समकालीन महिला कहानी लेखन और युगबोध
रचनाकार युग सापेक्ष होता
है और उसकी रचना को युग की सत्यता की कसौटी माना जाता है। कोई भी रचना युग से
निरपेक्ष होकर नहीं रची जाती। इसी कारण युगबोध को किसी भी रचना की सत्यता और समकालीनता को जोड़ने वाला सेतु माना जाता है। समसामयिक
परिस्थितियों के ज्ञान की अवधारणा को ही युगबोध कहा जाता है अर्थात् समसामयिक
घटनाओं, परिस्थितियों के आधार पर किसी युग का मूल्याङ्कन उस युग का युगबोध है। यहाँ
समसामयिक परिस्थितियों से अभिप्राय उस काल विशेष की राजनीतिक, आर्थिक,
सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक
परिस्थितियों से हैं। किसी भी रचनाकार और युगबोध का सीधा संबंध होता है क्योंकि
रचनाकार युग में जो कुछ भी देखता है, उसे अपनी रचना में अभिव्यक्त करता है। साहित्य अपने समय, इतिहास, समाज, जीवन यथार्थ और राजनीति से कभी
भी विलग नहीं हो सकता है। उसका इन सबसे निकटस्थ अन्तर सम्बन्ध होता है। इसी कारण प्रेमचंद ने साहित्य को ‘जीवन की आलोचना’ कहा है।
समकालीन महिला कहानी लेखन और
युगबोध पर चर्चा करने से पूर्व हमें उन कारणों की पड़ताल करनी चाहिए जिनके कारण समकालीन
कहानियों में ये क्रांतिकारी बदलाव आये और पूरे रचना संसार को जिन्होंने बदल दिया।
जब साहित्य और समाज का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध माना जाता है तो निस्संदेह ये बदलाव
यकायक नहीं आये अपितु बहुत से कारणों ने साहित्य लेखन को प्रभावित किया। “पाठकों,
आलोचकों और संपादकों का मानना है कि हिंदी कहानी में बदलाव दिखने का खास समय जिन
घटनाओं,
दुर्घटनाओं व परिघटनाओं से मिलकर बना है, वे हैं – अयोध्याकाण्ड, भारतीय राजनीति में नए गुणा-भाग,
भूमंडलीकरण, मुक्तपूंजी का उद्दंड हस्तक्षेप, विचार विलोप, विस्थापन, अस्मिताओं का
उभार और सामाजिक न्याय की बलवती इच्छा आदि। अर्थात् दो दशक से कुछ अधिक का पिछला
समय। जाहिर है इस समय ने पूरे रचना संसार को आंदोलित किया।1 साथ ही रचनाकार के लेखन को स्थानीय,
राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दे एवं परिस्थितियां प्रभावित करती हैं क्योंकि
रचनाकार इन सब से व्यक्तिगत रूप से जुड़ा हुआ होता है। यदि मुद्दे अंतरराष्ट्रीय स्तर
के हों तो वो समूचे लेखन को ही प्रभावित करते हैं। दुनियां में जैसे-जैसे उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण पनपने लगा तथा भारतीय परंपरा और संस्कारों का ह्रास
होने लगा वैसे ही मनुष्य में मोहभंग की स्थिति उत्पन्न होने लगी। इस मोहभंग के
कारण समाज व्यवस्था ह्रासोन्मुख होने लगी और मानव मूल्य घटने लगे जिसके परिणाम
स्वरुप संयुक्त परिवार विघटित होकर एकल परिवार में परिवर्तित होने लगे, युवा
चेतनाहीन होकर आतंक और नशे की ओर मुड़ गए, पीढ़ियों में वैचारिक मतभेद उभरने लगा और
रिश्तों में दरार आने लगी और सामाजिक रिश्तों में बदलाव महसूस किया जाने लगा, बढती
अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा के कारण महानगरीय जिंदगी की भयावहता के प्रति आक्रोश पनपने
लगा, मानवीय संवेदनाएं शून्य होने लगी। इतना ही नहीं आर्थिक क्षेत्र में उपभोक्तावादी
संस्कृति को बढ़ावा मिलने लगा जिसके परिणाम स्वरुप हमारी जीवन शैली अर्थकेन्द्रित
होने लगी, तकनीकी के बढ़ते प्रभाव के कारण रोजगार के अवसर कम होने लगे और बेरोजगारी
में अत्यधिक वृद्धि होने लगी, बाजारवाद की संस्कृति को बढ़ावा मिलने लगा जिसके कारण
जीवन मूल्यों का ह्रास होने लगा, 'टार्गेटबेस' जिंदगी के कारण युगीन अस्वस्थ
प्रतिस्पर्धा होने लगी। भ्रष्ट राजनीति के प्रति आमजन में आक्रोश उत्पन्न होने लगा।
उक्त करणों ने ही समकालीन महिला कहानी लेखन को सशक्त आधार प्रदान किए जिसके कारण
उनका साहित्य युगीन संदर्भो को प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करता है।
समकालीन
महिला कहानीकारों की कहानियों का कथ्य विविधता भरा है यथा -सामाजिक, सांस्कृतिक, दायित्व चेतना, वैज्ञानिक बोध, नारी मुक्ति, जनचेतना, शोषितों की पक्षधरता, कुशासन के प्रति विद्रोह, परंपरा और
मूल्यों के पुनर्परीक्षण, अनैतिक संबंध, विलासी जीवन, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार,
पाश्चात्य संस्कृति, ह्रासोन्मुख नैतिक मूल्य, अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य पर अंकुश
लगने की प्रवृति, शैक्षिक अवमूल्यन आदि विषयों को बड़ी ही बेबाकी से उठाया है साथ
ही चरित्रों व घटनाओं के भीतर पैठ कर अनजाने तहखानो में घुसना और गहन रहस्यों को
सलीके से खोलने की कोशिश करना इनकी कहानियों की विशेषता है। इस प्रकार इन
कहानीकारों ने संयमित सामाजिक जीवन को उकेरने का सफल प्रयास किया हैं। इस काल की कहानियाँ समाज की विविधता को समझकर
यथार्थता के साथ जीते हुए भी मूल्य निर्माण की प्रेरणा देती है। साथ ही इन कहानियों में सामयिक परिवर्तनों को भी देखा जा सकता है तलाक
और उससे उपजने वाली समस्याएँ, मानसिक द्वंद्व की शिकार युवा पीढ़ी और उसके परिणाम, नौकरी पेशा औरते और कार्य स्थलों पर होने वाले अत्याचार,
यौन शोषण और अकेले ही पलते बच्चों सबका बेबाक चित्रण इस काल की कहानियों में मिलता
है।
आज के इस भौतिकतावादी युग में पीढ़ी अंतर सहज ही
नज़र आता है। आज की युवा पीढ़ी के लिए माँ -बाप बोझ नज़र आते हैं, उनके प्रति अमानवीय
व्यवहार करते हैं जबकि माता पिता बच्चों की हर आवश्यकता को पूरी कर उनको आगे बढ़ते
हुए देखना चाहते हैं। विवेचित काल की लेखिकाएँ इस पीढ़ी अंतर को पाटकर समरसता से पूर्ण जीवन जीने की राह अपनी लेखनी से
प्रशस्त करती हैं।
समकालीन महिला लेखिकाओं ने भूमण्डलीकरण से उपजी विभिन्न समस्याओं को एक
संतुलित लेखनी से उकेरा है। इनकी कहानियां आज की संकीर्ण पुरुष मानसिकता को स्पष्ट
करती हैं। इनकी कहानियों में मानवीय
सम्बन्धो की पड़ताल देखी जा सकती है। समकालीन महिला कहानीकार व्यक्तिगत या
पारिवारिक समस्याओं को भी अपनी कहानियों में स्थान देती हैं।
समाज में स्त्री-पुरूष संबंधों में आता बदलाव व टूटती मानवीय संवेदनाओं को भी
समकालीन महिला लेखिकाओं ने अपनी कहानियों का विषय बनाया है। महिला कहानीकारों ने
समाज को प्रभावित करने वाले प्रत्येक क्षेत्र को अपनी कहानी की विषय-वस्तु बनाया
है। कोई भी ऐसा विषय अछूता नहीं रहा है जिस पर इन कहानीकारों ने अपनी कलम नहीं
चलायी हो चाहे वो देश और सुरक्षा का विषय हो, दल-बदल राजनीति हो, आर्थिक क्षेत्र
से जुड़े मुद्दे हो या फिर दाम्पत्य के टूटते-बनते रिश्तों के विषय हो, इन सब विषयों
को अपनी कहानियों में लिया है। तत्कालीन परिस्थितियों से असंतुष्ट और क्षुब्ध होकर
समकालीन रचनाकार भी युगीन विसंगतियों और विकृतियों
को रूपायित करने के प्रति सचेत होते गए। जिस प्रकार का वातावरण था उसी के
अनुरूप साहित्य सृजन होने लगा। स्त्रियों ने अपने रचनाकर्म के
द्वारा अपनी 'टीस' और आक्रोश दोनों को सफल अभिव्यक्ति दी।
अत: निष्कर्ष रूप में
कहा जा सकता है कि स्त्री विमर्श के अंतर्गत महिला कथाकारों ने स्व पीड़ा को बेबाक
रूप से अभिव्यक्त किया है। ज़ेबा रशीद, कमल कपूर, जयश्री रॉय, सोनाली सिंह, अल्पना मिश्र, गीता श्री,
वन्दना राग, मनीषा कुलश्रेष्ठ, शिल्पी,
नीलाक्षी सिंह, वन्दना शुक्ल, ज्योति चावला, सुदेश
बत्रा, मैत्रेयी पुष्पा, जैसी लेखिकाओं ने स्व पीड़ा एवं स्त्री समाज की पीड़ा को बेबाक अभिव्यक्ति दी है।
उक्त लेखिकाओं ने समाज के सड़े-गले, मैले-कुचेले अंगों को समाज के सामने लाकर दूर करने का सफल प्रयास किया है।
इन लेखिकाओं के लेखन की खास बात यह है कि समाज में दोयम दर्जे का जीवन जी रही
महिलाओं के शोषण का यथार्थवादी चित्रण किया है जहाँ वे स्वतंत्रता से लेकर
स्वच्छंदता की बात करती हैं और यह बात इतनी साफ़गोई से कि परपुरुषों से रहे अपने
अंतरंग संबंधों के बारे में भी बेहिचक बयान करती हैं।
समकालीन महिला
कहानीकारों की कहानियों में स्त्री-स्वातन्त्र्य की सोच मुखर हुई है। ये समकालीन
कहानियाँ उन स्त्रियों की स्त्री-स्वातंत्र्य का प्रतिनिधित्व कर रही है जो
रूढि़वादी बंधनों व सोच से मुक्ति चाहती है और इस मुक्ति के लिए उसमें छटपटाहट है।
वह समाज के उन दकियानूसी विचारों का पुरजोर विरोध करती है जो उन्हें एक खांचे में
बाँध कर रखती है। अल्पना मिश्र की कहानी ‘मुक्ति प्रसंग‘ की स्त्री पात्र की यह
सोच कि जब से नौकरी में आई हूँ, मेरी सोच बदलनें
लगी है। मैं जीवन से भागना नहीं लड़ना चाहती हूँ। अपने स्त्री होने का देह से अलग
अर्थ तलाशना चाहती हूँ। इसमें कोई सन्देह नहीं कि आज पीढ़ी अपना व्यक्तित्व बनानें
में जुटी हुई है। ‘अपेक्षा’ कहानी की मनीषा प्रेम और मुक्ति की बात करती है। मनीषा को दैहिक प्रेम की नहीं अपितु आत्मीय
प्रेम की चाह है और इस प्रेम के लिए अपेक्षा करती रहती है कि उसे समाज और पति से
आत्मीय प्रेम मिले। पंखुरी सिन्हा की कहानी ‘वीकएण्ड का स्पेस’ में भी इसी आत्मीय प्रेम और मुक्ति की कहानी है। स्त्री
स्वतंत्रता को आधार बनाकर कई कहानियाँ लिखी है- जैसे- ‘शहादत और अतिक्रमण‘ (वंदना राग), ‘पापा,
तुम्हारे भाई (शिल्पी),
‘फुलबरिया मिसराइन‘ (प्रत्यक्षा), ‘कठपुतलियाँ‘ (मनीषा कुलश्रेष्ठ) ‘मुक्ति प्रसंग‘ (अल्पना मिश्र), और ‘कठपुतलियाँ‘
(मनीषा कुलश्रेष्ठ)। ज़ेबा रशीद की कहानी 'सायबान' में समीरा की सास पुराने
दकियानूसी विचारों से ग्रसित होकर अपनी पोती के लिए कहती है “लड़की है लड़की की
तरह पाल। याद रख इसे
दूसरे घर जाना है।” तो नई पीढ़ी
की प्रतीक समीरा कहती है “अम्मा अभी यह छोटी बच्ची है इसके खेलने खाने के दिन है
समय आने पर समझ जाएगी।”2 स्त्री
अपनी स्वतंत्रता चाहती है। अब वे दिन लड़ गए जब
उसे पाँव की जूती समझी जाती थी। अब अपने निर्णय वह स्वंय लेती है। ज़ेबा रशीद
की कहानी ‘अस्मिता के लिए’ में सुरैया कहती है “अब जमाना और है ....अब वैसी बात
नहीं चल सकती, मैं अपने मन की मालिक हूँ.....या तो वह मेरे साथ भले आदमी की तरह
रहे नहीं तो मैं उसके साथ नहीं रहूंगी।”3
आकांक्षा पारे ने अपनी
कहानी ‘तीन सहेलियाँ, तीन प्रेमी‘ में आज की शिक्षित, आधुनिकता में रंगी और जि़ंदगी के फैसले स्वयं लेने वाली स्त्री की सोच को
दर्शाया है। नारी की इसी स्वतंत्रता को अभिव्यक्त करते हुए अपने पात्रों से बेबाक
कहलाती है ‘‘अपनी शर्तों पर जिओ, अपनी शर्तों पर
प्रेम करो। जो करने का मन नहीं उसके लिए इनकार करना सीखो, जो पाना चाहती हो, उसके लिए अधिकार से
लड़ो।” कहीं न कहीं आज स्त्री परंपरा में बंधी अपनी छवि से बाहर निकल आई है उसे अपने
ऊपर किसी और का बंधन स्वीकार्य नहीं है। स्त्री के लिए प्रचलित था कि बचपन में
पिता के अधीन जवानी में पति के अधीन और बुढ़ापे में बेटे के अधीन रहना उसकी नियति
है,
इस सोच को वह आज बदल चुकी है। ‘‘हम जि़ंदगी माँग रही है। उनकी जि़ंदगी.......काम के बोझ में फँसे मर्दों को
पता चल जाता है कि कामकाजी लड़कियाँ नाक बहते बच्चों को भी सम्भाल सकती है और बाहर
जा कर पैसा भी कमा सकती है।” वह आज घर परिवार व ऑफिस में तालमेल बिठा आसानी से
अपने दायित्वों का निर्वाह कर रही है।
ऐसा ही एक
और उदाहरण ज़ेबा रशीद की कहानी ‘अनारकली’ की अन्नो का है जो पति द्वारा प्रताड़ित
होती रही है, और एक दिन हिम्मत जुटाकर विरोध करती है पूछती है “तो क्या कर लेगा तू
....बोल क्या करेगा....मारेगा मुझे ?...घर से निकाल देगा ? क्यों नहीं सब अधिकार
तो तुम मर्दों को ही मिले हैं।4 इस प्रकार इन समकालीन महिला कथा लेखिकाओं ने स्त्री
स्वतंत्रता की हिमाक़त की है।
आज की कहानियों में महानगरीय
जिंदगी की भयावहता के प्रति आक्रोष उभरकर आया है। लेखिकाएँ जानती हैं कि उपभोक्तावादी
संस्कृति के विस्तार ने मनुष्य के सरोकारों को बदल दिया है। आज उदारीकरण हमारी
युवा पीढ़ी के समक्ष एक चुनौती बनकर उभरा है। उदारीकरण और बाजारीकरण के कारण युवा
वर्ग मानसिक रूप से विकलांग हो गया है। क्रेडिट कार्ड, ऑनलाइन शोपिंग, मॉल
संस्कृति, मेगा सेल ऑफर, होम डिलेवरी जैसी तथाकथित सुविधाओं ने युवाओं को मानसिक
रूप से पंगु बना दिया है और वे बाज़ार की अंधी दौड़ का हिस्सा बन गए हैं। उदारीकरण,
बाजारीकरण और भूमण्डलीकरण के प्रभाव से शहरों में ही नहीं गाँवों में भी स्पष्ट
रूप से बदलाव नजर आ रहा है। इससे कुछ भी अछूता नहीं है। जिसके परिणाम स्वरुप मनुष्य की
जीवन शैली एवं व्यवहार में परिवर्तन रेखांकित किया जा सकता है। महानगरों में
व्यक्ति स्वयं को अकेला महसूस कर रहा है। रिश्तों का आकार सिकुड़ गया है और महत्व
लघु हो गया है। जिंदगी में रिश्तों के बजाय अर्थ का महत्व बढ़ गया है। निजीकरण के
कारण ‘टारगेटबेस’ जिंदगी जीने वाला युवा परिवार से निरंतर कटता जा रहा जिसके
परिणाम स्वरुप एकाकीपन के कारण अवसाद का शिकार हो जाता है और सहनशक्ति क्षीण हो
जाती है तथा छोटी-सी समस्या के सामने ही हार मानकार अपनी इहलीला समाप्त करने पर
आमादा हो जाता है। युवा लेखिका अल्पना मिश्र अपनी कहानी ‘मुक्ति प्रसंग’ में बताती हैं कि महानगरों की उबाऊ दिनचर्या से व्यक्ति स्वयं
को जैसे भूल ही चला है। “क्या डॉ.साहब के लिए
इतनी महत्वपूर्ण, जिसके आगे वे नातों, रिश्तों, व्यक्ति और समाज को बौना
करके देखते हैं?”5 यह अकेलापन
आज भी हम सभी के बीच में विद्यमान है। भीड़ और अर्थ में खोया हुआ मनुष्य वास्तव
में तब और अधिक खो जाता है जब वह अपने-परायेपन के कारण अपने से भी अलगाव महसूस
करने लगता है। व्यक्ति की अपने से भी अलगाव की स्थिति बड़ी भयावह स्थिति है। इस
स्थिति में पहुंचा हुआ मनुष्य संवेदना शून्य हो जाता है। महानगरीय जीवन में मानवीय
संबंध इतने ऊपरी हो जाते हैं कि कोई आन्तरिक संबंध नहीं जुड़ पाता है। औद्योगिकरण
तथा मशीनीकरण के परिणामस्वरूप आज शहरी जीवन में बड़े पैमाने पर आ रहे परिवर्तनों
के कारण मनुष्य संवेदना शून्य होता जा रहा है तथा भीड़तंत्र का हिस्सा बनकर उसी
भीड़ में अपने अस्तित्व को खो देती है।
अत: निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि समकालीन महिला कहानीकारों
ने अपनी कहानियों की स्त्री-पात्रों में अपनी अस्मिता, अस्तित्व व समाज में अपने स्थान को निर्धारित करने की -सी
सोच दिखाई देती है। वह अब ‘भोग्या' के लेबल को उखाड़ फेंकना चाहती है। स्त्री आज तक पुरुष के
इशारों पर नाचने वाली कटपुतली थी परंतु अब वह अपने अधिकारों के प्रति सचेत है। समकालीन
लेखिकाओं ने अपनी कहानियों के माध्यम से स्त्री जनित समस्याओं का बेबाक चित्रण
किया है साथ ही साथ उनका समाधान भी प्रस्तुत किया है। इन कहानीकारों ने नारी को
दकियानूसी विचारों को त्याग कर आधुनिकता की ओर अग्रसर किया है। समकालीन महिला
कहानीकार स्वतंत्रता की पक्ष धर है, स्वछंदता की नहीं। साथ ही नारी की पराधीनता की
बेड़ियों को काट कर उसे उन्मुक्त गगन में विचरण करने का साहस पैदा किया है। इन
महिला कहानीकारों की कहानियों में आज के समाज और उससे जुडी सभी समस्याओं का 'एक्स-
रे' किया गया है। नव उपभोक्तावादी प्रवृति की भौतिकतावादी सुख-सुविधाओं से युक्त
जीवन शैली ने औरत को पुरूष के कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहने की ताकत दी है। इनकी
कहानियों के सभी स्त्री पात्र सशक्त और दृढ़ता से समाज का मुकाबला करने वाली है।
ये अपनी जि़न्दगी अपनी तरह से जीना चाहती है। इनकी आवाज में तीखापन है। वे
परिस्थितियों से लड़ना जानती है, उनकी सोच पर स्वयं का अधिकार है। सबसे बड़ी बात यह है कि इन
कहानीकारों ने इस प्रश्न को बड़ी ही शिद्दत से उठाया है कि स्त्री तुम कौन हो,
से अधिक महत्वपूर्ण यह है, स्त्री तुम क्या चाहती हो ? तुम्हारी इच्छा क्या है ? उसके प्रति समाज में आने वाली पीढ़ी में एक सम्मान पूर्वक
दृष्टिकोण उत्पन्न करना होगा। इन कहानीकारों ने संस्कारों में आयी गिरावट और उसके
परिणाम स्वरुप उत्पन्न समस्याओं, बाजारीकरण, उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के दुष्प्रभावों की ओर संकेत कर भावी
पीढ़ी को उसके परिणामों से अवगत करवाया है।अत: समकालीन महिला कहानी लेखन में युगबोध
दृष्टिगत होता है।
पाद टिप्पणियां
1.
सिद्धार्थ, सुशील, सं.हिंदी कहानीका युवा परिदृश्य भाग-1, सामयिक प्रकाशन, नई
दिल्ली, संस्करण 2014,पृ.10
2.
रशीद, ज़ेबा, रिश्ते क्या कहलाते हैं, राजस्थानी ग्रंथागार,
जोधपुर, 2013,पृष्ठ.33
3.
रशीद, ज़ेबा, रिश्ते क्या
कहलाते हैं, राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, 2013,पृष्ठ.69
4.
रशीद, ज़ेबा, रिश्ते क्या
कहलाते हैं, राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर,2013,पृष्ठ.23
5.
रांका, सावित्री, समय का सच कहानी संग्रह, राजस्थान पत्रिका प्रकाशन, संस्करण
2008 पृ.सं.131
No comments:
Post a Comment