Friday, April 3, 2020

राजस्थान का इक्कीसवीं सदी का हिंदी महिला कहानी लेखन और स्त्री जीवन


राजस्थान का इक्कीसवीं सदी का हिंदी महिला कहानी लेखन और स्त्री जीवन


        इक्कीसवीं सदी के राजस्थान के हिंदी महिला कहानी लेखन में पिछली सदी के मुकाबले बहुत ही परिवर्तन आये हैं। राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय घटनाओं ने जहाँ सम्पूर्ण विश्व के साहित्य को परिवर्तन कर दिया तो राजस्थान का साहित्य कहाँ अछूता रहता? इस काल के साहित्य में कथानक के स्तर पर ही नहीं अपितु शिल्प के स्तर पर भी परिवर्तन दृष्टिगत होते हैं। जब साहित्य और समाज का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध माना जाता है तो निस्संदेह ये बदलाव यकायक नहीं आये अपितु बहुत से कारणों ने साहित्य लेखन को प्रभावित किया। “पाठकों, आलोचकों और संपादकों का मानना है कि हिंदी कहानी में बदलाव दिखने का खास समय जिन घटनाओं, दुर्घटनाओं व परिघटनाओं से मिलकर बना है, वे हैं अयोध्याकाण्ड, भारतीय राजनीति में  नए गुणा-भाग, भूमंडलीकरण, मुक्त पूंजी का उद्दंड हस्तक्षेप, विचार विलोप, विस्थापन, अस्मिताओं का उभार और सामाजिक न्याय की बलवती इच्छा आदि। अर्थात् दो दशक से कुछ अधिक का पिछला समय। जाहिर है इस समय ने पूरे रचना संसार को आंदोलित किया।1  साथ ही रचनाकार के लेखन को स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दे एवं परिस्थितियां प्रभावित करती हैं क्योंकि रचनाकार इन सब से व्यक्तिगत रूप से जुड़ा हुआ होता है। यदि मुद्दे अंतरराष्ट्रीय स्तर के हों तो वो समूचे लेखन को ही प्रभावित करते हैं। दुनियां में जैसे-जैसे उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण पनपने लगा तथा भारतीय परंपरा और संस्कारों का ह्रास होने लगा वैसे ही मनुष्य में मोहभंग की स्थिति उत्पन्न होने लगी। इस मोहभंग के कारण समाज व्यवस्था ह्रासोन्मुख होने लगी और मानव मूल्य घटने लगे जिसके परिणाम स्वरुप संयुक्त परिवार विघटित होकर एकल परिवार में परिवर्तित होने लगे, युवा चेतनाहीन होकर आतंक और नशे की ओर मुड़ गए, पीढ़ियों में वैचारिक मतभेद उभरने लगा और रिश्तों में दरार आने लगी और सामाजिक रिश्तों में बदलाव महसूस किया जाने लगा, बढती अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा के कारण महानगरीय जिंदगी की भयावहता के प्रति आक्रोश पनपने लगा, मानवीय संवेदनाएं शून्य होने लगी। इतना ही नहीं आर्थिक क्षेत्र में उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा मिलने लगा जिसके परिणाम स्वरुप हमारी जीवन शैली अर्थकेन्द्रित होने लगी, तकनीकी के बढ़ते प्रभाव के कारण रोजगार के अवसर कम होने लगे और बेरोजगारी में अत्यधिक वृद्धि होने लगी, बाजारवाद की संस्कृति को बढ़ावा मिलने लगा जिसके कारण जीवन मूल्यों का ह्रास होने लगा, 'टार्गेटबेस' जिंदगी के कारण युगीन अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा होने लगी। भ्रष्ट राजनीति के प्रति आमजन में आक्रोश उत्पन्न होने लगा। उक्त करणों ने ही इक्कीसवीं सदी के कहानी लेखन को सशक्त आधार प्रदान किए जिसके कारण उनका साहित्य युगीन संदर्भो को प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करता है।   
राजस्थान की महिला कहानीकारों की कहानियों का कथ्य विविधता भरा है यथा-सामाजिक,  सांस्कृतिक, दायित्व चेतना, वैज्ञानिक बोध, नारी मुक्ति, जनचेतना, शोषितों की पक्षधरता, कुशासन के प्रति विद्रोह, परंपरा और मूल्यों के पुनर्परीक्षण, अनैतिक संबंध, विलासी जीवन, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, पाश्चात्य संस्कृति, ह्रासोन्मुख नैतिक मूल्य, अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य पर अंकुश लगने की प्रवृति, शैक्षिक अवमूल्यन आदि विषयों को बड़ी ही बेबाकी से उठाया है साथ ही चरित्रों व घटनाओं के भीतर पैठ कर अनजाने तहखानो में घुसना और गहन रहस्यों को सलीके से खोलने की कोशिश करना इनकी कहानियों की विशेषता है। इस प्रकार इन कहानीकारों ने संयमित सामाजिक जीवन को उकेरने का सफल प्रयास किया हैं। इस काल की कहानियाँ समाज की विविधता को समझकर यथार्थता के साथ जीते हुए भी मूल्य निर्माण की प्रेरणा देती है।  साथ ही इन कहानियों में सामयिक परिवर्तनों को भी देखा जा सकता है तलाक और उससे उपजने वाली समस्याएँ, मानसिक द्वंद्व की शिकार युवा पीढ़ी और उसके परिणाम, नौकरी पेशा औरते और कार्य स्थलों पर होने वाले अत्याचार, यौन शोषण और अकेले ही पलते बच्चों सबका बेबाक चित्रण इस काल की कहानियों में मिलता है।
 समाज में स्त्री-पुरूष संबंधों में आता बदलाव व टूटती मानवीय संवेदनाओं को भी इक्कीसवीं सदी की महिला लेखिकाओं ने अपनी कहानियों का विषय बनाया है। महिला कहानीकारों ने समाज को प्रभावित करने वाले प्रत्येक क्षेत्र को अपनी कहानी की विषय-वस्तु बनाया है। कोई भी ऐसा विषय अछूता नहीं रहा है जिस पर इन कहानीकारों ने अपनी कलम नहीं चलायी हो; चाहे वो देश और सुरक्षा का विषय हो, दल-बदल राजनीति हो, आर्थिक क्षेत्र से जुड़े मुद्दे हो या फिर दाम्पत्य के टूटते-बनते रिश्तों के विषय हो, इन सब विषयों को अपनी कहानियों में लिया है। तत्कालीन परिस्थितियों से असंतुष्ट और क्षुब्ध होकर समकालीन रचनाकार भी युगीन विसंगतियों और विकृतियों को रूपायित करने के प्रति सचेत होते गए। जिस प्रकार का वातावरण था उसी के अनुरूप साहित्य सर्जन होने लगास्त्रियों ने अपने रचनाकर्म के द्वारा अपनी 'टीस' और आक्रोश दोनों को सफल अभिव्यक्ति दी
        प्रस्तुत शोधालेख में इक्कीसवीं सदी के राजस्थान के  हिंदी महिला कहानी लेखन में अभिव्यक्त स्त्री जीवन को उकेरने का प्रयास किया गया है। इस शोधालेख के लेखन का ध्येय इक्कीसवीं सदी के राजस्थान के  हिंदी महिला कहानी लेखन में अभिव्यक्त स्त्री जीवन की पड़ताल करना है जिसमें वे समाज की वर्जनाओं, दकियानूसी विचारधाराओं एवं प्रथाओं  को त्यागते हुए आगे बढ़ी हैं। 
        जिस प्रदेश में इक्कीसवीं सदीं में भी महिला जीवन की स्थिति खास अच्छी नहीं कही जा सकती है वहां आजादी से पूर्व तो महिला शिक्षा की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। राजस्थान के हिंदी महिला कहानी लेखन का आरंभ थोड़ा धुंधला है। राजस्थान की प्रमुख हिंदी महिला कहानीकारों में आदर्श मदान, अजरानूर, मनमोहिनी, कमला गोकलानी, कांति वर्मा, कुसुमांजलि शर्मा, मंजुला गुप्ता, पुष्पा रघु, ज़ेबा रशीद, सावित्री रांका, कमल कपूर, मनीषा कुलश्रेष्ठ, रजनी मोरवाल, दीप्ति कुलश्रेष्ठ, सुखदा कछवाह, विद्या पालीवाल, कुसुम शर्मा, कमलेश शर्मा, कमलेश माथुर, मोनिका मिश्रा, करुणा श्री, क्षमा चतुर्वेदी, रजनी मोरवाल आदि हैं।
        इक्कीसवीं सदी की महिला कहानीकारों ने अपनी कहानियों में स्त्री से जुड़े सरोकारों को बखूबी उठाया है। इस युग की स्त्रियाँ शोषण क शिकार तो होती हैं परंतु वे स्वावलंबी बनकर अपना जीवन यापन करने लग जाती हैं। इक्कीसवीं सदी की कहानियां नारीमन की थाह लेने वाली कहानियां हैं। इस काल की कहानियां रूढ़िग्रस्त समाज की सोच से ऊपर उठने की चाह रखने वाली आज की नारी की है। पारंपरिक रीति-रिवाज एवं सांस्कृतिक परंपराओं के प्रति नयी पीढ़ी में नकारात्मकता का भाव उत्पन्न हो रहा है। इस काल की लेखिकाओं ने आज की नारी के अन्तर्मन में होने वाले द्वन्द्व को भली-भाँति समझकर उसे अपनी कहानियों में उकेरा है। 'कुछ तो बाकी है' संग्रह की कहानी 'मोगरा महकता रहा' कहानी में लेखिका रजनी मोरवाल ने स्त्री के पग-पग पर होने वाले अत्याचारों का मार्मिक चित्रण किया है। समाज की दकियानूसी सोच के कारण वह कभी भी मन का नहीं कर पाती ही और एक दिन उसे इन्ही रुढियों की भेंट चढ़ जाना पड़ता है। कहानी का शीर्षक भी इसी ओर संकेत करता है कि जिस प्रकार मोगरा महकता रहता और लोग उसकी खुशबू से सराबोर होते रहते हैं, ठीक उसी प्रकार स्त्री भी उसी मोगरे के समान है जो समयानुसार महकती तो है परन्तु हमारी पुरुषवादी सोच कहीं न कहीं उस स्त्री रूपी मोगरे की खुशबु का आंनद न लेकर उसे प्रताड़ित करते रहते हैं। ऐसे ही स्त्री मन के द्वन्द्व को मनीषा कुलश्रेष्ठ ने अपने कहानी-संग्रह कठपुतलियाँद्वारा बखूबी दर्शाते हुए बताया है कि हमारे समाज में एक स्त्री की स्थिति कहीं न कहीं कठपुतलियों के समान ही है, जिसकी डोर समाज, परिवार के लोगों  के हाथों ने थाम रखी है। तेरह वर्ष की सुगना का विवाह तीस वर्ष के अपाहिज विधुर दो बच्चों के पिता रामकिशन से हो जाता है। इससे पहले सुगना की शादी की बात दसवीं फेल जोगिन्दर से चलती है लेकिन लेन-देन की बात पर माँ रिश्ता तोड़ देती है और रामकिशन से उसका विवाह हो जाता है। पंद्रह की उम्र तक घर की पूरी जिम्मेदारी संभाल लेती है लेकिन बीच-बीच में उसे लगता है जैसे कि वह कठपुतली बन गई है ‘‘वह भी वैसे ही एक बावली कठपुतली है... जो डोरों से मन को विलग कर नया खेल रचती है।  कुछ मौलिक..... कुछ अलग जो जीवन को विस्तार कर दे... जिसमें उसकी अलग भूमिका हो, इन्तजार करती बीवी, बच्चे पालती माँ से एकदम अलग। अपनी देहगन्ध से बोराती, अपने मन में संसर्ग का साथी चुनती एक आदिम औरत की-सी भूमिका। वह इन अनचाहे रिश्तों के डोरों से उलझकर थक गयी है।" यहाँ स्त्री स्वतंत्र होना चाहती है समाज से, समाज के लोगों  की कुंठित हो रही सोच से। इसके लिए वह बगावत करने से भी नहीं डरती है। लेकिन एक दिन खण्डहरों में पुराना मंगेतर जोगिन्दर उससे मिलने आ जाता है धीरे-धीरे उससे मिलने का यह सिलसिला रोज चलने लगा। उसकी बलिष्ठ बाँहों में स्त्री की सार्थकता ढूँढती सुगना बहुत आगे निकल जाती है, बात उसके गर्भ ठहरने पर पंचायत तक चली जाती है।  लेकिन रामकिशन पति धर्म निभाते हुए उसका साथ निभाता है उसकी यह सोच पुरूषत्व के दम्भ से बाहर निकलते पतिधर्म को निभाते पुरूष की सोच दर्शाती है। 
        सुखदा कछवाह रचित कहानी आखिर कब तकमें लेखिका ने समाज के तथाकथित पुरुष वर्ग द्वारा प्रताड़ित और शोषित स्त्री को चित्रित किया है। आत्मकथात्मक शैली में लिखी इस कहानी में लेखिका ने पुरुष वर्ग के प्रति विभिन्न पौराणिक आख्यानों का उदाहरण देते हुए आक्रोश प्रकट किया है।  लेखिका ने समिधानामक अपनी सखी को कहानी का नायकत्व प्रदान करते हुए शोषित स्त्री के रुप में प्रस्तुत किया है।  लेकिन अपने साथी को 'हर की पौड़ी' में देख कर पुकारती है तो वह उसे देख कर भी अनदेखा कर देती है। समिधा कुछ दिनों बाद लेखिका को एक पत्र लिखती है और अपने पर हुए  शोषण को पत्र में बयान करती है।  वह अपने पत्र में लिखती है- नारियों के लिए तो सतयुग, त्रेता, द्वापर और आज का युग भी कलयुग ही रहा है सतयुग में सपने की बात सत्य मानकर राजा हरिश्चंद्र ने अपनी पत्नी को काशी में के बाजार में बेच डाला त्रेता में भगवान राम ने सब कुछ जानते हुए भी बिना सीता को बताएं लक्ष्मण के साथ  उसे वन में छुड़वा दिया ।" 2 इसी संदर्भ में वह लिखती है- उन्हें तो मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाना था। .......द्वापर में पांच महारथी पतियों के सामने द्रोपदी का चीर खींचा गया और वह हारे हुए जुआरी देखते रहे ।...... आज कोई माई का लाल जो द्रोपदी की ओर दृष्टि उठा कर देखें तो वह उसे वहीं उधेड़कर धर देगी अग्नि परीक्षा में खरी उतरी सीता एक धोबी के कहने से अपवित्र हो गई निर्दोष अहिल्या पति की पवित्र ठोकर से  शिला बन गई व श्री राम की पवित्र ठोकर से वापस नारी बन गई जैसे जमाने भर की अपवित्रता का ठेका केवल नारी के पास है पुरुषों तो जन्मजात पवित्र है।''3 नारी की स्थिति को विभिन्न रुपों में स्थापित करते हुए वह लिखती है- जहाँ नारी  की पूजा होती है वहाँ देवता वास करते हैं भारतीय शत प्रतिशत सत्य है।  यहाँ मातृ शक्ति की पूजा होती है बेटा माँ के चरण में वंदना करता है, बहन के सिर पर अभय का हाथ रखता है और पुत्री तो ही कलेजे का टुकड़ा फिर क्या कारण है कि पत्नी बनते ही नारी का स्थान तीर्थ से पैरों में हो जाता है।" 4 इस प्रकार लेखिका ने अपना आक्रोश को विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से प्रकट किया है। लेखिका का मानना है कि स्त्री पर हर युग में अत्याचार हुए हैं और ये अत्याचार करने वालों कि फेहरिश्त में मर्यादा पुरुषोतम राम और धर्मराज युधिष्ठिर भी शामिल हैं। लेखिका का दुःख है कि स्त्री को हर युग में अपमानित किया गया, उसका मान मर्दन किया, उसे सदैव ही दोयम दर्जा दिया गया। लेखिका को इस बात की संतुष्टि है कि आज जमाना बदल गया है अब कोई द्रोपदी या सीता पुरुष का अत्याचार सहन नहीं करती है अपितु पुरजोर शब्दों में उसका विरोध करती है। यही कारण है कि आज बदली हुयी परिस्तिथियों में नारी उन्मुक्त आकाश विहारी हो गयी है।
        एक अत्याचारी सास का चित्रण प्रस्तुत करती है आलोच्य कहानी एक तराजू के दो बट्टे। जिस प्रकार एक तराजू में दो बांट होते हैं तो तराजू किसी के भी साथ अन्याय नहीं करता है।  उसके लिए दोनों ही बांटों का समान महत्त्व है। ठीक उसी प्रकार व्यक्ति के जीवन में भी सबका समान महत्त्व होना चाहिए चाहे वह बेटी हो या बहु। आलोच्य कहानी में लेखिका ने एक सास का बहू और बेटी के साथ किए गए दोगले व्यवहार का चित्रण है। जब अपनी बेटी के साथ कोई दूसरा व्यक्ति बुरा व्यव्हार करता है तो, हमें वह खटकता है परन्तु बहु, जो किसी की बेटी भी है उसके साथ बुरा व्यवहार करते समय हमें बुरा क्यों नहीं लगता है ? लेखिका ने एक अनाथ स्त्री को बहू के रूप में शोषित होते हुए सास की संकीर्ण मानसिकता को दिखाया है। "अरे ये भूखे घर की लाई ही क्या थी जो मेरी बेटी को देती। और इसके साथ ही हो गया बहु पुराण, जिसमें उसकी सात पीढियां भी शामिल थीं।"5  कहानी के अंत में सभी लोगों द्वारा सास को घर का काम सौंप कर सिनेमा देखने चले जाना, सास को एक सबक है। लेखिका ने बरसात की तस्वीर मानसिकता को उजागर करते हुए अपने बहु और बेटी को एक समान दर्जा देने की नसीहत दी है।  साथ ही बेटी को बहू का सही रूप में फर्ज अदा करने को कहा है। लेखिका ने बताया है कि दहेज़ लोभी सास कभी भी अपनी बहु अंजू को बेटी का दर्जा नहीं देती है। साथ ही बहु के साथ पराए लोगों का सा व्यवहार करती है। सास कभी यह नहीं सोचती कि वह भी कभी बहु थी। परंतु जब उसकी बेटी लीला भी किसी की बहु बनकर जाती है और उसपर अत्याचार होते हैं तो उसे बुरा लगता है। तब उसे महसूस होता है कि अपनी बहु भी किसी की बेटी है। स्त्री, स्त्री की शत्रु बनकर उस पर अत्याचार करती है, आलोच्य कहानी में लेखिका ने समाज की इस हकीकत को भी सामने रखा है।
        गंधर्व गाथा कहानी संग्रह में संकलित कहानी 'खरपतवार' उस अनचाहे भ्रूण को कहा गया है जो मनचले सामंती वर्ग के लोगों की हवस का परिणाम है। लेखिका का मानना है कि अपनी तथाकथित मान-मर्यादा के बचाव हेतु एक क्षण में नष्ट कर दिया जाता है। स्त्री को कुछ सोचे-समझे बिना उस खरपतवार को चाहते हुए भी नष्ट करना पड़ता है। इस प्रकार कहानी अवैध संबंधों से उत्पन नाजायज संतानों की पीड़ा की को अभिव्यक्त करती है। कहानी की नायिका भी एक खरपतवार होते होते बच गयी थीवह एक डॉक्टर की हवस का शिकार हुई नर्स की नाजायज संतान है।  लेखिका ने लिखा है "लड़की उठकर कपड़े पहनते हुए गाल पर लगी हुई खरोंच  सहलाती रही। वह अपने जुते पहनकर  तेजी से दरवाजे से निकल गया। लड़की ने देखा वह टेबल पर रुपये छोड़ गया था।  हाथ में लेकर वह उन्हें उदासीनता से देखती रही।"6 लेखिका ने भ्रूण हत्या पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि दुनिया देखने से पहले ही उसे मार दिया जाया है। क्षणिक सुख के परिणाम स्वरुप उत्पन्न ये संताने खरपतवार नहीं है तो और क्या है?  
        गंधर्व गाथाकहानी संग्रह में संकलित कुरजांकहानी राजस्थान के मरुस्थलीय भाग में अशिक्षित समाज में सामंतीय अत्याचार के फलस्वरुप पनपी विभिन्न सामाजिक कुरीतियों पर करारा व्यंग करती है। कुरजाकहानी में डाकन प्रथा, बाल विवाह व धार्मिक अंधविश्वास पर लेखिका ने करारा व्यंग किया है। कहानी जमींदार वर्ग की तानाशाही वह पुलिस प्रशासन की अत्याचारी नीति के सामने पंगु होती कानून व्यवस्था को भी चित्रित कराती है। "अकेली औरत गोश्त की भूनी हुई नमकीन बोटी से ज्यादा क्या होती है ! मेरे घर वालों को तो जबरदस्ती स्मगलर जासूस करार दिया गया, जबकि मरा तो वो यहीं रावले की बेगारी में। दरोगा को रपट लिखने को कहा तो उल्टा वह मुझे ही तंग करने लगा।" 7  
        दीप्ति कुलक्षेष्ट द्वारा रचित परिणतिकहानी संग्रह में संकलित कहानी परिणति एकाकीपन के खतरों को इंगित करती है। आधुनिकता का सबसे बड़ा खतरा है एकाकीपन। संयुक्त परिवार प्रथा के टूटने के बाद एकल परिवारों में संत्रास बढ़ गया है। परस्पर प्रतिस्पर्धा के कारण एवं पूंजीवादी व्यस्था के दुष्परिणाम स्वरुप व्यक्ति व्यक्ति के मध्य गलाकाट प्रतिस्पर्धा बढ़ गयी है। आधुनिकता का एक ओर परिणाम सामने आया है वह गर्ल फ्रेंड, बॉय फ्रेंड। जिस भी युवा के गर्ल फ्रेंड, बॉय फ्रेंड नहीं है उसे हिकारत की दृष्टि से देखा जाता है। दिखावे की प्रवृति के परिणाम स्वरुप व्यक्ति के चरित्र में बदलाव आया है। प्रस्तुत कहानी की नायिका नीलू एक हॉस्टल में रहती है। वह एक अनाथ युवती है। हॉस्टल में रहने वाली अन्य युवतियों की तरह वह भी जीवन जीना चाहती है परंतु आर्थिक अभावों के कारण वह ऐसा नहीं कर पाती है।  अन्य लड़कियों के बॉय फ्रेंड हैं परंतु उसका कोई भी फ्रेंड नहीं है। जिसके कारण वह घुट घुट कर जीने लगाती है। अन्य युवतियों की तरह दिखने की चाह में एक दिन वह खुद ही अपने नाम एक लिफ़ाफ़ पोस्ट कर देती है जिससे अन्य लड़कियों को ये आभास हो जाए कि उसका भी कोई बॉय फ्रेंड है।  नीले लिफाफे में आये पत्र को लेकर हास्टल में खलबली मची जाती है। लड़कियां नीलू को चिढ़ाने लगी। नीलू उसकी यादों में खो गई। नीलू को अपने माता पिता याद आ गए कि किस प्रकार वे दोनों लड़ा करते थे और एकदिन उनकी रोजाना की तकरार तलाक में बदल जाती है और उसे अनाथ होना पड़ता है। लेखिका ने यहाँ इस बात की ओर भी संकेत किया है कि माता-पिता के बीच होने वाले झगड़ों का असर बच्चों पर भी पड़ता है। नीलू भी इसका शिकार हुयी थी।
        सावित्री रांका के कहानी संग्रह 'पन्ने ज़िन्दगी के' की कहानी 'एक संघर्ष अपनों से' में स्त्री की वास्तविक  स्थिति का वर्णन हैं।  लेखिका का  मानना है कि स्त्री को दूसरों से नहीं अपितु अपनों से ही संघर्ष करना पड़ता है। सास-ससुर, पति और यहाँ तक पुत्रों से भी स्त्री हर पल संघर्ष करती देखी जा सकती है। प्रस्तुत कहानी माँ-बाप के परस्पर झगड़े के कारण बेटी के स्वभाव में निरंतर परिवर्तन आता जाता है और एक दिन वह अपने बाप को ही कठघरे में खडा कर देती है परन्तु उसकी माँ बेटी के इस कृत्य का विरोध करती है। जिसका मूल कारण है एक परम्परित वातावरण में जीवित रहना। वह अपराध सहनकर भी अपने पति के प्रति विरोध में सहभागी नहीं बनना चाहती और अपनी बेटी के फैसले का विरोध कर पति को बचाती है। तब उसकी बेटी कहती है " मैं सब समझती हूँ माँ! आपने जीवन भर पति की आज्ञा का पालन किया, क्योंकि स्त्री को बचपन से ही आज्ञापालन करना और सहन करना सिखाया जाता है और ये दोनों गुण उसकी साँसों में रच-बस जाते हैं । विद्रोह करने पर उसे कलंकिनी कहा जाता है।"8
        इस प्रकार निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि इक्कीसवीं सदी के राजस्थान के हिन्दी महिला कहानी लेखन में समाज की वास्तविक स्थिति का चित्रण हुआ है। राजस्थानी समाज में नारी की स्थिति एवं पुरुष समाज द्वारा किए जाने वाले शोषण का जीवंत चित्रण इस काल की कहानीकारों ने किया है। वस्तुतः राजस्थानी समाज, परिवेश एवं यहाँ की अपनी समस्याएँ हैं जिन्हें इस काल की कहानीकारों ने अपनी कहानियों में बहुत ही सिद्धत के साथ उठाया है साथ ही अपनी कहानियों में नारी मुक्ति का स्वर भी सशक्त रूप से उठाती हैं।  
  
पाद टिप्पणी:-       
1.      सिद्धार्थ, सुशील, सं. हिन्दी कहानी का युवा परिदृश्य भाग, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 10
2.      कछवाहा, सुखदा, (रूठी रानी, क.सं.) आखिर कब तक, राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर, पृ. 13
3.      कछवाहा, सुखदा, (रूठी रानी, क.सं.) आखिर कब तक, राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर, पृ. 14
4.      कछवाहा, सुखदा, (रूठी रानी, क.सं.) आखिर कब तक, राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर, पृ. 14
5.      कछवाहा, सुखदा, (रूठी रानी, क.सं.) एक तराजू के दो बट्टे, राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर, पृ. 23
6.      कुलश्रेष्ठ, मनीषा, (गंधर्व-गाथा, क.सं.) खरपतवार, सामयिक प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 84
7.      कुलश्रेष्ठ, मनीषा, (गंधर्व-गाथा, क.सं.) कुरजां, सामयिक प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 127
8.      रांका, सावित्री, (पन्ने जिंदगी के, क.सं.) एक संघर्ष अपनों से,रचना प्रकाशन, जयपुर, पृ. 33

2 comments:

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  2. यह लेख पढ़ने से पहले'राजस्थानी हिन्दी महिला लेखिकाओं'के बारे में मेरी जानकारी नगण्य थी, इस लेख को पढ़कर राजस्थानी हिन्दी महिला लेखिकाओं द्वारा रचित साहित्य को पढ़ने और बारीकी से जानने की इच्छा जागृत हुई है। इसके लिए सर आपका बहुत बहुत आभार।

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