जयशंकर प्रसाद और मोहन राकेश के नाटकों के
स्त्री पात्रों का तुलनात्मक अध्ययन
(ध्रुवस्वामिनी और आधे-अधूरे नाटकों के विशेष
सन्दर्भ में)
वर्तमान युग तुलनात्मक साहित्य का युग है तथा
इस साहित्य का फ़लक बहुत ही विस्तृत है । इसमे एक ही भाषा के दो रचनाकारों, दो
रचनाओं या किंही दो भिन्न भाषाओँ, दो भिन्न भाषाओँ के रचनाकारों, दो भिन्न भाषाओँ
की दो कृतियों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है । आजकल तुलनात्मक साहित्य के
अध्ययन के संदर्भ में प्रमुख रूप से दो दृष्टिकोण प्रचलित हैं । एक परंपरागत
दृष्टिकोण है, जिसमें दो भाषाओं में लिखे
गए साहित्य की परस्पर तुलना की जाती है । बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में तुलनात्मक
साहित्य के अध्ययन को लेकर एक दूसरे दृष्टिकोण को भी स्वीकारा गया । इसके अन्तर्गत
एक ही भाषा के साहित्य में सांस्कृतिक अंतर को केन्द्र में रखकर साहित्य का
तुलनात्मक अध्ययन किया जा रहा है । वर्तमान दौर में साहित्य दो प्रमुख धाराओं में
विभक्त है एक मुख्य धारा का साहित्य और दूसरा हाशिए का साहित्य ।
हाशिए के साहित्य ने ही आधुनिक विमर्शों को जन्म दिया है ।
इन विमर्शों
में दलित विमर्श, नारी विमर्श, आदिवासी विमर्श,
विकलांग विमर्श तथा किसान विमर्श अपनी विशिष्ट पृष्ठभूमि के साथ मुख्य धारा के
साहित्य से इतर खड़ा है । इस प्रकार मुख्य धारा के साहित्य और इन प्रचलित विमर्शों के साहित्य में भी विशिष्ट अंतर को रेखांकित
करना तुलनात्मक साहित्य के अन्तर्गत ही आता है ।
यहाँ तुलनात्मक साहित्य की इस नई दिशा के अंतर्गत ध्रुवस्वामिनी
और आधे-अधूरे नाटकों के स्त्री पात्रों का तुलनात्मक अध्ययन करने का प्रयास किया गया है ।
‘ध्रुवस्वामिनी’ और ‘अधूरे-अधूरे’ नाटकों के
चयन के पीछे आग्रह यह रहा है कि दोनों ही नाटकों में कथानक, पात्र
और उद्देश्य की दृष्टि से कुछ साम्य दृष्टिगत होता है । दोनों ही नाटकों में पारिवारिक विघटन कथानक के मूल में है । यह
बात अलग है कि ध्रुवस्वामिनी नाटक में परिवार के टूटन का आधार रामगुप्त की
स्वार्थी प्रवृतियाँ और उसका व्यक्तित्वहीन होना है क्योंकि वह एक कायर, नपुंसक और
क्लीव पुरुष है;जो अपनी ही पत्नी को पर पुरुष शकराज की अंकशायनी बनने को भेज देता
है जबकि आधे-अधूरे नाटक में परिवार के टूटन का आधार सावित्री का अत्यधिक
महत्वकांक्षी होना और महेन्द्रनाथ का बेरोजगार होना है । दोनों ही नाटकों में
प्रधान पात्र स्त्री हैं । जहां ध्रुवस्वामिनी नाटक का कथानक इसकी प्रमुख पात्र
ध्रुवस्वामिनी के इर्द-गिर्द घूमता है तो आधे-अधूरे के मूल में सावित्री है । दोनों
ही नाटकों में नायिका अपने पति से दुखी हैं । ध्रुवस्वामिनी का पति राम गुप्त
कायर,नपुंसक और क्लीव है जो अपनी ही पत्नी को दूसरे पुरुष शकराज की अंकशायिनी बनने
को भेज देता है तो आधे-अधूरे में सावित्री का पति महेन्द्रनाथ बेरोजगार है जो
सावित्री की दृष्टि में आधे से भी आधा पुरुष है । दोनों ही नाटकों में प्रेम की
समस्या प्रधान समस्या है ।ध्रुवस्वामिनी चन्द्रगुप्त से प्रेम करती है परंतु विवाह
कायर रामगुप्त के साथ हो जाता है तो वह
चाहकर भी चन्द्रगुप्त का वरण नहीं कर सकती है जबकि आधे-अधूरे में सावित्री पूर्ण
पुरुष की तलाश में ही कभी जुनेजा के साथ तो कभी मनोज के साथ तो कभी सिंघानिया के
साथ तो कभी महेन्द्रनाथ के साथ समय व्यतीत करती है । दोनों ही नाटकों में स्त्री का विद्रोही स्वरुप
सामने आता है । ध्रुवस्वामिनी रामगुप्त का विरोध करती है
तो आधे-अधूरे में सावित्री महेन्द्रनाथ का विरोध करती है,यद्यपि विरोध का स्वरुप
भी है। दोनों ही नाटकों में स्त्री-पुरुष संबधों की चर्चा है साथ ही साथ स्त्री
समस्या को भी दोनों ही नाटक प्रमुखता से उठाते हैं ।
ध्रुवस्वामिनी और आधे-अधूरे दोनों ही नाटकों की
पृष्ठ भूमि कुछ मायनों में अलग-अलग भी है । जहाँ
प्रसाद ने नारी उदात्तता को इस नाटक में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है तो वहीं
राकेश ने आधे-अधूरे में नारी की सबलताओं और दुर्बलताओं को प्रकट किया है । ध्रुवस्वामिनी
नाटक के सभी नारी पात्र उदात्त हैं, गरिमामय
है उनकी चारित्रिक विशेषताएँ श्रेष्ट हैं वे सब किसी न किसी रूप में दूसरों के लिए
परोपकार की भावना से जुड़े हुए हैं । कोमा शकराज से प्रेम करती है और उसी की
प्रवंचना की शिकार होती है परन्तु स्त्री
धर्म के मार्ग का अनुसरण करते हुए वह चन्द्रगुप्त के शिविर में जाती है और अपने
प्रवंचक पति के शव की याचना करती है और उसके साथ सती होना चाहती है । जबकि
आधे-अधूरे नाटक में राकेश ने नारी को आधुनिक संदर्भों में प्रस्तुत करने का प्रयास
किया है । इस नाटके सभी स्त्री पात्र स्व की कोटर में बंध हैं,चाहे वह सावित्री
हो,बिन्नी हो या फिर सबसे छोटी लड़की किन्नी हो । उनमें किसी के भी प्रति सहानुभूति
नहीं है, सभी में मानवीय संवेदनाओं का अभाव है और सभी अपनी आजादी से जीने वाले
पात्र हैं ।
हिंदी साहित्य में जयशंकर प्रसाद और मोहन
राकेश दोनों ही प्रसिद्ध एवं चर्चित नाटककार हैं । जयशंकर प्रसाद ने अपने नाटकों
में ऐतिहासिक स्त्री पात्रों का चित्रण किया है वहीं राकेश ने भी आधे-अधूरे को
छोड़कर अपने अन्य नाटकों में ऐतिहासिक स्त्री पात्रों को स्थान दिया है । प्रसाद की
भारत के अतीत के गौरव पूर्ण इतिहास के प्रति गहरी श्रध्दा थी और वे भारतीय
संस्कृति के उदात्त गुणों के पोषक थे इसी कारण वे नारी के प्रति अत्यधिक सम्मान का
भाव रखते थे, उसे आदरणीया और और श्रध्देय मानते थे। यही कारण है कि उन्होंने अपने
साहित्य में नारी चरित्रों को कहीं भी किसी भी रूप में लांछित, कलुषित नहीं होने दिया।
प्रसाद जब कहीं भी किसी भी तरह से नारी को पीड़ित, शोषित या अपमानित होते देखते हैं
तो उनका मन एक प्रकार के आक्रोश से भर उठता है और वह आक्रोश उनकी रचनाओं में
अभिव्यक्ति पाता है । वहीं मोहन राकेश ने स्त्री के उदात्त गुणों का बखान करते हुए
उसके वास्तविक स्वरुप को भी अपने नाटकों में उठाया है । आलोचकों के अनुसार प्रसाद
का मन केवल इतिहास और स्त्री को महिमा मंडित करने में ही रमता रहा अर्थात नारी के
आदर्श रूप की अभिव्यक्ति में ही रमता रहा जबकि राकेश ने नारी की वास्तविक स्थिति, उसकी
दुर्भावनाओं,
उसकी
बुराईयों और उसकी अच्छाईयों को भी समान रूप से पाठकों के सामने लाने का सफल प्रयास
किया । राकेश का मानना था कि आधुनिक स्त्री पूर्णतया पौराणिक पात्र सावित्री नहीं
है,
उसका
मन नाना प्रकारों के विकारों से युक्त है ।
ध्रुवस्वामिनी प्रसाद का सन 1933 में
प्रकाशित सामाजिक समस्या प्रधान नाटक है और यह वह काल था जिसमें स्त्री की सामाजिक स्थिति किसी भी दृष्टि
से सुदृढ़ नहीं थी । इस काल की नारी अपने सम्मान और अधिकारों
से पूर्णतया वंचित थी। समाज में नारी की स्थिति बहुत ही दयनीय थी।
उसे किसी भी प्रकार के अधिकार प्राप्त नहीं थे । समाज में बाल विवाह,अनमेल
विवाह का प्रचलन था। नारी की इच्छा,अनिच्छा की
कोई अहमियत नहीं थी। पिता जिस किसी के साथ भी उसका
विवाह करने के लिए स्वतंत्र था । विधवा विवाह और पुनर्विवाह वर्जित थे परंतु
परिवार पुरुष सत्तात्मक होने के कारण
विधुर विवाह का प्रचलन था । बहु विवाह प्रथा भी कायम थी। संसार नई करवट ले रहा था
। परंतु समाज अभी भी दकियानूसी विचारों से ग्रसित था । यद्यपि देश में स्वतंत्रता
का बिगुल बहुत पहले बज चुका था । कई आंदोलन भी हो चुके थे। समाज सेवी नारी की
दयनीय स्थिति को देख कर चिंतित थे। अनेक समाज सुधारकों ने पाश्चात्य देशों का
अनुसरण कर स्त्री को पुनर्विवाह और तलाक के अधिकार को मान्यता दी। परंतु अनेक
दकियानूसी विचारधारा के लोगों ने धर्म की आड़ लेकर इसका विरोध किया कहा कि तलाक और
पुनर्विवाह एक घोर धार्मिक अपराध है है क्योंकि भारतीय संस्कृति में तो एक जन्म का
नहीं अपितु सात जन्म का साथ माना जाता है और यह बंधन कैसे छूटे ? जो भी स्त्री इस
बंधन को छोड़ने की सोचती है वह परिवार और समाज के लिए
नर्क का द्वार खोलती है। धर्म के ठेकेदारों द्वारा इस प्रकार से तीव्र विरोध करने
के कारण सामाजिक चिंतकों को गहरा अघात लगा परंतु प्रसाद ने इतिहास और धर्म शास्त्र
के भूले-बिसरे पृष्ठों की छान-बीन कर प्रमाणित किया कि विशेष परिस्थितियों में
नारी को भी पुनर्विवाह का अधिकार है । जिसमें उन्होंने नारी के अधिकारों, पुरुष के
चंगुल से मुक्ति, विवाह विच्छेद या तलाक के अधिकार, प्रेम-विवाह अन –इच्छित विवाह,
धर्म, समाज, परिवार, राजनीति में नारी के महत्त्व और अधिकार की बात उठायी है।
प्रस्तुत नाटक में प्रसाद ने यह जानने का प्रयास किया है कि शास्त्र,राजसत्ता,समाज
एवं प्रथाओं में नारी का स्थान क्या है ? उसकी हैसियत क्या है? उसके बंधन किस
प्रकार के हैं ? इन्ही प्रश्नों को खोजने की चेष्टा की है प्रसाद ने। इस नाटक में
प्रसाद ने पुरुष और स्त्री के भौतिक व्यक्तित्व की एक वस्तुपरक तुलना की है । इस
प्रकार प्रसाद ने नारी मुक्ति को जीवन मुक्ति से जोड़ा है। नाटककार का मानना है कि
पुरुष यदि गौरव से नष्ट और आचरण से पतित है तो स्त्री के लिए उसका साथ करने के
योग्य नहीं है। यह केवल विवाह के संबंध में ही नहीं,संपूर्ण
जीवन व्यवस्था के बारे में भी एक महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि है। विवाह एक तकनीकी बंधन
नहीं, एक जीवन व्यवस्था है ,जिसे
धर्म के अनुसार चलना चाहिए। इस प्रकार यह नाटक नारी मुक्ति का नाटक है,स्त्री
के अधिकारों का घोषणा-पत्र है। वहीं दूसरी ओर मोहन राकेश ने ‘आधे- अधूरे’ नाटक में
सावित्री के चरित्र को आधुनिक परिवेश में चित्रित कर समाज में उसकी वास्तविक
स्थिति का चित्रण किया है। प्रस्तुत नाटक में राकेश ने स्त्री-पुरुष के बीच के
लगाव व तनाव, पारिवारिक विघटन, मानवीय संतोष के अधूरेपन और व्यक्तियों की विभिन्नता
के बावजूद मानवीय अनुभव की समानता को उद्घाटित किया है या यह कहा जा सकता है कि आधे-अधूरे
राकेश का एक यथार्थवादी समस्यापरक नाटक है जिसमें शहरी माध्यमवर्गीय परिवार की
विसंगतियों, आर्थिक दबाओं,
पारिवारिक
तनावों, सामाजिक रिश्तों के
खोखलेपन एवं व्यक्ति के अधूरेपन की समस्या को यथार्थ के धरातल पर प्रस्तुत किया गया
है ।
प्रसाद के ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक में स्वयं
ध्रुवस्वामिनी, मंदाकिनी और कोमा प्रमुख स्त्री पात्र है जबकि राकेश के ‘आधे-अधूरे’
नाटक में सावित्री,बिन्नी और किन्नी प्रमुख स्त्री पात्र हैं। प्रसाद ने ध्रुवस्वामिनी,
मंदाकिनी और कोमा को उदात्त स्त्री चरित्रों के रूप में प्रस्तुत किया है जहाँ ध्रुवस्वामिनी अपने राष्ट्र,धर्म और प्रेम की
रक्षा कर, कोमा अपने प्रेम की उदात्तता का परिचय देकर और मंदाकिनी अपने स्त्री
धर्म को निभाते हुए कर्तव्य पथ का अनुसरण कर नाटक के अमर पात्रों की अग्रणी पंक्ति
में आ जाती हैं ।
जयशंकर प्रसाद ने ध्रुवस्वामिनी को एक
शोषित और पीड़ित नारी के प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत किया है । राज परिवार में
जन्म लेने के उपरांत भी उसे किसी से भी स्नेह, प्यार
और सम्मान प्राप्त नहीं होता है। अपितु दो-दो बार, प्रथम बार पिता
द्वारा तो दूसरी बार पति द्वारा; उसे उपहार की वस्तु बनाया जाता है । उसे अपने ही
घर में स्नेह- वंचिता, परित्यक्ता
और बंदी का-सा जीवन व्यतीत करने को बाध्य होना पड़ता है । रामगुप्त पति होकर भी
अपनी शंकालु प्रवृति के कारण उसे पहरे में रखता है और पहरेदार भी गूंगे-बहरे ।
‘आधे –अधूरे’ नाटक की धुरी
पात्र है – सावित्री। सावित्री
महेन्द्रनाथ की पत्नी है परन्तु वह उसे आधा-अधूरा समझती है और पूर्ण पुरुष की चाह
में परपुरुषों के पीछे भागती रहती है अर्थात काल्पनिक पूरेपन की तलाश में वह भटकती
रहती है। मोहन राकेश ने सावित्री का किरदार एक महत्वाकांक्षी औरत को केंद्र में रख
कर रचा है। सावित्री की चाह उस हर एक
वस्तु को पाने की है जो संसार में उसे दिखाई दे जाती है इसी कारण वह धन की प्यासी
बनकर हर एक व्यक्ति,उसके पद और प्रतिष्ठा के पीछे भागती रहती है । राकेश
के आधे-अधूरे की सावित्री का चरित्र ध्रुवस्वामिनी के चरित्र से सर्वथा भिन्न है। जहाँ
ध्रुवस्वामिनी स्नेहसिक्त, कोमल हृदया,त्यागी,करुणा, समर्पण और क्षमा की देवी है
वहीं सावित्री में उक्त गुणों का सर्वथा अभाव है। सावित्री नौकरीपेशा और एक मात्र
घर चलाने वाली एवं महेन्द्रनाथ के घर घुसरा होने के कारण घर की सर्वेसर्वा है उसकी
आज्ञा के बिना घर में पत्ता तक नहीं हिलता उसका पति महेन्द्रनाथ दब्बू किस्म का है
। वह सावित्री के सामने बोल भी नहीं पाता है ,यहाँ
तक कि उसके सामने ही वह पर पुरुषों के साथ घूमने निकल जाती है और वह बेचारा देखता
रहता है ।
ध्रुवस्वामिनी और सावित्री
दोनों ही वैवाहिक जीव न से असंतुष्ट है । यद्यपि दोनों की असंतुष्टि के आधार
अलग-अलग हैं । ध्रुवस्वामिनी अनमेल विवाह तथा उसके बाद की परिस्थितियों के कारण
असंतुष्ट है जबकि सावित्री चुनाव की समस्या के कारण असंतुष्ट है ।अत: एक शोषण के
कारण तो दूसरी अतिशय स्वछंदता के कारण असंतुष्ट है। ध्रुवस्वामिनी का पति कायर है,
नपुंसक
है, क्लीव है जो अपनी ही पत्नी
को पर पुरुष की अंकशायनी बनाने को तत्पर हो जाता है तो सावित्री का पति घर घुसरा
है, पराश्रयी है, निक्कमा है,
बेरोजगार
है, विवेकहीन है जो हर हाल में
घर में ही घुसा रहता है और सावित्री के अनुसार वह दूसरों पर ही अवलंबित रहता है। ध्रुवस्वामिनी
रामगुप्त से हुए विवाह से पूर्व ही चन्द्रगुप्त से प्रेम करती है,
उसका
यह प्रेम भी परिस्थितियों की ही देन है । वह उसी के साथ वैवाहिक जीवन जीना चाहती
है जबकि सावित्री
ऐश्वर्य और धन की प्यासी है। वह सोसायटी में अपना रुतबा जमाना चाहती है। इसीलिए
अपने ऑफिस बोस को बार-बार घर बुलाना चाहती
है। आरम्भ में जब महेन्द्रनाथ के पास बिजनेस था, अपार
पैसा था तो वह उसके पीछे दौड़ी चली आयी और आज जब उसका बिजनेस ठप्प हो गया और वह
बेकार हो गया तो उसकी नज़रों में आधा-अधूरा पुरुष रह गया । सावित्री के चरित्र को
इंगित करते हुए सिद्धनाथ कुमार ने इंगित किया है “सावित्री
की असन्तोषजनित विक्षुब्धता ही उसकी भटकन की सहज परिणति बनती है । सावित्री की
ट्रेजेडी एक साथ ही अनेक भौतिक उपलब्धियों के प्रयत्न में हारने वाले व्यक्ति की
ट्रेजेडी है।“1
इस प्रकार सावित्री की दृष्टि में व्यक्ति की सम्पति महत्वपूर्ण है न कि व्यक्ति
और प्रेम । यही कारण है कि वह महेन्द्रनाथ की पूंजी के प्रेम के कारण उससे विवाह
तो करती है परन्तु आज जब महेन्द्रनाथ बेरोजगार है तो सावित्री अन्य पुरुषों से
प्रेम करने लगती है । सावित्री की मूल समस्या है एक साथ बहुत कुछ पाने की । “
तुम्हारे लिए जीने का मतलब रहा है-कितना कुछ एक साथ होकर, कितना कुछ एक
साथ पाकर और कितना कुछ ओढ़कर जीना । वह उतना कुछ कभी तुम्हे किसी एक जगह न मिल पाता
, इसलिए जिस किसी के साथ भी जिंदगी शुरू करती,तुम हमेशा इतनी ही खाली,इतनी ही
बेचैन बनी रहती ।“2 वह एक साथ पद,
प्रतिष्ठा
सब कुछ पाना चाहती है जबकि ध्रुवस्वामिनी की इच्छा अपना प्रेम पाने की है । यही
मूल अंतर है ध्रुवस्वामिनी और सावित्री में । ध्रुवस्वामिनी घर चाहती है तो
सावित्री स्वर्ण पिंजर ।
ध्रुवस्वामिनी का चरित्र परंपरागत
भारतीय नारी और आधुनिक नारी का सुंदर समन्वय है । नाटक के आरम्भ में वह अनिश्चित
परिस्थितियों को भी अपनी नियति मानकर उसे स्वीकार करती रहती है और चन्द्रगुप्त के
प्रेम को ह्रदय में छिपाकर परिस्थितियों के कारण प्राप्त पति रामगुप्त के साथ भी
निर्वाह करने को तैयार हो जाती है । वह परंपरागत भारतीय नारी के समान अपने पति के
उत्पीड़न को आँखे मूँद कर सहन करती है परन्तु जब रामगुप्त उसे शकराज के पास भेजने को तैयार होता है तो उसका आहत
स्वाभिमान विद्रोह में परिणित हो जाता है । ध्रुवस्वामिनी परंपरा को तोड़ने वाली
नारी है । वह उस विवाह संस्था का विरोध करती है जो कायर, क्लीव, नपुंसक पति का साथ दे । इसीलिए वह कहती है “ मैं उपहार
में देने की वस्तु शीतलमणि नहीं हूँ । मुझमें भी रक्त की तरल लालिमा है ।
मेरा ह्रदय उष्ण है और उसमें आत्म सम्मान की ज्योति है। उसकी रक्षा मैं ही करुँगी।“3
जबकि सावित्री की समस्या ध्रुवस्वामिनी के जैसी नहीं है उसका पति महेंद्रनाथ कायर,क्लीव और
नपुंसक नहीं है अपितु वह अपनी पत्नी से अत्यधिक प्रेम करता है । इसी बात को इंगित
करते हुए जुनेजा कहता है “फिर भी कहता हूँ कि वह इसे बहुत प्यार करता है ।“4
ध्रुवस्वामिनी का व्यक्तित्व स्थिर है
जबकि सावित्री का व्यक्तित्व अस्थिर है। सावित्री अपनी इस अस्थिरता के कारण ही किसी
भी व्यक्ति के प्रति पूर्णतया समर्पित नहीं हो पाती है और नहीं किसी को कर पाती है
अर्थात् न किसी को अपना बना पाती है और न किसी की हो पाती है । एक काल्पनिक पूर्ण
पुरुष की खोज में वह प्रयोग करती चली जाती है। अपनी असीमित आवश्यकताओं की पूर्ति
हेतु अलग-अलग पुरुषों यथा जगमोहन, जुनेजा, मनोज और सिंघानिया को अपना माध्यम बनाती
है। ये सभी पुरुष अपनी वासनाओं की तृप्ति कर उसे उसी हाल में छोड़ देते हैं । मनोज
तो उसकी पुत्री को ही ले भागता है। ये स्त्री अपना सर्वस्व लुटाकर भी अय्याशी की
जिंदगी जीना चाहती है। यही कारण है कि नाटक के समापन के समय वह सदा-सदा के लिए
महेन्द्रनाथ का घर छोड़कर जगमोहन के साथ रहना चाहती है जबकि जगमोहन तो उसे मात्र उपभोग की वस्तु समझता है ।
निर्देशक के वक्तव्य में ओम शिवपुरी ने इस नाटक की भूमिका में लिखा है “यह आलेख
एक स्तर पर स्त्री-पुरुष के बीच के लगाव और तनाव का दस्तावेज है। महेन्द्रनाथ
सावित्री से बहुत प्रेम करता है। सावित्री भी उसे चाहती रही होगी, लेकिन ब्याह के
बाद महेन्द्रनाथ को बहुत निकट से जानने पर उससे वितृष्णा होने लगी, क्योंकि
जीवन से सावित्री की अपेक्षाएं बहुत कटु हो गई है। एक ओर घर को चलाने का असह्य बोझ
है तो दूसरी ओर जिंदगी में कुछ भी हासिल न कर पाने की तीखी कचोट। अपने बच्चों के
बरताव से अत्यंत तिक्त हुई सावित्री बची-खुची जिंदगी को ही एक पूरे, संपूर्ण
पुरुष के साथ बिताने की आकांक्षा रखती है। पर यह आकांक्षा पूरी नहीं हो पाती, क्योंकि
संपूर्णता की तलाश ही शायद वाज़िब नहीं। ।“5 यहाँ भी सावित्री के चरित्र और ध्रुवस्वामिनी के
चरित्र में अंतर देखा जा सकता है ।
ध्रुवस्वामिनी अपने प्रेम के पीछे भागती है और एक अवस्था में तो वह अपने क्लीव पति
को भी स्वीकार करने को तैयार हो जाती है । वह अत्यंत ही दीन भाव से राजा से प्रार्थना करती है “ राजा आज
में शरण की प्रार्थनी हूँ । मैं स्वीकार करती हूँ कि आज तक मैं तुम्हारे विलास की
सहचरी नहीं हुई,किंतु वह मेरा अहंकार चूर्ण हो गया । मैं तुम्हारी होकर रहूंगी ।“6
ध्रुवस्वामिनी परोपकारी है,वह दूसरों की पीड़ा को समझती है। वह स्वयं कष्ट
झेलकर दूसरों को सुखी देखना चाहती है ।
यही कारण है कि जब शकराज के पास उसे भेजा जाता है तो चन्द्रगुप्त भी साथ जाना
चाहता है परन्तु वह उसका विरोध करती है। साथ ही उसमें स्त्रियोचित गुण भी हैं ।
इन्ही गुणों के कारण वह कोमा की मदद करती है। जबकि सावित्री एक सुविधाभोगी नारी है अपने
बलबूते पर तो वह उन सुविधाओं का उपभोग करने में असमर्थ है; क्योंकि परिवार की
आर्थिक स्थिति सुदृढ़ नहीं हैं, फिर इन सुविधाओं का उपभोग करने के लिए उसे अन्य
पुरुषों की ओर आकर्षित होना पड़ता है और उनकी अंकशायनी बनना पड़ता है । महेन्द्रनाथ
बेरोजगार है और सावित्री की दृष्टि में एक निठल्ला, बेकार और
पराधीन पुरुष है। जिसकी अपनी कोई अहमियत या माद्दा नहीं है। इसीलिए सावित्री इसकी
खोज अन्य स्थानों पर, अन्य पुरुषों (जुनेजा,मनोज, सिंघानिया, आदि) में
करती रहती है। महेन्द्रनाथ तो उसकी दृष्टि में पूर्णतया अधूरा पुरुष है। वह अधूरे
पुरुष को स्वीकार नहीं कर पाती। यही तनाव, संशय और
कुंठा इन दोनों की नियति बन गई है । महेन्द्रनाथ भी स्वयं को ‘बार-बार
घिसने वाला रबर का एक टुकड़ा’ समझता है जिसकी
परिवार के सदस्यों की दृष्टि में कोई अहमियत नहीं है। यही कारण है कि उनके घर
में ‘इतनी गर्द भरी रहती है हर वक्त इस
घर में । पता नहीं कहाँ से चली आती है ।’ वस्तुतः यह ‘गर्द’ और कुछ नहीं
पारिवारिक घुटन, संत्रास, अविश्वास और विचारों की ‘गर्द’ है जो इस परिवार में जम
चुकी है । इस घर में ही अपने अंदर कुछ ऐसी
चीज है जो किसी भी स्थिति में किसी को भी स्वाभाविक नहीं रहने देती है जिसे ‘हवा’
कहा जा सकता है जो सावित्री और महेन्द्रनाथ के बीच गुजरती है तो कभी बिन्नी और मनोज के बीच से गुजरती है ।
ध्रुवस्वामिनी एक सीधी,सरल और निष्कपट नारी है ।
उसके मन में किसी प्रकार की गाँठ नहीं है ।
थोड़ा –सा प्रेम तंतु पाकर वह खड़गधारणी के सामने अपना मन खोल देती है जबकि सावित्री
एक जटिल चरित्र है जिसे समझ पाना न केवल कठिन है अपितु नामुमकिन भी है । उसके भीतर
और बाहर में गहरा असामंजस्य है, और उसके चेहरे भी अनेक हैं । वह परिस्थितियों के
फेर में पड़कर अनदेखे पूर्ण पुरुष की तलाश में भटकती रहती है । हर एक व्यक्ति ने
उसका उपभोग किया और छोड़ दिया । इसीलिए वह कहती है ‘“सब के सब एक से । बिलकुल एक से हैं आप लोग । अलग-अलग मुखौटे,पर
चेहरा ? चेहरा सबका एक ही । ”7
सावित्री भौतिक संसाधनों के ही पीछे लगी
रहती है वह अय्याशी की जिंदगी जीना चाहती है । सावित्री की भटकन देख कर लगता है कि वह व्यक्तियों के
पीछे नही, पैसे और प्रतिष्ठा के पीछे भागती रही । यही कारण है कि वह ऊँचे वेतन वाले, रुतबे वाले और प्रतिष्ठा वाले व्यक्ति के पीछे भागती रहती
है । उसके बेटे ने उसे बहुत सही समझा है ‘‘उसकी किसी ‘बड़ी’ चीज की वजह से । एक
को कि वह इंटेलेक्चुअल बहुत बड़ा है । दूसरे को कि उसकी तनख्वाह पांच हजार है । तीसरे
को कि उसकी तख्ती चीफ़ कमिश्नर की है । जब भी बुलाया है,आदमी को नहीं – उसकी तनखाह
को, नाम को, रुतबे को बुलाया है।“8 इसी कारण अशोक मानता है कि ‘जिनके आने से हम जितने छोटे हैं, उससे और
छोटे हो जाते हैं अपनी नजर में ।’
सावित्री की दृष्टि में व्यक्ति का महत्त्व नहीं अपितु पद और पैसे का महत्त्व है । सावित्री व्यक्ति
की अपेक्षा दुनिया की चमक-दमक-वाली दूसरी बहुत सारी चीजों के पीछे दौडती रही, पर
सारी चीजों का किसी एक ही बिन्दु पर या एक ही व्यक्ति में मिल पाना सम्भव नहीं
होता। जुनेजा उससे कहता है- “वह
उतना कुछ कभी तुम्हें किसी एक जगह नहीं
मिल पाता, इसलिए जिस किसी के साथ भी जिन्दगी शुरू करती, तुम हमेशा इतनी ही खाली,
इतनी ही बेचेन बनी रहती।“9 परन्तु यह भी एक विडंबना ही है कि पूरे आदमी
की खोज में, दूसरे शब्दों में, पूर्णता की खोज में भटकने वाली सावित्री स्वयं
अपूर्ण है, आधी-अधूरी है । सावित्री के घुटनभरे दुखी जीवन का कारण यह भी है कि वह
व्यक्ति से नहीं, बल्कि उससे सम्बद्ध 'वस्तु' से जुडना चाहती है और ये वस्तु है पैसा,रुतबा और नाम ।
सावित्री को चाहिए एक पूर्ण पुरुष । ‘वह एक पूरा आदमी चाहती है अपने लिए एक पूरा
आदमी ।’ उसे ‘लिजलिजा- सा’ और ‘चिपचिपा- सा’ महेन्द्रनाथ जैसा आदमी नहीं चाहिए । मोहन राकेश ने आधे अधूरे नाटक में घर
का आर्थिक बोझ उठा रही सावित्री जैसी भारतीय स्त्री की स्थिति का यथार्थ चित्रण
किया है । वह इतनी टूट चुकी है “मेरे पास बहुत साल नहीं है जीने को । पर जितने हैं, उन्हें मैं इसी तरह निभाते हुए नहीं
काटूंगी । मेरे करने से जो कुछ हो सकता था इस घर का, हो चुका, आज तक । मेरी तरफ से अब अंत है उसका, निश्चित अंत ।”10
ध्रुवस्वामिनी नाटक में ध्रुवस्वामिनी,
मंदाकिनी और कोमा प्रमुख स्त्री पात्र हैं
। ध्रुवस्वामिनी प्रेम को
सर्वस्व मानती है । यद्यपि बाल्यावस्था में उसका वाग्दान शकराज से हो जाता है परन्तु
उसके पिता द्वारा समुद्र गुप्त को दिए गए वचनानुसार उसे समुद्रगुप्त के उतराधिकारी
के साथ विवाह करना है । रामगुप्त ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण राजगद्दी पर बैठता है
परंतु वह नपुंसक,कायर और क्लीव पुरुष है । ध्रुवस्वामिनी चन्द्रगुप्त से प्रेम
करती है ।
बिन्नी अपनी माँ सावित्री का युवा
संस्करण है । उसके चरित्र पर घर-परिवार के मुखिया महेन्द्रनाथ और सावित्री के सद-असद व्यवहार का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है । राकेश ने युवा पीढ़ी का चरित्रांकन मनोवैज्ञानिक
धरातल पर किया है । बिन्नी का परिचय देते हुए पात्र परिचय में लेखक ने कहा है “उम्र
बीस से ऊपर नहीं । भाव में परिस्थितियों से संघर्ष का अवसाद और उतावलापन । कभी -कभी
उम्र से बढ़कर बड़प्पन । साड़ी मां से साधारण । पुरे व्यक्तित्व में बिखराव ।“11
इस प्रकार नाटककार ने मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बिन्नी के चरित्र का जो वर्णन किया है वह सत्य के अत्यधिक
नजदीक है । वास्तव में बिन्नी आंतरिक रूप से घर-परिवार की टूटन-घुटन और कुंठा अपने
साथ लेकर ही मनोज के साथ जाती है।उसने जैसा वातवरण अपने पिता के घर देखा वह उसके
मन मस्तिष्क पर छा गया और चाहते हुए भी वह उससे बाहर निकल नहीं पाती है । वह मनोज
का साथ इसलिए निभा नहीं पाती है कि परिवार का प्रभाव उसके मन और मस्तिष्क पर छाया
रहता है। वह अपने मां – बाप के अस्वाभाविक व्यवहार से सदैव एक तनाव से घिरी रहती
है,वही व्यवहार वह मनोज से करती है। उसे अपना घर चिड़िया घर जैसा लगता है । वह उस
चिड़िया में अवसर पाते ही अपने माँ के प्रेमी के साथ भाग भी जाती है । अपनी माँ सावित्री
जैसी अनचाही स्थितियां ,घुटन और अपने परिवार का तनाव भरे वातावरण में रहने की एक
अमर्यादित विवशता उसके व्यक्तित्व में है । इसी कारण मनोज का उसके प्रति कथन उचित ही प्रतीत
होता है “मैं इस घर से ही अपने अंदर कुछ ऐसी चीज लेकर गई हूँ जो किसी भी स्थिति
में मुझे स्वाभाविक नहीं रहने देती है ।“12 बिन्नी के चरित्र की एक
और बड़ी खूबी है कि वह अपने सुधार के लिए नहीं अपितु अपनी मां सावित्री, भाई अशोक
और छोटी बहिन किन्नी के लिए ज्यादा चिंतित रहती है और स्वयं के बारे में कम सोचती है।
आधे-अधूरे नाटक की सबसे छोटी पात्र है
किन्नी। वह अपनी मां के असफल जीवन की प्रक्रिया एवं प्रतीक बनकर ही नाटक में
प्रस्तुत होती है । वह भी उसी ढांचे में ढलती जा रही जिस ढांचे की उसकी मां
सावित्री और बहिन बिन्नी है। वह आवारा किस्म की लड़की है जो जिद्दी,मुंहफट,वाचाल,स्वकेंद्रित,अनैतिक
कृत्यों में रूचि लेने वाली है । वह अपनी मां की लाडली है और उसके अत्यधिक
लाड-प्यार के कारण ही पूर्णतया बिगड़ जाती है इसीलिए बिन्नी कहती भी है अगर हम इतना बोल जाते तो
राशें खींच ली जाती । वह अबोध होते हुए भी उसका भाव और वस्तुबोध काफी विकसित है । अपनी
माँ और भाई की डाट और मार खा-खा कर ढीठ हो जाती है साथ ही साथ अभद्र, बेपरवाह तथा
विद्रोही बन जाती है। यही कारण है कि उसके स्वर,
हाव-भाव
और चाल तक में विद्रोह की स्पष्ट झलक दिखाई देती है । अभी वह अबोध है मात्र 13 वर्ष की फिर भी स्त्री-पुरुषों
के संबंधों में रूचि लेने लगती है। वह
अपनी सखी सुरेखा के समक्ष दाम्पत्य जीवन में होने वाले सारे क्रिया-कलापों का
चित्रण करती है,भाई अशोक की अश्लील पत्रिका को चुराकर पढ़ती है। वह छोटे बड़े का कोई
लिहाज नहीं रखती है।
ध्रुवस्वामिनी नाटक में मन्दाकिनी भी
सशक्त पात्र के रूप में उभरकर आती है । वह सदैव सत्य का साथ देने वाली नारी है । वह स्त्री की पक्षधर है इसीलिए कहती
है “जिन स्त्रियों को धर्म बंधन में बांध कर, उनकी सम्मति के बिना आप उनका सब
अधिकार छीन लेते हैं, तब क्या धर्म के पास कोई प्रतिकार कोई संरक्षण नहीं छोड़ते
जिससे वे स्त्रियाँ अपनी आपति में अवलंब मांग सकें ? क्या भविष्य के सहयोग की कोरी
कल्पना से उन्हें आप संतुष्ट आज्ञा देकर विश्राम कर लेते हैं ?.................... स्त्रियों के इस बलिदान का भी कोई मूल्य
नहीं । कितनी असहाय दशा है । अपने निर्बल और अवलंब खोजने वाले हाथों से यह पुरुषों
के चरणों को पकड़ती है और वह सदैव ही इनकों तिरस्कार,घृणा और दुर्दशा की भिक्षा से
उपकृत करता है ।“13 पृ.52
मेरे शोध पत्र का विषय यह दिखाना कदापि नहीं है
कि स्त्री को पुरुष की उचित या अनुचित आज्ञा का पालन करना चाहिए और न ही यह दिखाने
का कि पुरुष स्त्री को अपने पाँव की जूती समझे किसी का भी किसी पर कोई अधिकार नहीं
होता है परन्तु प्रकृति और पुरुष को अपने–अपने
क्षेत्रों का, अपने अपने कर्तव्यों का पूर्णतया पालन करना चाहिए। स्त्री और पुरुष
दोनों की अपनी अपनी अलग-अलग सताएं हैं दोनों को एक दूसरे का सम्मान करते हुए अपने
कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ना चाहिए।
अत: निष्कर्ष रूप में यही कहा जा सकता है कि दोनों ही नाटकों के स्त्री पात्र अपनी-अपनी
परिस्थितियों की उपज हैं। ध्रुवस्वामिनी नाटक में ध्रूव देवी अपने कायर, नपुंसक
और क्लीव पति के कारण विद्रोह का रास्ता
तय करती है फिर भी उसमें करुणा,त्याग,परोपकार जैसे गुण विद्यमान है जबकि
आधे-अधूरे कि सावित्री की स्थिति का मूल
कारण उसका महत्वाकांक्षी होना,अय्याश
जीवन, धन के पीछे अंधी दौड़, उसकी
विलासी प्रवृति और नकारापति है । इस प्रकार इन सब परिस्थितियों के कारण ही वह
निरन्तर पुरुषों द्वारा छली जाती रही और अन्तत: उसी अधूरेपन को समेट कर रह जाती है जिससे मुक्त होने के
लिए वह भटकती रही ।
पाद
टिप्पणी
1 कुमार, सिद्धनाथ-
आधे-अधूरे संवेदना और शिल्प,सरोज प्रकाशन,रांची,संस्करण 1987,पृ.सं.65
2 राकेश,मोहन,आधे-अधूरे,
प्रकाशक राधाकृष्ण, दिल्ली,संस्करण 1993, पृष्ठ 91
3 प्रसाद,जयशंकर,
ध्रुवस्वामिनी, प्रकाशक मयूर पेपरबैक्स,नोएड़ा, संस्करण 1998, पृष्ठ 26
4 राकेश,मोहन,आधे-अधूरे,
प्रकाशक राधाकृष्ण, दिल्ली,संस्करण 1993, पृष्ठ 80
5 राकेश,मोहन,आधे-अधूरे,
प्रकाशक राधाकृष्ण, दिल्ली, संस्करण 1993, निर्देशक का वक्तव्य पृष्ठ V
6 प्रसाद,जयशंकर, ध्रुवस्वामिनी,प्रकाशक
मयू रपेपरबैक्स,नोएड़ा,संस्करण1998, पृष्ठ 25
7 राकेश,मोहन,आधे-अधूरे,
प्रकाशक राधाकृष्ण, दिल्ली,संस्करण 1993, पृष्ठ 93
8
राकेश,मोहन,आधे-अधूरे, प्रकाशक राधाकृष्ण, दिल्ली,संस्करण 1993, पृष्ठ 53
9 राकेश,मोहन,आधे-अधूरे, प्रकाशक राधाकृष्ण,
दिल्ली,संस्करण 1993, पृष्ठ 91
10 राकेश,मोहन,आधे-अधूरे,
प्रकाशक राधाकृष्ण, दिल्ली,संस्करण 1993, पृष्ठ 56
11 राकेश,मोहन,आधे-अधूरे, प्रकाशक राधाकृष्ण,
दिल्ली,संस्करण 1993, पृष्ठ निर्देशक का वक्तव्य पृष्ठ IX
12 राकेश,मोहन,आधे-अधूरे, प्रकाशक राधाकृष्ण,
दिल्ली,संस्करण 1993, पृष्ठ 28
13 प्रसाद,जयशंकर,
ध्रुवस्वामिनी, प्रकाशक मयूर पेपरबैक्स,नोएड़ा, संस्करण 1998, पृष्ठ 52
आदरणीय गुरुवर,
ReplyDeleteआपकी मेहनत के कारण हम जैसे छात्रों की राह आसान हो जाती है।आपकी मेहनत बहुत सराहनीय है। इसमें आपके वर्षों के अध्ययन और कठिन मेहनत को साफ़ देखा जा सकता है।