्ध नहीं चाहती फिर भी शासक अपने निजी स्वार्थों के कारण आमजन को युद्ध की विभीषिका में धकेल देते हैं । क्या आज का युग महाभारत युग जैसा नहीं है ?
आज पूरी दुनियां हथियारों के ढेर पर बैठी हुई है। कोई देश हथियार बनाकर खुश है तो कोई  हथियार खरीदकर। मानवता की कोई बात नहीं करता है । ऐसा प्रतीत होता है कि सभी अपने अपने निजी स्वार्थों के कारण समष्टि भाव को छोड़कर वैयक्तिक सीमाओं में बंध गए हैं।  जिस प्रकार धृतराष्ट्र ने अपने निजी हितों के कारण पूरे कौरव कुल को युद्ध की विभीषिका में धकेल दिया उसी प्रकार आज के राजनेता भी अपने तुच्छ स्वार्थों के कारन भारत की अस्मिता को बेचने पर अमादा हैं।    
आलोच्य काव्य नाटक अंधा-युग में प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है। रचनाकार धर्मवीर भारती ने ऐतिहासिक, पौराणिक एवं सांस्कृतिक प्रतीकों के माध्यम से इस युग का प्रभावपूर्ण चित्रण किया है। इस नाटक का शीर्षक प्रतीकात्मक है। शीर्षक से अनेक सन्दर्भ ग्रहण किए जा सकते हैं। आलोचकों का मानना है कि काव्य नाटक अंधा-युग का नामकरण लोगों की अज्ञानता को, अन्ध-परिवेश को, अभावग्रस्त युग को आधार बनाकर किया है। क्योंकि भारती का ध्येय लोगों के स्वार्थ के अंधेपन, आज के परिवेश के अंधेपन, सत्ता के अंधेपन. मोह के अंधेपन को अभिव्यक्त कर उसके परिणामों से अवगत करवाना है। वस्तुतः महाभारत का युग अन्धों का युगा था, अज्ञानता से त्रस्त उन व्यक्तियों का युग था जिनमें कर्तव्य और अकर्तव्य का बोध शेष नहीं रह गया था। व्यक्ति तुच्छ स्वार्थों के कारण अकर्तव्य की ओर उन्मुक्त हो रहे थे तथा समष्टिगत भाव का परित्याग कर क्षुद्र वैयक्तिक सीमाओं के कोटर में बंद थे। महाभारतयुगीन भारत में आस्था, साहस, श्रम, अस्तित्व का कोई अर्थ नहीं था। क्योंकि महाभारत का युद्ध अपने अपने स्वार्थों के लिए लड़ा गया था। मनुष्य पर जब स्वार्थ हावी हो जाते हैं तो मर्यादाओं का हनन होता है, आचरण पतित हो जाता है, क्योंकि मोहांध व्यक्ति को कुछ भी दिखाई नहीं देता है। जिस प्रकार धृतराष्ट्र अपने पुत्रों और प्रजा को मरते हुए देखकर भी कुछ नहीं देख सके। मोहाशक्त व्यक्ति अनिर्णय की स्थिति में होता है। वह हर पल विजिय की आशा में ही युद्ध में रत रहता है। धृतराष्ट्र के लिए उनके पुत्र ही सर्वस्व थे। यही कारण है कि वे समष्टि की चिंता नहीं कर सके उसी प्रकार आज के राजनेता भी अपनी सत्ता को ही सर्वोपरि समझते हैं और आमजन को युद्ध में धकेल देते हैं। सत्तासीन व्यक्ति को जिस दिन पराजय की आशंका हो जाती है, उस दिन वह पूरी तरह टूट जाता है, अपने। जबकि मनुष्य ठोकरों से ही सीखता है, पराजय ज्ञान का द्वार खोलती है, असफलता सफलता का मार्ग प्रशस्त करती है, अपनों की चोट और मृत्यु हमें व्यष्टि से समष्टि की ओर ले जाती है, व्यक्ति स्व की कोटर से बाहर आता है परन्तु धृतराष्ट्र उस आशंका से भी कुछ नहीं सीखता ठीक उसी प्रकार अज के राजनेता भी अपनी असफलातों से कुछ भी नहीं सिखाते हैं।
विवेच्य नाटक का परिवेश अंधा है जिसमें सर्वत्र अस्पष्टता, अनिश्चय और अविवेक के कारण सब कुछ धुंधला-सा प्रतीत होता है। विवेच्य काल अभावग्रस्त काल है, जिसमें राजनीतिक, सामाजिक और नैतिक सभी प्रकार के मूल्यों का विघटन हो चुका है- अर्थात् किसी भी प्रकार की मर्यादा शेष नहीं है। ठीक उसी प्रकार आज के युग में भी मर्यादाओं का नित-प्रतिदिन हनन हो रहा है। स्वार्थी लोग अपनी मर्यादा, अपनी अस्मिता, अपने ईमान को बेचने के लिए तत्पर रहते हैं। आज का सम्पूर्ण परिवेश भी महाभारत कालीन है। आज के मनुष्य में भी राजनीतिक, सामाजिक और नैतिक सभी प्रकार के मूल्यों का विघटन हो चुका है।  डॉ.सुखबीर सिंह के अनुसार  “महाभारत के युद्ध में सभी प्रकार के मानव-मूल्य जलकर राख हो गए थे। जिसके बाद पीडि़त और कुण्ठित अनास्था युक्त, गूंगे,बहरे घायल सैनिक और प्रजा ही शेष  रह गए थे, जिन्होंने अपने सामने सभी प्रकार के मूल्यों को नष्ट होते हुए देखा था। इस युग में शेष थे तो ऐसे विक्षिप्त लोग जो युद्ध में मर पाने की यातना को भोगन के लिए अभिशप्त थे। यह युद्ध मर्यादा और मुल्यों की रक्षा के लिए लड़ा गया था, किन्तुयुद्धोपरान्तजिसअन्धे युगकाअवतरणहुआ, उसमें मर्यादा ओर मूल्यों का कोई स्थान शेष नहीं रह गया था।“2   
काव्य नाटक ‘अंधा-युग’ नये युगबोध का नाटक है । इस नाटक की आज भी प्रासंगिकता है। यह कृति वर्तमान युग को संकेत करती है कि यह युग भी महाभारत युग के सामान ही अंधायुग है। अंधा इस अर्थ में कि आज के  मानव भी धृतराष्ट्र की तरह विवेक और बुद्धि से अंधे हैं। आज भी समाज में मानवता शर्मसार है। सर्वत्र अनास्था, कुंठा, कर्तव्यहीनता, भ्रष्टाचार, बेईमानी, आत्महत्या आदि पनप रही है।  इस युग में जो शासक वर्ग है, वह धृतराष्ट्र के सामान आंखें बंद कर बैठा है। धृतराष्ट्र तो अंधे थे परंतु आज का मानव खुली आँखों से भी नहीं देख पाता है। ऐसे समय में मानवता बीते समुद्र के समान हो गई है, मानव संवेदना शून्य हो गया है। दिन प्रतिदिन लोगों की भावनाओं की हत्या हो रही है। इस युग  में स्वार्थ, लोभ, लालच के अनेक प्रकार के विवर हैं, अंध गुफाएं हैं, गलियां हैं। इसके कारण लोगों का मन ही अंधा हो गया है। गांधारी के समान सभी लोगों ने  स्वार्थ, विवेकहीनता, कर्तव्यहीनता की पट्टियां आंखों पर बांध रखी है। भाईचारा समाप्त हो गया है, मनुष्य मनुष्य में वैमनष्यता बढ़ गई है, स्वार्थ के वशीभूत हो गए हैं ।     ऐसा युग अंधा नहीं तो क्या कहा जा सकता है ? जहाँ प्रति दिन मासूम द्रोपदियों के साथ अनाचार होता है, बहुत सारी कन्याओं को जन्म लेने से पूर्व ही कोख में मार दिया जाता है, पिता  द्वारा पुत्री का यौन शोषण किया जाता है, सत्य का साथ देने वालों को सरे राह मौत की घाटी में सुला दिया जाता है, जहाँ न्याय के दरबार में न्याय की बोली लगाई जाती है, स्वार्थ सर्वोपरि है, सभी मनुष्य स्व की कोटर में बंध है, संत्रास, पीड़ा और घुटन के इस वातावरण में सब कुछ अंधा ही अंधा है। अंधा-युग नाटक की समकालीनता पर विचार करते हुए  गिरीश रस्तोगी ने लिखा है “प्रसंग सब वही हैं, पात्र सब वही हैं, पर मूल प्रसंगों और चरित्रों से भारती ने समकालीन अनुभव को, युगबोध को, अपने चिंतन को बड़ी संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत किया है।“ 3  
आज के युग में राष्ट्र भक्ति के स्थान पर पद भक्ति बढ़ गई है। विश्व ग्राम की परिकल्पना में राष्ट्रों का स्वार्थ बढ़ रहा है। आतंकवाद जैसी विश्वजनित समस्या सुरसा के मुख के समान संपूर्ण विश्व के सामने मुंह बाहे खड़ी है। स्व रक्षा, आत्मरक्षा के नाम पर दिन-प्रतिदिन परमाणु बमों, हाइड्रोजन बमों का निर्माण हो रहा है। कोई राष्ट्र आतंकवाद को बढावा दे रहा है तो कोई विश्व शांति के नाम पर दूसरे राष्ट्र पर आधिपत्य जमाना जाता है। हथियारों की इस अंधी दौड़ में मानवीय भाव समाप्त प्राय हो गए हैं। ऐसे वातावरण में निराशा और पराजय, रक्तपात, विध्वंस, कुरूपता, हिंसा, नृशंसता, ह्रासोन्मुख मनोवृत्ति आदि  ही उपजते हैं। इसी प्रकार के गिरते और ध्वस्त होते मानव मूल्यों का आज का युग साक्षी है। इस युग में सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों का विघटन जिस गति से हो रहा है वह  समस्त विश्व और संस्कृति के लिए बहुत बड़ा खतरा है। आज के समय में एक-एक कर सारे मूल्य टूटते और बदलते जा रहे हैं। इसने हमारा विश्वास ही तोड़ डाला है। लोगों के जीने का एक बड़ा मानसिक सहारा उनसे छिन गया है। यह बड़े ही दुर्भाग्य की बात है कि मनुष्य चाहे सच का रास्ता चुने या झूठ का, दोनों का ही अंत दुखदायी होता है।
 नाटककार का मानना है कि युग अपने आप को दुहराता है। जैसा मूल्यों का संकट आज दिखाई दे रहा है, वैसे ही संकट की कल्पना कथाकार महाभारत की स्थिति में भी देखता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद लिखा गया यह नाटक उस समय के युद्ध को प्रतीक के रूप में प्रयोग करता है। जब कृति का अन्त होता है तो कवि कहता है,
उस दिन जो अन्धा युग अवतरित हुआ जग पर
बीतता नहीं रह-रह कर दोहराता है
हर क्षण होती है प्रभु की मृत्यु कहीं न कहीं
हर क्षण अंधियारा गहरा होता जाता है।“4
            निस्संदेह रचनाकार  ने इस नाटक का मर्म बिंदु दूसरे विश्वयुद्ध के बाद मानव की नियति और उसकी स्थिति में देखा। हिरोशिमा और नागासाकी में गिराए गए बम इस बात के पुख्ता प्रमाण है । महाभारत युग से आज तक हम उन्हीं मानसिक यंत्रणाओं, रक्तपात, हिंसा और व्यर्थता के बोध के बीच विध्वंसों के अवशेष पर खड़े हैं और कर रहे हैं इंतज़ार विश्वास, सत्य, अहिंसा और भाई चारे रुपी नई कोंपलों के फूटने का।  फ़सल तो विनाश की बो रहें हैं और फल सर्जन का चाहिए। अन्धायुग में कवि ने जो प्रश्न उठाए हैं उनकी प्रासंगिकता आज भी कायम हैं। इस काव्य नाटक की मूल संवेदना पर विचार करें तो ज्ञात होता है कि  रचनाकार आज के मानव के सामने साफ शब्दों में कहता है कि मनुष्य के उसी कर्म का महत्त्व है जो अनासक्त है अर्थात् कृष्ण ने अर्जुन को गीता में जो संदेश दिया है वही उचित है। मानव फल की इच्छा किए बिना कर्म करता है तो वह अवश्य ही विजयी होता है। यदि व्यक्ति फल, स्वार्थ, मोहासक्ति को छोड़कर वैयक्तिक भावों से ऊपर उठकर कर्म क्षेत्र में प्रवृत होता है तो वह इतिहास और नक्षत्रों की गति बदलने का भी सामर्थ्य रखता है। भाग्य, नियति कुछ भी नहीं है, मनुष्य अपनी इच्छा शक्ति द्वारा हर पल नूतन इतिहास का निर्माण करता है। इच्छा शक्ति की प्रबलता के बल पर ही मनुष्य कर्म की लकीरों को मिटाकर ईश्वर को भी चुनौती देता है। केवल कर्म सत्य है। कर्म ही मनुष्य को उठाता है और कर्म ही उसे गिरा भी देता है। नियति या भाग्य पूर्वनिर्धारित या नियंता शक्ति नहीं है, अपितु मानव-निर्णय उसे  निरंतर बनाता-मिटाता है। कर्म की शक्ति अपरिमित है। यदि कोई पुरुष स्वार्थ-भाव से ऊपर उठकर इतिहास को चुनौती देता है तो निश्चय ही वह सफल होता है-
जब कोई भी मनुष्य
अनासक्त होकर चुनौती देता है इहिास को,
उस दिन नक्षत्रों की दिशा बदल जाती है।
नियति नहीं है पूर्वनिर्धारित-
उसको हर क्षण मानव-निर्णय बनाता-मिटाता है।5
डॉ. बच्चन सिंह ने इस दायित्व, अनासक्त कर्म के महत्त्व पर प्रश्न चिह्न लगाते हुए कहा है “अंधायुग में जिस दायित्व की बात उठाई गई है वह एक आस्था को जन्म देती है। यद्यपि जीवन में वह आस्था पुनः भटक गई है। अंधायुग में युग के अंधेपन का, घुटन, विवशता, लाचारी का जो चित्रण हुआ है वह हमें बुरी तरह झकझोर देता है। पर दायित्व की बात केवल बात बनाकर रह जाती है ।“ 6    
रचनकार का मानना है कि मनुष्यकी पहचान का आधार उसका आचरण ही है, आचरण ही उसे  पतित करते हैं और आचरण ही उसे महत्व देते हैं। अत: मनुष्य का आचरण मर्यादित होना चाहिए। मर्यादा को कोई भी व्यक्ति तोड़ पाए। मर्यादा तोड़ने का प्रयत्न करने वाले व्यक्ति को समाज द्वारा दण्ड का विधान किया जाता है। इसीलिए भीष्म ने,गुरु द्रोण ने तथा कृष्ण ने कौरव सभा में  कहा था -
मर्यादा मत तोड़ो-
तोड़ी हुई मर्यादा
कुचले हुए अजगर-सी
गुंजलिका में कौरव-वंश को लपेट कर
सूखी लकड़ी सा तोड़ डालेगी।7
संसार का नियम है जिसकी लाठी उसकी भैंस अर्थात् बलशाली व्यक्ति सदैव ही मर्यादाओं,  नीतियों और नियमों को अपने अनुसार तोड़ते-मरोड़ते रहे हैं। गांधारी भी इस बात से सहमत है कि ये धर्म, नीति, मर्यादा ये सब हैं केवल आडम्बर मात्रउसका मानना है कि बलशाली व्यक्ति अपने हित में मर्यादा का स्वरुप बदल लेता है। शेष लोग, क्योंकि उससे निर्बल होते है इसलिए उसे रोक नहीं पाते। यही कारण है कि कृष्ण बलशाली हैं और उन्होंने धर्म, नीति, मर्यादा सबको अपने अनुरूप बदल लिया।  
जिसको तुम कहते हो प्रभु
उसने जब चाहा
मर्यादा को अपने ही हित में बदल लिया।8
इसी प्रकार का सच आज के परिवेश में भी देखा जा सकता है। आज के शुभ्रवेशधारी राजनेता भी नकली चेहरे लगाकर जनता का शोषण करते हैं। जन गण मन के नाम पर सत्ता का उपभोग करते हैं। अवसरवादी सत्तासीन लोग अपने क्षुद्र स्वार्थों के कारण जनता को परस्पर लड़ाते रहते हैं और वातावरण को दूषित करते हैं। ऐसे वातावरण में जो दुर्बल व्यक्ति है वह हार मान कर आत्महत्या के लिए बाध्य हो जाता है। ठीक उसी प्रकार जैसे महाभारत-युद्ध में कौरव पुत्र युयुत्सु पाण्डव पक्ष से लड़ा था। परन्तु कौरवों की पराजय के पश्चात् विजयी पक्ष पांडवों का एक सैनिक होने के कारण उसे भी उचित सम्मान मिलना चाहिए था। किन्तु भीम जहाँ कहीं भी उसे देखता था, उसका अपमान कर देता था। भीम के  इस कुकृत्य  को रोकने की इच्छा या शक्ति किसी में भी नहीं थी। मर्यादा का बार-बार उल्लंघन हो रहा था जिसके कारण अन्ततः वह कौरव पुत्र युयुत्सु अपमानित होकर आत्महत्या करने को बाध्य हो जाता है। आत्महत्या एक पाप है। जब यह होता है तो समाज के आंतरिक विघटन की ओर संकेत अवश्य कर जाता हैं इसीलिए कृपाचार्य इस आत्महत्या के दूरगामी परिणामों की कल्पना सहज ही कर लेता है-
आत्महत्या होगी प्रतिध्वनित
इस पूरी संस्कृति में
दर्शन में, धर्म में, कलाओं में
शासन-व्यवस्था में
आत्मघात होगा बस अन्तिम लक्ष्य मानव का।9
            उपर्युक्त विवेचन से यह निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि काव्य नाटक अन्धा युग में भारती ने महाभारत युद्ध का प्रसंग लेकर आधुनिक युग में युद्ध की विभीषिका को चित्रित किया है आज के युग में भी सभी देश अपने निजी स्वार्थो के वशीभूत होकर एक दूसरे से तने खड़े हैं । आज के युग में विश्वशांति की बात बेईमानी हो गई है। आज सभी राष्ट्र अपने रक्षा बजटों पर जितना खर्च कर रहें हैं, वह आने वाले समय में किसी नवीन युद्ध की दस्तक देते नज़र आते हैं।  विचारणीय बिंदु यह है कि मनुष्य का जन्म शांति एवं सद्भाव के लिए हुआ है परन्तु वैयक्तिक स्वार्थों के चलते दया, त्याग, करुणा, विश्व बंधुत्व की भावना तिरोहित होती जा रही है। प्रस्तुत काव्य नाटक में रचनाकार धर्मवीर भारती ने कृष्ण के वचनों का समर्थन करते हुए यह सन्देश दिया है कि मनुष्य अपने कर्म द्वारा नियति को बदल सकता है। साथ ही साथ मर्यादा की महत्ता स्थापित करने का प्रयत्न भी किया हैमहाभारत के युद्ध में जिस मर्यादा का लोप हो गया था वैसा अब हनन अब नहीं होना चाहिए। यह नाटक यह सन्देश भी देता है कि  युद्ध किसी भी स्थितिमें स्वीकार्य नहीं होना चाहिए क्योंकि इसके कारण मानवता का, जीवन मूल्यों का एवं सनातन संस्कृति का ह्रास होता है। इस प्रकार सर्वे भवन्तु सुखिनः एवं विश्व बंधुत्व की भावना जागृत करने वाले इस काव्य नाटक का युगबोध अपने आप में महत्वपूर्ण है।
पाद टिप्पणी
1   सिंह, बच्चन, हिंदी नाटक, राधा कृष्ण, नई दिल्ली,पृ.सं.145
2   कथूरिया, सुंदरलाल, सं, लेख, सिंह, सुखबीर, आधुनिक साहित्य विविध परिदृश्य, पृ.सं.28
3   रस्तोगी, गिरीश, हिंदी नाटक का आत्मसंघर्ष, लोक भारती प्रकाशन इलाहबाद, पृ.सं.91
4   भारती, धर्मवीर, अंधा युग, किताब महल,पृ.सं.108
5   वही, पृ.सं.16
6  सिंह, बच्चन, हिंदी नाटक, राधा कृष्ण, नई दिल्ली, पृ.सं. 163
7  वही, पृ.सं. 8-9
8  वही, पृ.सं.13
9  वही,पृ.सं.90

1 comment:

  1. सराहनीय आलेख।
    आलोच्य दृष्टि के फलस्वरूप पाठक को एक सारगर्भित पाठ इस महत्त्वपूर्ण रचना पर प्राप्त हुआ है।

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