Tuesday, February 5, 2019

यादवेन्द्र शर्मा ‘चंद्र’के उपन्यासों में नारी संवेदना का स्वर

यह शोध पत्र यह स्थापित करने के लिए लिखा जा रहा है कि यादवेंद शर्मा ‘चंद्र’ ने अपने उपन्यासों में नारी समस्याओं के साथ-साथ उसकी संवेदना को भी अत्यंत आत्मीयता एवं कलात्मकता के साथ चित्रित किया है और उनके अधिकांश उपन्यास आजकल के तथाकथित स्त्री- विमर्श की कोटि में रखे जा सकते हैं । साथ ही इस शोध पत्र के माध्यम से यह भी स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है कि नारी की पीड़ा को केवल नारी ही नहीं अपितु पुरुष भी समझ सकता है, शर्त यह है कि पुरुष संवेदनशील हो। कथाकार ‘चंद्र’ ने अपने उपन्यासों में पुरुष सत्तात्मक समाज की मानसिकता का उद्घाटन करने के साथ-साथ सामंती मानसिकता के दुर्बल पक्ष को भी उजागर किया है। हिन्दी साहित्य को अपनी लेखनी से समृद्ध करने वाले राजस्थान के साहित्यकारों में यादवेन्द्र शर्मा ‘चंद्र’ का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। उनके प्रमुख उपन्यासों में ‘संन्यासी और सुन्दरी’, ‘देह गाथा माधवी की’, ‘हजार घोडों का सवार’, ‘एक और मुख्यमंत्री’, ‘खम्मा अन्नदाता’, ‘पराजिता’, ‘गुलाबडी’,’ ढोलन कुंजकली’, ‘जनानी डयोढी’, ‘मैं रानी सुप्यार दे’, ‘पराजिता’, ‘रक्त और तख्त’, ‘मरु केसरी’, ‘खून का टीका’,‘चारमीनार’, ‘कुर्सी गायब हो गई’,‘दीया जला दीया बुझा’ आदि उपन्यास कई मायनों में प्रमुख हैं। वेदों में स्त्री को ब्रह्मा का स्थान दिया गया है ऋग्वेद में कहा गया है –स्त्री हि ब्रह्मा वभूविथ’ वहीं ‘वराह पुराण’ में कहा गया है –‘स्त्रीबालविप्रगोहंता सर्वकर्मबहिष्कृत:’अर्थात् स्त्री,बालक, विप्र और गाय की हत्या करने वाला घोर अपराधी है, ऐसा व्यक्ति सब कर्मो से बहिष्कृत करने योग्य है और उसे नर्क में स्थान मिलता है अर्थात वह न केवल धार्मिक कार्यों से बहिष्कृत करने योग्य है अपितु सामाजिक कार्यों से भी बहिष्कृत करने योग्य है। स्पष्ट रूप से यह कहा जा सकता है कि ऐसा कृत्य करने वाला व्यक्ति समाज में रहने का अधिकारी नहीं है। याज्ञवल्क्य स्मृति में भी स्त्री,बालक,ब्राहमण और गो हत्या को बराबर माना गया है। पद्मपुराण,ब्रहम वैवर्त्य और भागवत पुराण जैसे प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में भी भ्रूण हत्या और बाल हत्या को ब्राहमण और गोहत्या से भी बड़ा पाप और अपराध बताया गया है । प्रश्न उपस्थित होता है कि जब धार्मिक ग्रंथों में स्त्री के लिए इतने विधान हैं तो फिर क्यों आज के समाज में नारी पर इतने अत्याचार हो रहे हैं ? ‘स्त्री के लिए जगह’ पुस्तक के सम्पादकीय में राजकिशोर ने इसका उत्तर देते हुए लिखा है “स्त्री एकमात्र ऐसी जाति है जो कई हजार वर्षों से पराधीन है । “आलोचकों का मानना है कि समाज की सबसे कमजोर और मजबूत कड़ी है “स्त्री”। उसकी यह कमजोरी बाहर से थोपी हुई है और उसकी मजबूती (शक्ति) उसकी अपनी है। चंद्र ने अपने रचना संसार में समाज के मैले कुचेले अंगों को टटोलने का प्रयास किया है। स्वाधीनता के बाद भी समाज में नारी पर होने वाले अत्याचारों का पर्दापाश कर नारी शोषण का विरोध किया है तथा अपने अधिकांश उपन्यासों में नारी की पीड़ा को अभिव्यक्ति दी है। यादवेन्द्र शर्मा ’चन्द्र’ एक ऐसे संवेदनशील साहित्यकार हैं जिनका साहित्य सदियों से शोषित और विमर्दित नारी के हृदय में साहस का संचार करता हुआ, उसे जीवन की समस्त मुश्किलों से जूझने की शक्ति देता हुआ भी अपने नारीत्व की गरिमा को पहचानने के लिए प्रेरित करता रहा है। उनके उपन्यासों में नारी संवेदना के स्वर की प्रमुखता को रेखांकित किया जा सकता है। ‘चंद्र’ का रचना संसार विस्तृत है। उनके उपन्यासों में नारी संवेदना के स्वर को इंगित करने से पूर्व राजस्थान के उस सामंती परिवेश को जान लेना आवश्यक है; जिसे ‘चंद्र’ ने अपने उपन्यासों का कथ्य बनाया है। वस्तुतः ‘चंद्र’ के ये उपन्यास राजस्थान के सामंती परिवेश,रनिवासों में चलने वाले गर्हित कुण्ठित व्यापारों, स्त्रियों पर होने वाले अत्याचारों, सामंतों की सनकों, उनके झूठे अहं व शोषण के सजीव दस्तावेज हैं। स्त्रियों की दशा तो इस युग में इतनी दीन-हीन थी कि वह पातिव्रत्य धर्म का पालन कर ही नहीं सकती थी। उसके सतीत्व पर सामंती सांप मंडराते ही रहते थे। यदि स्त्री निम्न वर्ग की हुई तो बेचारी को हर दिन किसी न किसी सामंत की सैज सजानी ही पड़ती थी; अनेक सामंतों ने तो बाकायदा ‘चाम टैक्स’ लगाकर इसकी पूर्ति कर ली थी; इस टैक्स के अनुसार कोई भी नवविवाहिता स्त्री अपने पति के साथ सुहागरात मनाने से पहले ठाकुर के डेरे की शोभा बढ़ाती थी; राजस्थानी में इसे ‘डोळा प्रथा’ भी कहते हैं। सामंती समाज में सर्वाधिक शोषण नारी का ही हुआ। यूं कहा जा सकता है कि सामंतों का आसान शिकार नारी ही थी। उस पर नाना प्रकार की कु-प्रथाएँ लादकर उसका सामाजिक शोषण किया गया। इस काल में नारी जीवन एक अभिशाप बन गया। समाज का हर व्यक्ति कन्या जन्म को अपने घर के लिए अभिशाप मानने लगा। सामंतों की गिद्ध दृष्टि तथा सामाजिक समस्याओं व कुंठाओं के कारण उसे बाल्यकाल में ही उस पलंग के पाये के नीचे देकर उसकी जीवन लीला समाप्त कर दी जाती थी, जिस पलंग पर वह जन्म लेती थी। सामंती युग में नारी माँ, बहिन, पत्नी या प्रेयसी के रुप में अपनी पहचान नहीं बना पायी थी, वह तो केवल पुरुष की भोग्या मात्र बन गयी थी। सामान्य जन में भी उसे वे अधिकार प्राप्त नहीं थे, जिनकी वह अधिकारिणी थी, अपितु यह माना जाता था कि उसका इस धरती पर आगमन पुरुष की काम भावना को शांत करना है, उसके बच्चों की माँ बनना है तथा वंश बेल को आगे बढ़ाना है। इस युग में नारी को कोई भी अधिकार प्राप्त नहीं थे । वह पुरुष के पांवों की जूती समझी जाती थी; उसका जन्म पुरुष की काम क्रीड़ा के लिए ही हुआ है। यही कारण है कि सामंती काल में स्त्री मात्र भोग्या स्वरुप में ही इंगित होती रही है। सामंती युग में सत्ता प्राप्ति हेतु राजनीतिक दांव-पेच चला करते थे और नारी राजनीतिक स्वार्थ पूर्ति की साधन थी। इसलिए अनमेल विवाह, विधवा विवाह तथा बहु पत्नी प्रथा इस युग में देखी जा सकती है। एक रानी के रहते हुए राजा अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति हेतु अनेक युवतियों से विवाह कर लेते थे तथा बाद में जनानी ड्योढ़ी में नारकीय जीवन भोगने हेतु,उसे छोड़ दिया करते थे;जनानी ड्योढ़ी में भी ये नारियाँ सुरक्षित नहीं थी। कामपिपासु सेवकों द्वारा इनका उपभोग किया जाता रहा है; कई बार तो रानी-पटरानी इनसे बदला लेने के लिए राजनीतिक दांव-पेच लगाकर नारकीय जीवन व्यतीत करने पर मजबूर कर देती थी। कई कई सामंत अपने से शक्तिशाली राजा के साथ अपनी बेटी-बहिन का संबंध स्थापित कर राज्य में ऊँचा पद प्राप्त करते थे, चाहे वर-वधु की उम्र से दुगुना ही क्यों न हो । इस काल में नारी निरीह पशु थी। उसकी इच्छा को बिना जाने ही उसका विवाह तय कर दिया जाता था। कई कई सामंत तो विवाहोपरांत ही उसे ‘दुहाग’ देकर उसके पिता का बदला उससे ले लिया करते थे। काम लोलुप सामंत अपनी कामाग्नि को शांत करने हेतु अपनी रियाया की अबोध बालिकाओं के कौमार्य के साथ खिलवाड़ किया करते थे। जहाँ भी सुंदर युवती दिखाई दी उसे बलात् अपहरण कर अपनी कामाग्नि शांत करते थे। कई-कई सामंत तो कुटनियों द्वारा सुंदर-सुंदर युवतियों को अपने जाल में फँसा लिया करते थे। इन सामंतों ने बाकायदा कुटनियों की एक ‘गैंग’ बना रखी थी जो राजा हेतु सुंदर-सुंदर युवतियों का चयन कर उनकी सैज का सिणगार कर अपना ईनाम पक्का किया करती थी। इस काल में सुंदरता स्त्रियों के लिए अभिशाप बन गयी थी। आज के इस भौतिकवादी युग में भी चाहे हम कितने ही अपने आप को सभ्य माने परन्तु सामंती मार की ‘नील’ आज भी हमारे शरीर पर देखी जा सकती है। क्यों आज पुत्री के जन्म लेने पर उसे हिकारत की दृष्टि से देखा जाता है ? क्यों उसे कोख में ही मार दिया जाता है ? क्या आज फिर वही सामंती परिवेश जिंदा नहीं हो गया है जिसमें कन्या को उसी खाट के पाये के नीचे देकर मार दिया जाता था, जिस खाट पर वह जन्म लेती थी? परिस्थितियों में अन्तर बस इतना ही आया है कि पहले उसे जन्म लेने के बाद मारा जाता था, अब विज्ञान के आविष्कार के कारण उसे कोख में ही मार दिया जाता है। सामंती परिवेश में तो सामंत ही नारी को कुत्सित वासनाओं का शिकार बनाते थे, परन्तु आज के तथाकथित वैश्वीकरण के युग में नारी का पग-पग पर बलात्कार होता है। क्यों आज निर्भयाकाण्ड की अग्नि शांत हो ही नहीं पायी थी कि उत्तरप्रदेश के बदायूं में गैंगरैप की घटनाएँ घट जाती है, यह समाचार अभी पूरी तरह प्रसारित भी नहीं हुआ था कि फिर उतरप्रदेश में ही एक युवती के साथ सामुहिक बलात्कार कर उसके चेहरे पर तेजाब डालकर पैट्रोल से जलाने की सूचनाएँ आ जाती हैं। क्या यही लोकतंत्र है ? या सामंतवाद का परिष्कृत रुप? जिसमें जनता के सेवक, हमारे नेता दिन के उजाले में अपने सरकारी बंगलों में बलात्कार करते हैं तो कुछ फार्म हाउसों में अपनी प्रौढ़ता को युवावस्था में बदलते नजर आते हैं। कहाँ गई हमारी नैतिकता ? नारी सुरक्षा का रोना रोने वाले ये जनप्रतिनिधि ही नारियों का शोषण कर रहे हैं तो अन्य लोगों की तो बात ही क्या ? ‘चन्द्र’ ने अपने इन उपन्यासों में पितृसत्तात्मक परिवारों पर आक्षेप लगाया है और प्रश्न उठाया है कि नियति की सबसे सुंदर रचना नारी को केवल भोग्या ही माना जाये जबकि वह सुंदर रचना हर स्वरुप, हर परिस्थिति में पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर बराबर चलने में सक्षम है। महादेवी वर्मा ने भी स्त्रियों की चिंता करते हुए लिखा है ‘‘स्त्री जन्म से ही अभिशप्त और जीवन से संतप्त हैं।’’ इसी मुद्दे पर प्रभा खेतान अपने आलेख- ‘‘बाहर और भीतर की दुनिया’’ में लिखती हैं, ‘‘स्त्री को महज स्त्री होने के कारण जिस दलन को झेलना पड़ता है, वहाँ उसे कैसे मुक्ति मिले? यहाँ उन्होंने दो तरह के दलन की चर्चा की है- एक सामाजिक विषमताओं के कारण आरोपित दलन और दूसरा दलन, महज स्त्री होने के कारण सहना पड़ता है।’’ चंद्र के उपन्यासों के बारे में आलोचकों का मानना है कि चंद्र के उपन्यास उस सामन्ती युगीन स्त्री के मन का ई.सी.जी है जो उसके मन की स्कैनिंग कर, हर हलचल को लेखक ने पूरी-पूरी मनोविश्लेषणात्मक प्रक्रिया के साथ चित्रित किया है। स्त्री की अपनी इच्छा अन-इच्छा का कोई मूल्य नहीं था। इसीलिए ‘मैं रानी सुप्यारदे’ उपन्यास में सुप्यारदे कहती है- ‘‘मैं दावे के साथ कहती हूँ कि स्त्री ने कभी भी अपनी इच्छा का जीवन नहीं जिया।“आज समाज में नारी की स्थिति बहुत ही दयनीय है. पुरुषों की स्त्रियों के प्रति भोगवादी प्रवृति ने उसे हर जगह अपमानित ही किया है। यही कारण है कि सजग साहित्य सृष्टा अपने साहित्य में इनके अधिकारों के प्रति उस अबला को सजग करते रहतें है और लेखनी की धार से लड़ते रहतें है। यादवेन्द्र शर्मा ‘चंद्र’ ऐसे ही कथाकार हैं जिन्होंने अपने उपन्यासों में नारी की समस्याओं को न केवल उठाया है अपितु उनका समाधान भी सुझाया है।वे समस्याओं को बहुत गहराई से देखते हैं और सहजता से उनका विश्लेषण करते हैं जिसके कारण सामाजिक जीवन का गहन अंकन होता है। मानवीयता उनके साहित्य का प्रमुख वर्ण्य विषय है जिसके कारण पात्र सजीव और संवेदनाओं से युक्त होते हैं। चंद्र के उपन्यासों में पारिवारिक दृष्टी से नारी– माँ, पत्नी, पुत्री, ननद, जेठानी, देवरानी, भाभी, सास अर्थात सभी रिश्तों के रूप में अभियक्त होती है। सामाजिक दृष्टि से देखें तो नारी प्रेमिका, सेविका तथा व्यभिचारिणी के रूप में सामने आती है। उन्होंने लिखा है ‘औरत का किसी से रिश्ता नहीं होता और वैसे सारे रिश्ते औरत से ही होते हैं’ निसंदेह सारे रिश्तों की जननी है नारी। चंद्र ने अपने उपन्यासों में नारी से संबंधित सामाजिक, पारिवारिक तथा आर्थिक समस्यायों को अभियक्ति दी है। ‘ढोलन कुंजकली’ उपन्यास में राजस्थान की गायक जाति ‘ढोली’ की सामाजिक विडम्बना पूर्ण, गरीबी से त्रस्त, दर-दर मांगकर खाने तथा सामंतों के समक्ष उनकी विवशतापूर्ण जीवन का अंकन किया है । ढोलन कुंजड़ी को न चाहते हुए भी सामंतों के डेरे पर जाना पड़ता है; नाच-गान के लिए। नाच-गान तक तो ठीक था परन्तु सामंती लोग उसे अपनी हवस का शिकार भी बनाना चाहते हैं। कुंजडी अपना ‘डील’ नहीं बेचना चाहती तो उसके पति को बंदी बना लिया जाता है और बलात् उसे अपना सब कुछ देना पड़ता है। इतना ही नहीं उसका पति गुलबिया स्वयं उसे अन्य पुरुषों से संबंध बनाने के लिए बाध्य करता है। गुलबिया ने छूटते ही “कुंजडी के बाल पकडकर दो-चार घूँसे जमा दिए। उसने अनाप शनाप फोश गालियाँ निकाली। आरोप लगाया, “मादरकाढ़ रांड.....सतवन्ती बनकर खसम की छाती पर मूँग दलती है ? ......कमीनी! क्यूँ नहीं ठाकुर की बात मानी ? तेरी माँ रांड क्या घर में बैठी रहती है?”1 इसी उपन्यास में कुंजकली जब ठाकुर के यहाँ रात में जाने से मना करती है तब अबीरी द्वारा गुलबिया को शराब की बोतल का लालच दिखाकर व कुंजकली के प्रति उसके मन में क्रोध उत्पन्न्न करवाकर कुंजकली को ठाकुर के यहाँ नाचने-गाने पर विवश किया जाता है। वह विरोध करती हुई कहती है “ठीक है, रात के गाने-बजाने में तो अणूती (अनुचित) बातें होती हैं। दारू..... नाच..... नंगापन...... तू बर्दास्त कर लेगा ?” पर उसका पति गुलबिया स्त्री हृदय की तनिक भी चिन्ता किये बगैर उस पर हँसता है और वह उसे समझाता हुआ कहता है “इसमें बर्दास्त करने की क्या बात है ? यह तो हमारी जात का धर्म है। सब ढोली भी तो अपनी लुगाइयों को भेजते हैं।”2 यहाँ गुलबिया जैसा पति है जो अपनी पत्नी को पर पुरुष के पास भेजने को तैयार हो जाता है और स्वयं उसकी कमाई पर दारु पीता है । प्रश्न उठता है कि एक पुरुष गौतम मुनि थे जिन्हें अपनी पत्नी के लज्जास्पद के कृत्य के कारण उसे शाप दे देय था;यद्यपि यह बात अलग है कि उसके इस लज्जास्पद कृत्य में उसकी पत्नी का कोई दोष नहीं था क्योंकि देवराज इंद्र गौत्तम ऋषि का रूप धारण कर उसके पास आये थे ।एक पुरुष गुलबिया है जो अपनी मर्जी से ही अपनी पत्नी को दूसरों की सेज पर भेजता है । दोनों ही स्थानों पर स्त्री का दोष नहीं है फिर भी परिणाम उसे ही भोगना पड़ता है इसीलिए राजेंद्र यादव ने कहा है “ नैतिकता के सारे मानदंड स्त्री-शरीर से तय होते हैं।” अब स्त्री इन मानदंडों को तोड़ने के लिए तत्पर हो गई है। पुरुष ने नारी को केवल भोग्या माना है। वह सिर्फ इतना जानता है कि विवाह का औचित्य है पुरुष की कामाग्नि को शांत कर, बच्चे पैदा करे और उसकी वंश बेल को आगे बढाए । क्या नारी संतति उत्पन्न करने, कामाग्नि का शमन करने या वंश बेल को आगे बढाने मात्र का उपकरण या मशीन है ? क्या सृष्टिकर्ता ने नारी के इस स्वरुप की ही रचना की है ? नहीं नारी वह है जिसके बिना पुरुष अधूरा है । नारी उद्यान की उस लता के समान है जो पुष्प भी देती है, गंध भी देती है, फल भी देती है और अंत में अपना सर्वस्व भी देती है। दया, ममता, परोपकारिता, वत्सलता, मधुरता जैसे अनेक गुणों का पर्याय है नारी। ‘चंद्र’ ने अपने उपन्यास ‘आदमी बैसाखी पर’ में नारी की नियति को इंगित करते हुए स्पष्ट किया है कि आधुनिकता का दम्भ भरने वाला हमारा पूँजीवादी समाज अपने धन के बल पर स्त्री के शोषण के लिए हर पल कितना लालायित रहता है और कितने चक्रव्यूह रचता रहता है। हमारे समाज मे प्राचीन समय में और आज भी नारी को आर्थिक रूप से संपन्न नहीं होने दिया जाता है, जिसका कारण प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्ष रूप से उसके शोषण से ही जुड़ा हुआ है। यदि स्त्री आर्थिक रूप से संपन्न है तो वह पुरुष का प्रतिरोध करेगीऔर यदि वह आर्थिक रूप से पति पर निर्भर है तो उसके हर दंड को सहन करती है क्योंकि उसके भरण-पोषण का कोई दूसरा आधार नहीं होता है। हमारे मारवाड़ी समाज में तो नारी की स्थिति ओर भी दयनीय है,जहाँ धर्म और संस्कृति की दुहाई देकर नारी का शोषण किया जाता है ।यदि कोई युवती विधवा हो जाती है तो धर्मग्रंथों का सहारा लेकर उसे वैधव्य जीवन जीने को काली गहरी कोटड़ीयों में छोड़ दिया जाता है।विधवा स्त्री न अच्छा खा सकती है,न अच्छा पहन सकती है,न किसी के साथ बोल सकती है और न ही अपने मन की कर सकती है,उसके जीवन पर प्रतिबंध लग जाता है। ‘चंद्र’ ने अपने लघु उपन्यासों ‘प्यास के पंख’ और ‘घूँघट के आँसू’ इन दोनों में ही पारम्परिक मारवाड़ी समाज में स्त्री की स्थिति, उसकी विवशता एवं असहायता को चित्रित करते हुए समाज की दोगली मानसिकता को भी उजागर किया है, जो स्त्री से उसके ’मनुष्य’ होने के सारे अधिकार छीनकर उसे हाड़-माँस की निर्जीव पुतली बनाये रखने में विश्वास करता है। मानसिक संकीर्णता से ग्रस्त हमारा परम्परागत मारवाड़ी समाज एक विधवा युवती के जीवन को कितना कष्टकारी बना देता है, यह मालती के जीवन को देखकर समझा जा सकता है। मालती विधवा युवती है और वह बेहद संयमित और पावन जीवन व्यतीत करने वाली है परन्तु ढ़कोसलों और जर्जर रूढि़यों में जकड़ा परिवार एवं समाज मिथ्या आरोप लगाकर उसे मरणासन्न अवस्था में पहुँचा देते हैं। लेकिन उसे किसी के साथ हँसने - बोलने एवं विवाह करके खुशी से जीने का अधिकार नहीं देना चाहते हैं। धर्म और संस्कृति की दुहाई देकर उसे यातना के घेरों में कैद करके रखने वाला समाज प्रति पल उसके साथ छल करता रहता है। वह पिंजरे में बंद पक्षी के समान जीवन व्यतीत करने को मजबूर है । इसके विपरीत यही समाज पुरूषों को वृद्धावस्था में भी किसी बालिका या युवती से विवाह करके उसके जीवन से खिलवाड़ करने की स्वतन्त्रता देता है। इस प्रकार समाज की इस दोहरी मानसिकता को रचनाकार ने संवेदना के साथ प्रस्तुत किया है । यहाँ रचनाकार का दायरा विस्तृत होने के कारण वह परिवेशगत असमानताओं को अभिव्यक्त करने में सफल हो जाता है । इसी बात को इंगित करते हुए डॉ.राजेन्द्र शर्मा ने कहा है ‘‘राजस्थानी मिट्टी से जुड़े होने के कारण ‘चन्द्र’ ने सामन्ती समाज में स्त्री के इस दोयम दर्जे की स्थिति को देखा और सामाजिक यथार्थ के सजग रचनाकार होने के नाते समाज के इस कटु सत्य को अपने साहित्य में उकेरने और स्त्री के शोषण, दमन उसके संघर्ष एवं पीड़ा को अभिव्यक्ति देने में सफलता प्राप्त की।“3 उन्ही के उपन्यास ‘घूँघट’ के आँसू’ में सीता एक ऐसी स्त्री है जो अपने बच्चे को ज़हर देकर मारने वाले अत्याचारी पति की रात-दिन की शारीरिक एवं मानसिक प्रताड़ना से तंग आकर उसे छोड़ कर अकेले रहने का साहस दिखाती है। सामाजिक उपेक्षा एवं ’पथभ्रष्टा’ जैसे खिताब पाकर भी अपने पथ से विचलित नहीं होने वाली सीता विधवा मालती को मारवाड़ी समाज में स्त्री की स्थिति से अवगत करवाते हुए कहती है - “वस्तुतः विधवा ही नहीं, सेठिया-समाज में नारियों का कोई जीवन नहीं है। इस घूँघट में छिपे आँसूओं की धारा के मर्म को कौन पहचान सकता है? पूँजी और ऊँची हवेलियों में सोने और चाँदी से भरी सेठानियाँ और युवतियाँ कितना परवश जीवन व्यतीत करती हैं, यह कोई नहीं जानता ।‘‘मालती, वर्षों के बाद मैं एक सत्य को जान पायी हूँ कि हमारा आत्म हनन, हमारा ’स्व’ का शोषण और दुःख का वहन व्यर्थ है। यह समाज किसी के उत्सर्ग का कोई मूल्य नहीं जानता।”4 “इस पिंजरे में बन्द परिन्दे की तरह भी नारी का जीवन नहीं है। यह पिंजरे में मुक्त होकर नाच, गा और बोल सकता है पर स्त्री तो इतना भी नहीं कर सकती। वह तो सब से लाचार है, दीन है।”5 कौन समझ पाया है नारी के अंतस की गहराई को ? वह पति जो प्रतिदिन उसे मारता है, भद्दी-भद्दी गलियां देता है, न जाने कैसे- कैसे अमानवीय अत्याचार करता है फिर भी नारी के लिए वह परमेश्वर से कम नहीं। दिन-भर हाड-तोड़ मेहनत- मजदूरी करती है, बच्चों को पालती पोसती है और शाम को शराबी पति को शराब के पैसे न दे तो हाड़ कुटवाती है, अगले दिन करवा चौथ का व्रत करती है और ईश्वर से प्रार्थना करती है कि उसे अगले जन्म में भी उसे वही भर्तार मिले।भर्तार का अर्थ है भरण- पोषण करने वाला। परन्तु ऐसा भर्तार जो सूरज की रोशनी पीठ पर पड़ने पर उठता है और दिन भर जुआ- ताश खेल शाम को पत्नी की कमाई से शराब पीता है। कौन समझ पाया है नारी के इस द्वंद्व को ? अगले जन्म में भी ऐसे ही भर्तार की कामना करने वाले नारी मन को ? शायद सृष्टिकर्ता भी नारी के इस स्वरुप को समझने में सर्वथा असमर्थ है। मारवाड़ी समाज में स्त्री का कोई मान-सम्मान नहीं होता और नहीं उसके त्याग और समर्पण का कोई मूल्य होता है वह केवल बच्चे पैदा करने की मशीन है । इसके सिवा उसका कोई औचित्य नहीं । इस समाज में स्त्री के त्याग, समर्पण की उपेक्षा करके उसके चरित्र पर अँगुली उठाकर उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाना आम बात है । चाहे ’घूँघट के आँसू’ की वासुकी हो या ’प्यास के पंख’ की विमला दोनों ही युवतियों का विवाह धन के लालच में वृद्ध पुरूषों से कर दिया जाता है,अर्थात अनमेल विवाह जिसके कारण दोनों का ही जीवन बर्बाद हो जाता है। यह अनमेल विवाह की समस्या ही है जिसके कारण स्त्रियों को वैधव्य की समस्या का सामना करना पड़ता है। स्त्री इसे भी अपनी नियति समझकर शांति और सम्मानपूर्ण जीवन के लिए समझौता कर लेती है। लेकिन इतने पर भी जब उसके त्याग, समर्पण की उपेक्षा करके उसके चरित्र पर अँगुली उठाकर उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाने का प्रयास किया जाता है तो वह विद्रोह पर उतारू हो जाती है। वासुकी अपने वृद्ध पति के अत्याचारों से त्रस्त होकर उसे त्यागकर शिव से विवाह कर समाज और परिवार को उसी की भाषा में मुँहतोड़ जवाब देती है तो विमला अपने वृद्ध पति गोकुलदास द्वारा अपने चरित्र पर लाँछन लगाने के बाद चुप नहीं बैठती। जिस ज़हर को अब तक वह बेमन से पीती आ रही थी उसको वह और पीने को तैयार नहीं है। वह सेठ से पूछती है, “मुझे आपने समझ क्या रखा है? आप मुझे इतनी कमीनी समझते हैं कि मैं दो कोड़ी के नौकर के साथ......... छिः जी चाहता है, तुम्हारे इस सेठिया समाज को आग लगा दूँ। उन पैसों को फूँक डालूँ जो तुम्हें खोखली इज्जत को बचाने के लिए बीबी तक को दाँव पर लगाने को उकसा रहे हैं।” “अब आप मुझे देखिए। ............... सब कुछ मिटा डालूँगी। आपको नंगा कर डालूँगी।”6 और अंततः आक्रोशित विमला गोकुलदास से तलाक लेने का निश्चय करती है। यहाँ रचनाकार ने स्त्री में विद्रोह की भावना जागृत की है । वह अब समझ गई है कि निरीह पशु बनकर रहने से शोषण बढ़ेगा ही और आखिर कब तक किसी को सहन किया जा सकता है ? यदि पति ही अपनी पत्नी पर लांछन लगाता है तो विश्वास का वह तंतु टूट जाता है जो गृहस्थी का आधार होता है। पति-पत्नी संबंध पुरुष केवल विश्वास पर टिका रहता है। विश्वास रुपी छोटा - सा तंतु ही उनके जीवन का आधार रहता है। एक दूसरे के दुःख – दर्द बांटन, सहभागी बनना तथा परस्पर सौहार्द जीवन का आधार होता है परंतु आज के युग में विश्वास खो गया है और दुःख दर्द बांटने के बजाय देने का काम चल रहा है तथा मानवीय रिश्तों को भुलाकर अर्धांगिनी का स्वरुप भुला दिया गया है। अब स्त्री- पुरुष का संबंध देह तक सीमित रहा गया है। शोषण के चक्र में निरन्तर पिसती आ रही स्त्री को अब यह भली-भाँति समझ में आ गया है कि धर्म और संस्कृति की दुहाई देकर उसे यातना के घेरों में कैद करके रखने वाला समाज उसके साथ छल कर रहा है। अतः अब वह उस छलावे के नाम पर अपना अनमोल जीवन गँवाने को तैयार नहीं है। उसे भी एक मनुष्य के नाते सुखी जीवन व्यतीत करने का अधिकार है। इसी कामना को प्रकट करते हुए वासुकी कहती है - “समाज इसे एक कुलटा का कुकृत्य भले ही समझे। जिस भारतीय आदर्श, संस्कृति, सभ्यता की मेरे इस कर्म से यदि हत्या हुई है तो हो जाने दीजिए, मुझे कोई चिन्ता नहीं। वह संस्कृति, सभ्यता और आदर्श ही क्या, जिसमें न्याय की समता नहीं - एक स्त्री और एक पुरूष के लिए, सुख नहीं, संतोष नहीं। जहाँ सारे नैतिक आदर्श स्त्री के शरीर से ही लिपटे हों, वहाँ कैसे कोई मुक्ति की साँस ले?’’7 सेठानी जी, क्या जीवन को जीवन की तरह व्यतीत करना अपराध है ? मैंने अपने प्रथम पति के लिए क्या नहीं किया? पृथ्वी के सारे आदर्श केवल स्त्रियों के लिए ही क्यों है? .........नारी का यह वैशिष्ट्य व्यर्थ है, धर्म और नैतिकता की दुहाई अर्थहीन है, यदि उसमें आदमी के मन की प्रसन्नता और संतोष नहीं है तो।” राजेन्द्र यादव ने ठीक ही कहा है “नैतिकता के सारे मानदंड स्त्री-शरीर से तय होते हैं।”अब स्त्री इन मानदंडों को तोड़ने के लिए तत्पर हो गई है। ’चन्द्र’ ने अपने उपन्यास ’ढोलन कुंजकली’ में हरि अपनी दारू की प्यास बुझाने के लिए शराब ठेकेदार से अपनी बेटी का सौदा कर आता है। ठेकेदार ढोलन स्त्री को मात्र भोग की वस्तु समझकर हरि से कहता है, “तुझे पूरे एक महीने तक मुफ्त में दारू पिला सकता हूँ।” ........ “अपनी छोरी कुंजडी को मेरे घर के पिछवाडें के ’दानखाने’ में छोड जा।”... “अरे ! तू ठहरा ढोली।...... आज नहीं तो कल तेरी छोरी गाएगी-नाचेगी ही.... तू मेरे सामने ही नंगी कर दे।”9 हद तो तब होती है जब हरि कुंजकली को लाने के लिए तैयार भी हो जाता है। कुंजकली जीवन भर दूसरों के लिए एक शरीरी खिलौने के रूप में प्रयोग में ली जाती है। उसकी व्यथा यह है कि वह हालात के आगे विवश है। वह कदम-कदम पर लोगों का शिकार बनती है। कुंजकली के तेरह वर्ष की अवस्था में खेल ही खेल में हनुमान से देह संबंध बनते है। जिस वातावरण में कुंजकली रहती थी उस वातावरण के आधार पर इससे अधिक की आशा भी नहीं की जा सकती है। इतना ही नहीं बूढा लोकिया बाबा भी उसके शारीर का स्पर्श सुख पाने की लालसा में बिना पैसे लिए उसकी मटकी भर देता था। कुंजकली भी इसे सस्ता सौदा मानकर क्रोध करने के स्थान पर प्रसन्न होकर चुप रहती थी। यहाँ यह बात दृष्टव्य है कि पुरूष और स्त्री को जन्म से ही क्रमशः दमन करने और शोषित होने का वंशानुगत मिला गुण घुट्टी के रूप में पिलाया जाता है। स्त्री को बचपन से ही यह सिखाया जाता है कि वह मात्र उपभोग की वस्तु है इसके सिवा उसका कोई भी उपयोग नहीं है। चंद्र’ ने अपने उपन्यासों के माध्यम से समाज के उपेक्षित वर्ग नारी की समस्याओं को उठाया है। उनका मानना है कि नारी का अशिक्षित होना ही उसका सबसे बड़ा अभिशाप है। राजस्थानी परिवेश की नारी आर्थिक रूप से अपने पति पर ही निर्भर रहती जिसके कारण वह सदैव पति द्वारा प्रताड़ित होती रहती है। यदि स्त्री पढ़ी-लिखी हो तो आर्थिक रूप से संपन्न होकर अपना घर चला सकती है। उनका यह भी मानना है कि स्त्री पुरुष के बीच अलगाव की स्थिति का मुख्य कारण है पर स्त्री या पर पुरुष संबंध। ये नाजायज संबंध दोनों के मध्य कड़वाहट पैदा करते हैं और दोनों एक दूजे के साथ जीवन पथ पर एक साथ चलने में नाकाम रहते हैं। कथाकार ‘चंद्र’ ने नारी संवेदना को अत्यंत आत्मीयता एवं कलात्मक ढंग से चित्रित किया । ‘चंद्र’ के उपन्यास नारी केंद्रित है । इनके उपन्यासों में चित्रित नारी चरित्र आर्थिक,सामाजिक,धार्मिक और राजनीतिक विडम्बनाओं की विवशता को झेलती दिखाई देती है । सार रूप में कहा जा सकता है कि इनके उपन्यासों में नारी की विवशता पुरुषजन्य परिलक्षित होती है । पाद - टिप्पणी – 1 ‘चंद्र’,यादवेंद्र शर्मा, ढोलन कुंजकली, पृ.सं. 64 2 चंद्र’,यादवेंद्र शर्मा, ढोलन कुंजकली, पृ.सं. 59 3 शर्मा ,डॉ.राजेन्द्र,(संपादक) स्वांत्रयोत्तर राजस्थान का हिन्दी साहित्य, राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर । 4 चंद्र’,यादवेंद्र शर्मा, चारमीनार, पृ.सं. 252 5 चंद्र’,यादवेंद्र शर्मा, चारमीनार, पृ.सं. 253 6 चंद्र’,यादवेंद्र शर्मा, चारमीनार, पृ.सं 176 7 चंद्र’,यादवेंद्र शर्मा, चारमीनार, पृ.सं 218 8 चंद्र’,यादवेंद्र शर्मा, चारमीनार, पृ.सं 232 9 ‘चंद्र’,यादवेंद्र शर्मा, ढोलन कुंजकली, पृ.सं. 44

2 comments:

  1. नारी संवेदना लेखक के साथ साथ आलोचक के आलेख में भी बखूबी देखी जा सकती है।
    स्तरीय आलेख 🙏🙏🙏🙏🙏

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  2. राजस्थानी परिवेश और वो भी सामंती तो नारी की दशा और दिशा को देख सकते हैं।

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