बीज शब्द
:- राष्ट्र, राष्ट्रीयता, साहित्य, राष्ट्रीय चेतना, कृतज्ञता
राष्ट्रियता की भावना भारतीय संस्कृति का मूलाधार है । राष्ट्रीय
भावना अर्थात् अपने राष्ट्र, अपने देश अपनी जन्मभूमि के प्रति प्रेम की भावना, आदर की भावना ही राष्ट्रीय भावना है । राष्ट्रीयता या राष्ट्र प्रेम एक ऐसा गुण है जो, हर युग के
साहित्य में किसी न किसी रूप में विद्यमान रहता है । लेकिन उसके कारक और
अभिव्यक्ति के तरीकों में कुछ न कुछ बदलाव
आता रहता है । राष्ट्रीयता केवल शौर्य का गुणगान ही नहीं है, अपितु देश की नदियों, पहाड़ों, वनस्पतियों
और रीति-रिवाजों से प्रेम करना, उनके बारे में भिन्न दृष्टिकोणों से लिखना भी
राष्ट्रीयता ही है । यही
कारण है कि साहित्यकारों ने भारत की मिट्टी, वनस्पति, पहाड़ों एवं नदियों के प्रति
कृतज्ञता का भाव रखते हुए उनके प्रति सम्मान व्यक्त किया है । राष्ट्र के अणु-अणु
से जुड़े रहने का भाव राष्ट्रीयता की साधना का चरम है । राष्ट्रीयता की भावना
व्यक्ति में अपने राष्ट्र को परम वैभवशाली, उच्चतम स्तर बनाए रखने और उसे गौरव की
दृष्टि से देखने की तीव्र अभिलाषा रखती है । जिस राष्ट्र में व्यक्ति जन्म लेता है, अपने अधिकारों को प्राप्त करता है स्वयं का भरण पोषण करते हुए वह सभी समृद्धियों को प्राप्त करता है, यश अर्जित करता हैं उस राष्ट्र के प्रति उत्पन्न भावना ही राष्ट्रीय भावना है । भारतीय चिंतन परम्परा के मूल में राष्ट्र या मातृभूमि
सदैव से विद्यमान रहे हैं । "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरियसी" का यह सिद्धान्त इसी बात का संकेत है । वेदों में भी मातृभूमि की
महता को इंगित करते हुए कहा है-'माता भूमि पुत्रोऽह पृथिव्याः।।" "अपने
देश की धरती के प्रति प्रेम, समर्पण का भाव और अनन्य आस्था राष्ट्रीयता का प्रथम
तत्व है।1" इस
प्रकार संस्कृत साहित्य
में राष्ट्र को
मां की ही उपमा से उपमित किया जाता रहा है । यही कारण है कि भारतीयजन मानस
सदैव से मातृभूमि की वंदना करता रहा है ।
यहाँ मातृभूमि को माँ से बढकर सम्मान दिया गया है क्योंकि यह मातृभूमि ही है जो
बिना किसी भेदभाव के, बिना किसी भेद बुद्धि के प्राणिमात्र का भरण पोषण करती है,
सबका कल्याण करती है । यह मातृभूमि ही है जो प्राणिमात्र के जीवन
काल में ही नहीं अपितु मृत्यु के उपरांत भी उसे अपनी पवित्र गोद में स्थान देकर चिरशांति प्रदान
करती है । अत: मातृभूमि अथवा राष्ट्र के इसी महत्व को दृष्टि में रखकर
सम्पूर्ण संस्कृत
साहित्य राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत है, जिसे राष्ट्रीय सदर्भ में समझना आवश्यक है और यही इस
शोधालेख के लेखन का अभिप्रेत भी है ।
मानव और साहित्य को एक दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता । अत: मानव और साहित्य की अपृथकत्व की अवस्था और दशा में साहित्य समाज सापेक्ष होता
है । ऐसे में साहित्य के अमल पटल पर
देश-काल के परिप्रेक्ष्य में समाज की यथार्थ झलक मिलती है । समाज के युग सत्य को
रूपायित करना साहित्य का गुणधर्म है । अत: साहित्य जीवन की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति है
। इसी बात को इंगित करते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं "प्रत्येक देश का साहित्य जनता की चितवृत्ति का संचित
प्रतिबिंब होता है ।" साहित्य की सत्ता मूलतः अखण्ड और अविच्छेद्य सत्ता है ।
वह जीवन और जीवनेतर सब कुछ को अपने दायरे में समाहित कर लेता हैं । यही कारण है कि
उसे किसी एक सीमा में नहीं बाँधा जा सकता ।
जैसा कि पहले ही इसे अभिव्यक्त किया जा चुका है कि साहित्य और समाज का परस्पर गहरा
संबंध होता है । साहित्यकार समाज में
रहकर समाज की पीड़ाओं को अनुभूत करता है और अपनी संवेदना के आधार पर उसे शब्दबद्ध
कर पाठक तक पहुंचाता है । अत: साहित्य में साहित्यकार के अनुभवों का अंश होता है। साहित्यकार
समाज के प्रति अपनी गहरी सहानुभूति के कारण आदिकाल से ही समाज को मार्गदर्शन
दिखाता रहा है क्योंकि साहित्य का
उद्देश्य शिवेत्तर से मुक्त कर शिवेत की रक्षा करना है । रचना प्रक्रिया का आरम्भ
दूसरों की पीड़ा को देखकर ही होता है अर्थात् पीड़ा के अनुभवों से ही रचना का आरम्भ
होता है । इसीलिए कहा भी गया है वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान... । रचनाकार का आंतरिक संवेगात्मक आधार पर बना हुआ जो शोक
भावनात्मक, मानसिक, या दुःख होता है, वह रचनाकार की अभिव्यक्ति लेकर फूटता है ।
अत: मानस शास्त्र हमारी रचना का आधार है ।
साहित्य में मूलतः तीन विशेषताएं होती हैं
- साहित्य अतीत से प्रेरणा लेता है, वर्तमान को चित्रित करता है और भविष्य का
मार्गदर्शन करता है । इस प्रकार साहित्यकार सामाजिक सरोकारों से जुड़ा होता है यही
कारण कि समाज की पीड़ाओं को अनुभूत कर अपने अनुभवों के आधार पर उनका चित्रण करता है । साहित्य के उद्देश्य को इंगित करते हुए डॉ. श्यामसुन्दर दास ने कहा है - “सामाजिक मस्तिष्क अपने पोषण के लिए जो भाव
सामग्री निकाल कर समाज को सौंपता है, उसके संचित भंडार का नाम साहित्य है । हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है “साहित्यकार
को मनुष्यता का उन्नायक होना चाहिए । जब तक वह मानव मात्र के मंगल के लिए नहीं
लिखता, तब
तक वह अपने दायित्व से पलायन करता है ।" इस
आधार पर साहित्यकार का परम दायित्व बन जाता है कि वह समाज में होने वाले घात-प्रतिघातों
का सम्यक वर्णन करें । हजारी प्रसाद
द्विवेदी ने भी साहित्य के उद्देश्य को सामाजिक सरोकारों और समाज दर्शन से जोड़ते
हुए कहा है “मैं
साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ । जो वाग्जाल मनुष्य को
दुर्गति,
हीनता और परमुखापेक्षता से न बचा सके, जो उसकी आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, जो उसके ह्रदय को परदुःखकातर तथा संवेदनशील न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है ।" इस प्रकार साहित्यकार का
मुख्य ध्येय यह है कि वह समाज को नवीन दिशा दे, अपने साहित्य के माध्यम से समाज
में दया, करुणा और त्याग की भावना जागृत करे ।
साहित्य और राष्ट्रीयता का सम्बन्ध घनिष्ठ है ।
साहित्य के माध्यम से राष्ट्रीयता अभिव्यक्त होती ही, विकसित होती है । "राष्ट्रीयता
के विकास और जागृति में साहित्य का महत्वपूर्ण अवदान होता है ।
राष्ट्रीयता साहित्य में भी अभिव्यक्ति पाती है । राष्ट्रीयता के उद्भव तथा विकास के दौरान उसे विशदता
प्रदान करने के लिए और राष्ट्र पर जब-जब संकट आता है तो उसकी प्रतिक्रया में
राष्ट्रीयता के उद्दीपन के लिए साहित्य का अभिन्न योगदान रहता है ।"2
राष्ट्रीयता या राष्ट्र
एक ऐसा गुण है जो हर युग के साहित्य में किसी न किसी रूप में विद्यमान रहता
है,
लेकिन उसके कारक और उसकी अभिव्यक्ति के तरीकों में कुछ न
कुछ परिवर्तन आता रहता है । "परम्परा और युगीन वातावरण के
अन्तर्विरोध से उत्पन्न द्वंद्व ही साहित्य के विभिन्न आन्दोलनों, उसकी धाराओं, और
प्रवृतियों को गति देता हुआ साहित्य की विकास प्रक्रिया को संचालित करता है ।"3 संस्कृत
में रचित चाहे वह वेद हो, पुराण
हो, उपनिषद्
हो, काव्य हो, नाटक हो या उपन्यास हो सभी में राष्ट्र हित को सर्वोपरि माना गया है। संस्कृत साहित्य में अभिव्यक्त "वसुधैव
कुटुम्बकम" की भावना इसकी परिचायक है ।
संस्कृत में राष्ट्र चिन्तन की भावना वैदिक काल से ही अनेक रूपों में दृष्टिगत होती है । तत्कालीन राष्ट्रीयता के
प्रमुख लक्षण थे - जनजागृति और जनजीवन में सुधार । राष्ट्र एक जीव्यमान सत्ता है जिसके शब्द रूप में और व्यवहारगतत:
प्रयोग के प्रमाण विश्व के प्राचीनतम आर्ष ग्रन्थ ऋग्वेद से ही प्राप्त होते हैं,
जिसमें राजा के राज्याभिषेक के उपरान्त राजा से उसके कल्याण एवं राष्ट्र के नष्ट न
होने की कामना की गई गई -
आ त्वाहार्षमन्रेधि ध्रुवास्तिष्ठा
विचायलिः ।
विशस्त्वा सर्वा वाञ्छन्तु
त्वद्राष्ट्रमधि भृशत ।।4
प्रजा राजा से पर्वत
तुल्य अचल और इन्द्र सदृश अविचल होकर राष्ट्र की रक्षा करने की कामना करती है-
इहैवेधि माप च्योष्ठाः पर्वत इवा
विचायलिः ।
इन्द्रा इवेह ध्रुवस्तिष्ठे: राष्ट्र मुधारय
।।5
अथर्ववेद में अखंड
भारत का उद्घोष किया है । भारतीय जनमानस प्राचीन काल से प्रकृति उपासक रहा है और
यह उपासना उस प्रकृति को सम्मान देने के हितार्थ ही की गई है । यही कारण है कि 'अथर्ववेद' में
अपनी रश्मियों से भूमंडल को आलोकित और ऋतुओं का निर्माण करने वाले सूर्य, वरुण, वायु, अग्नि एवं अन्य दैवी शक्तियों से सुखद जीवनयापन तथा
सुखपूर्वक निवास करने हेतु एक विशाल राष्ट्र प्रदान करने की प्रार्थना मिलती है-
आयातु मित्र ऋतृभिः कल्पमानः संवेश्यन
पृथिवीमुस्त्रीयाभिः ।
आयास्मभ्यं वरुणो वायुरग्निर्वृध्द राष्ट्र
संवेश्य वधातु ।।6
'वयं राष्ट्र जागृयाम पुरोहिता' (ऋग्वेद
9/23) जैसे मन्त्र राष्ट्रीयता की ही अभिव्यक्ति है । अथर्ववेद के भूमिसूक्त तथा ऋग्वेद एवं यजुर्वेद की विभिन्न ऋचाओं में राष्ट्र की वन्दना दृष्टिगोचर होती है । वैदिक साहित्य के अतिरिक्त रामायण एवं महाभारत में राष्ट्रप्रेम के अनेक प्रसंग सोदाहरण देखे जा सकते हैं । रामायण में श्री
राम अपनी जन्मभूमि को
स्वर्ग से भी श्रेष्ठ मानते हैं । वनगमन के समय वे अपनी मातृभूमि अयोध्या की रज अपने
साथ लेकर जाते हैं और प्रतिदिन देव सदृश्य उसकी पूजा करते हैं, आराधना करते हैं । लंका
विजय के उपरान्त भी राम का मन अयोध्या के लिए ही व्याकुल रहता है । वे स्वर्णमयी
लंका का परित्याग कर अपनी मातृभूमि की गोद में लौटने के लिए लालायित रहते हैं । वे
लक्ष्मण से कहते भी हैं -
'अपि स्वर्णमयी लंका न
मे लक्ष्मण रोचते ।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ।।
रामायण में रचनाकार ने मर्यादापुरुषोतम श्रीराम
के चरित्र द्वारा महान आदर्शों की स्थापना की है । राम न
केवल मर्यादा पुरुषोत्तम हैं अपितु वे अपने बाहुबल से आसुरी शक्तियों का विनाश कर
सम्पूर्ण धरा को आतंकहीन करते हैं । वे बाली, ताड़का, खर-दूषण,
मेघनाद कुम्भकर्ण, रावण
जैसी आसुरी शक्तियों का
संहार करते हुए सुदूर
दक्षिण श्रीलंका में विजय पताका फहरा
देते हैं । मनुष्य अपनी राष्ट्र भूमि को असीम और अगाध श्रद्धा की
दृष्टि से देखता है । "श्रद्धा और सम्मान इसी भावना
के कारण हम अपनी राष्ट्र भूमि को मातृभूमि कहते हैं ।"7
लौकिक संस्कृत साहित्य भी राष्ट्रिय भावना से ओत प्रोत है । कवियों ने अपने साहित्य में नाना रूपों में राष्ट्रीयता की
भावना को अभिव्यक्त किया है । कालिदास ने अपनी काव्य रचना ऋतुसंहार में प्रकृति के माध्यम से स्वतंत्रता का
सन्देश दिया है । ध्यातव्य है कि भारतीय प्राचीन काल से ही प्रकृति पूजक रहें हैं
जिसके मूल में प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का भाव समाहित है । कालिदास ने अपने
प्रसिद्ध महाकाव्य 'रघुवंश' में नायक रघु के माध्यम से राष्ट्रीयता का दिग्दर्शन करवाया
है । इस महाकाव्य में कालिदास ने रघु के अश्वमेध यज्ञ के ब्याज से दिग्विजय का उल्लेख किया है । कवि ने इस
दिग्विजिय के माध्यम से विदेशी आक्रान्ताओं यवनों को भारतीय राजाओं के बल, पराक्रम
और राष्ट्रीय गौरव का सीधा संदेश दिया है । महाकाव्यकार ने महाराज रघु को अतुल
बलशाली एवं राष्ट्र प्रेमी घोषित करते हुए उसे आधिपत्य स्थापित करते हुए दिखाया है
।
राजस्थान के प्रख्यात संस्कृतविद अम्बिकादत्त व्यास रचित
'शिवराजविजय' उपन्यास में राष्ट्रीय चेतना का दिग्दर्शन होता है । "संस्कृत वांग्मय के प्रथम ऐतिहासिक उपन्यास का सौभाग्य शिवराज
विजय को प्राप्त है । जो अनुपम वाक्य विन्यास एवं अलंकरण एवं शब्द श्लेष की दृष्टि
से कादम्बरी से प्रभावित, शिल्प की दृष्टि से बंग उपन्यासों के निकट है ।"8 शिवाजी के जीवनचरित को
आधार बनाकर लिखे गए इस उपन्यास के सभी पात्र राष्ट्रीय
भावना से ओत-प्रोत
हैं । वे राष्ट्रहित में अपने प्राणों का उत्सर्ग करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं
। यही कारण है कि समीक्षकों ने इसे ऐतिहासिक उपन्यास की संज्ञा दी है ।
"व्यास जी के शिवराज विजय में इतिहास और कल्पना, आदर्श और यथार्थ, अनुभव और
कल्पना का सुन्दर समन्वय है । उनके सभी पात्र अपने चरित्र निर्वाह में पूरी तरह से
खरे उतरते हैं ।"9 रचनाकार ने इस
उपन्यास में तत्कालीन समाज एवं परिस्थितियों का यथार्थवादी चिंतन किया है । उस समय नाना प्रकार की सामाजिक
समस्याएँ समाज में व्याप्त थीं तथा विदेशी आक्रान्ताओं के अत्याचारों से जनता
त्रस्त थी । रचनाकार ने मुगलकालीन समाज का यथार्थवादी चित्रण किया है ।
रचनाकार
ने आमजन में राष्ट्रीयता की भावना को इंगित करने के लिए वीरत्व युक्त नायक शिवाजी को उपन्यास का मुक्य
नायक बनाया है जो अपने देश, जाति और धर्म
की रक्षार्थ सदैव तत्पर रहता हैं । विदेशी आक्रान्ताओं से
पद दलित भारतीय प्रजा शिवराज की चिंता का मुख्य विषय है । उपन्यासकार ने उस काल की
वास्तविक स्थिति का अंकन करते हुए कहा है कि उस काल के राजा अकर्मण्य और विलासी हो
गए थे, सजातीय बंधुओं से विद्वेष रखते थे । हिन्दू समाज मुसलमान शासकों के
अत्याचारों से पीड़ित था । हिन्दुओं पर
उनका अत्याचार अपनी चरम सीमा पर पहुंच चुका था । उनके अत्याचारो का वर्णन करते हुए
व्यास जी कहते हैं- क्वचिद्दारा अपह्रियन्ते क्वचिद्धनानि लुण्ट्यन्ते, क्वचिदार्तनादा, क्वचिद्रुधिरघारा, क्वचिदग्निदाह, क्वचिद्गृहनिपात, श्रयते श्रवलोक्यते च परित ।"10
मुसलमान शासक इतने मदान्वित और बिलासी
प्रवृत्ति के हो चुके थे कि अफजल खाँ भी, वीर शिवा जी जैसे शक्तिशाली और सर्व समर्थ राजा को पराजित
करने की प्रतिज्ञा विजयपुर नरेश के सामने करके आया था, सदैव भोग विलास और नशे में चूर रहता था । जिसका वर्णन करते
हुये व्यास जी कहते हैं- "स
प्रौढि विजयपुराधीश महासभाया प्रतिज्ञाय समायातोऽपि शिवप्रतापञ्च11 ऐसी विषम परिस्थितियों में शिवाजी
ने अपने शौर्य, पराक्रम और सदाचरण द्वारा आमजन की रक्षा की । शिवाजी ने अपने आदर्श चरित्र द्वारा आमजन में देशभक्ति,
आत्मविश्वास और मातृभूमि की सेवा का भाव क संचार किया । शिववीर मे अपने देश के
प्रति प्रेम था, गर्व था । उसकी रक्षा
के लिये प्राणार्पण से सन्नद्ध रहते थे । इस भावना का प्रत्यन्त सुन्दर चित्रण
व्यास जी ने किया है -"शिववीर
–
भारतवर्षीया यूयम्, तत्रापि महोच्चकुल जाता, भ्रस्ति चेद भारतवर्षम् भवति च स्वाभाविक एवानुराग
सर्वस्यापि स्वदेशे, पवित्रतमश्च
यौष्माकीण सनातनो धर्म, तमेते
जाल्मा समूलमुच्छिन्दन्ति, अस्ति च – 'प्राणा यान्तु न च धर्मं " इत्यार्याणा दृढ सिद्धान्त12 आलोचकों
के अनुसार -"भारतीयता के विरोधी बर्बर आक्रान्ता मुगल सम्राट औरंगजेब तथा उसके अधीनस्थ मुगल सेनापति अफजल खां शाइस्ताखा जैसे यवन अत्याचारियों के घोर अत्याचारों एवं आतंक से पीड़ित भारतीय जनता की रक्षा करने में अपने प्राणों की भी चिन्ता नहीं करने वाले महावीर शिवाजी ने अपने देश भारतवर्ष, भारतीय
संस्कृति तथा अपनी सभ्यता के लिए जो अथक, निरन्तर
और भागीरथी प्रयत्न किए हैं तथा भारत के इतिहास में जो सदैव स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है, उनमें
से अधिकांश कार्यकलाप का इस उपन्यास में अतीव रोचक एवं हृदयस्पर्शी वर्णन हुआ है।" इस प्रकार आलोच्य उपन्यास में उपन्यासकार ने देशभक्ति तथा राष्ट्रिय भावना से भरपूर महाराज शिवाजी के राष्ट्रकल्याणपरक राजनैतिक कार्यकलापों का अति सजीव वर्णन है ।
आलोच्य उपन्यास में न केवल शिवाजी अपितु रघुवीर सिंह, गौर
सिंह, श्याम
सिंह, ब्रहमचारी गुरु वीरेन्द्र सिह, माल्यत्रिक, क्रूर सिंह, देवशर्मा
एवं मुरेश्वर आदि सभी पात्रों की वीरता के दिग्दर्शन भी होते हैं । आलोच्य उपन्यास में अनेक स्थानों पर
राष्ट्रीय चेतना से ओतप्रोत संवाद दिखाई देते हैं । यथा -मुकुटम दक्षिणदेशो हि पर्वतबहुलोऽस्तिश्ररप्यानीसहकुलश्चास्तीतिचिरोद्योगेनापिनायमशकन्महाराष्ट्रकेशरिणोहस्तयितुम्
।
साम्प्रतमस्यैवाऽऽत्मीयोदक्षिण-देणशाशकत्वेन "शास्तिखान" गामा प्रेष्यत इति
श्रयते । महाराष्ट्रदेशरत्नम्, यवन-शोणित-पिपासाऽऽकुलकृपाण, वीरता-सीमन्तिनी-सीमन्त-सुन्दर-सान्द्र- सिन्दूर दान
देदीप्यमान- दोदण्डं, णिर्महाराष्ट्राणाम, भूपण भटाना, निघिनीर्नीतानाम्, कुलभवनम कौश लानाम पारावार परमोत्साहानाम् कश्चन प्रात
स्मरणीय स्वधर्माऽग्रह गृह-गृहिल, शिव
इव घृतावतार शिववीरश्चास्मिन् पुण्यनगरान्नेदीयस्येव सिंहदुर्गेससेनो निवसति ।
विजयपुराधीश्वरेण साम्प्रतमस्य प्रवृद्ध वैरम् । "कार्यं वा साघयेय देह वा
पातयेयम" इत्यस्य सारगर्भा महती प्रतिज्ञा । मतीनाम, सताम, त्रैवीर्णकस्य
प्रायंकूलस्य धर्मस्य, भारतवर्षस्य
च आशा ।"13 इसी प्रकार एक
अन्य स्थाल पर रचनाकार ने उपन्यास के
प्रमुख पात्र के माध्यम भारतवर्ष के अतीत
के गौरव का बखान करते हुए धर्म की
रक्षार्थ आह्वान किया गया है । बहुत अच्छा, ऐसा क्यो न हो ? तुम लोग भारतीय हो, उसमे भी उच्च कुल मे पैदा हुए हो, यह भारतवर्ष है, अपने देश के प्रति सभी का स्वाभाविक ही अनुराग होता है, आप का सनातन धर्म सबसे पवित्र है, उसको ये जालिम जड़ से उखाड रहे हैं और "प्राण जायें,
किन्तु धर्म न जाये" यह आर्यों का दृढ सिद्धान्त है । महापुरुष धर्म के लिये
लुट जाते हैं, मार दिये जाते हैं, धर्म नहीं छोडते हैं किन्तु धर्म की रक्षा के लिये सभी सुख
को भी छोड़कर, अर्द्धरात्रि मे भी, वर्षा मे भी, ग्रीष्म की धूप मे भी, महान् जंगलों ने पर्वतों की गुफाओं में भी, सूर्य समूह मे भी, सिंह के झुण्डो में भी, हाथियों के झुण्डो में भी और
तलवारो को चमत्कृति में भी निर्भय विचरण
करते हैं । इसलिये तुम लोग धन्य हो और
वस्तुत: भारतवर्षीय तथा भारत के सपूत हो ।
"इत्यार्याणा दृढ सिद्धान्त।
महान्तो हि धर्मस्य कृते लुण्ठ्यन्ते, पात्यन्ते, हन्यन्ते, न धर्मं त्यजन्ति, किन्तु धर्मस्य रक्षायं सर्वसुखान्यपि त्यक्तवा, निशीथेष्वपि, वर्ष स्वपि, ग्रीष्म-धर्मेप्वपि, महारण्येष्वपि, कन्दरिकन्दरे ष्वपि व्यालवृन्देष्वपि, सिंह-सङ्घ स्वपि, वारण-वारेप्वपि, चन्द्रहास-चम त्कारेष्वपि च निर्भया विचरन्ति । तद् धन्या
स्थ यूय वस्तुत आर्य वशीया वस्तुतश्च भारतवर्षीया ।14 इस प्रकार आलोच्य उपन्यास में तत्कालीन समाज का
यथार्थवादी चिंतन दृष्टिगत होता है ।
संस्कृत साहित्य में राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत
केवल उपन्यास एवं महाकाव्यों का ही सृजन नहीं हुआ अपितु कई
नाटकों की भी रचना की गयी । इन नाटकों के माध्यम से जन समान्य में राष्ट्रीयता की भावना जागृत कर उनके हृदय में राष्ट्रीय प्रेम को भी जगाया । अम्बिका दत्त व्यास कृत "सामवतम्
नाटक के मूल में राष्ट्रीय भावना ही है ।
इसी प्रकार 'छप्रपति साम्राज्यम्', 'प्रताप विजयम' एवं 'संयोगिता स्वयंवर,'शिवाजी चरितम्, प्रभृति
नाटकों में राष्ट्रीयता का जयघोष सुनाई देता है ।
अत: निष्कर्ष में कहा जा सकता है कि साहित्य और राष्ट्रीयता का सम्बन्ध घनिष्ठ है ।
साहित्य के माध्यम से राष्ट्रीयता की अभिव्यक्त होती है ।
राष्ट्रीयता के विकास और जागृति में साहित्य का महत्वपूर्ण अवदान होता है । भारत में राष्ट्रीय चेतना अपने आरंभिक काल से ही रही है
और प्रत्येक युग में किसी न किसी रूप में अभिव्यक्त होती रही है । संस्कृत साहित्य
में वेदों में ही इसके अक्ष को देखा जा सकता है । आरम्भ में यह राजशक्ति एवं
सामन्तो के अत्याचारों और कुशासन के विरुद्ध अभियान था । तत्पश्चत यह सामाजिक बुराइयों के विरोध के रूप
में सामने आया । लौकिक साहित्य में भी राष्ट्रीयता की भावना के दिग्दर्शन होते हैं
। अम्बिकादत्त व्यास रचित 'शिवराज
विजय' उपन्यास में शिवाजी के चरित्र के
माध्यम से तत्कालीन समाज का यथार्थवादी चित्रण हुआ है ।
पाद टिप्पणियाँ :-
1.
राहुल अवस्थी, डॉ. ब्रजेन्द्र
अवस्थी के काव्य में युगबोध, पृ,115
2.
डॉ. सुदर्शन पंडा, राष्ट्रीयता
का तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य, पृ.सं 12
3.
डॉ.
नगेन्द्र (सं) हिंदी साहित्य का इतिहास, पृ.सं 25
4.
ऋग्वेद 10/173/1
5.
ऋग्वेद 10/173/2)
6.
अथर्ववेद 3/8/ 1
7. डॉ. राहुल अवस्थी, राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्य धारा संवेदना और शिल्प,
पृ.सं 10
8.
देवनारायण मिश्र, व्याख्याकार,
शिवराज विजय, भूमिका, पृ.सं 14
9.
देवनारायण मिश्र, व्याख्याकार,
शिवराज विजय, भूमिका, पृ.सं 17
10. देवनारायण
मिश्र, व्याख्याकार, शिवराज विजय- प्रथम निश्वास, पृ.सं 119
11. देवनारायण
मिश्र, व्याख्याकार, शिवराज विजय- प्रथम
निश्वास, पृ.सं 127
12. देवनारायण
मिश्र, व्याख्याकार, शिवराज विजय- प्रथम निश्वास, पृ.सं 185
13. देवनारायण
मिश्र, व्याख्याकार, शिवराज विजयम, द्वितीय निश्वास, पृ.सं 188
14. देवनारायण
मिश्र, व्याख्याकार, शिवराज विजयम , द्वितीय निश्वास¸ पृ.सं 201
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