हमारे जीवन में सिनेमा, साहित्य, संगीत और अन्य कला रूपों का विशेष महत्व है क्योंकि इनके द्वारा हमारी
मानसिक जरूरतों की पूर्ति होती है, हमारा अच्छा या बुरा
मनोरंजन होता है, इनसे हमें अच्छे विचार या आदर्श मिल सकते
हैं और हमें जीवन, समाज और दुनिया को और बेहतर बनाने के लिए प्रेरित कर सकती हैं। साहित्य की तरह सिनेमा भी वैचारिक संघर्षों की
अभिव्यक्ति का एक महत्त्वपूर्ण माध्यम है।
भारत में सिनेमा जीवन का अंग है; हम स्क्रीन पर
दिखने वाले हर किरदार को उसी तरह से लेते हैं जैसे कि उसे स्क्रीन पर दिखाया जाता
है। यही कारण है कि हर एक पात्र को हम जीवन से जोड़कर देखने लग जाते हैं। परंतु
दूसरे ही पल हमें यह भी सोचना चाहिए कि सिनेमा तो माल बेचने की मंडी है दुनिया बनाओ
और बेचो।
यहां व्यक्ति के सपने बिकते हैं, उसके अहसास बिकते हैं और बिकते हैं नित नए
किरदार। हमारी
स्थापित मान्यताएं, स्थापित मानसिक अवधारणाएं हमें नया सोचने का मौका ही नहीं देतीं। अत: जो
फिल्मों में दिखाया जाता है उसे ही हम सच स्वीकार कर लेते हैं।
हिंदी सिनेमा अपने आरंभिक काल से अब
तक के सफर में समाज के विभिन्न पहलुओ को उजागर करते हुए अपने विकास पथ पर तेजी से
अग्रसर हो रहा है। हिंदी सिनेमा का इतिहास कोई संक्षिप्त नहीं है अपितु एक शताब्दी
से भी अधिक लम्बे दौर में इसने समाज की विभिन्न समस्याओं को रुपहले पर्दे पर
वास्तविक स्वरूप प्रदान करने मे सफलता पायी है। “सिनेमा
अपने विविध विषयों के चुनाव के लिए समाज पर आश्रित है। सिनेमा कितना भी व्यावसायिक
हो, पर उसमें अगर सामाजिकता का सरोकार न हो तो वह चल नहीं
सकता।’’1 इस प्रकार सिनेमा वस्तुतः समाज पर ही
आश्रित रहता है। इसी बात को पुरजोर शब्दों में रेखांकित करते हुए डॉ. दयाशंकर कहते
हैं “साहित्य और सिनेमा कल्पना और व्यावसायिकता में विशेष
आग्रह के बावजूद अपनी कच्ची सामग्री कमोबेश समाज से लेता है यहाँ तक कि दोनों अपने
प्रयोजन में, वह आनंद हो चाहे मनोरंजन, सामाजिक ही होते हैं।”2 परंतु समाज में
आज भी अनेक ऐसे अनछुए पहलु विद्यमान है जो पूरे परिवेश के साथ सिनेमा में उभरकर
सामने नहीं आ सके हैं। हाशिये की आवाजें उसी का परिणाम है।
प्रस्तुत शोधालेख में हाशिये की
आवाजों के अंतर्गत समाज के उन वर्गों को केंद्र में रखने का प्रयास किया है
जिन्हें आज तक मुख्य धारा के सिनेमा में या तो स्थान नहीं दिया गया था या गौण
स्थान दिया गया था। किसी भी
राष्ट्र-समाज के उन घटकों के सम्मिलित समाज को हाशिये का समाज कहा गया है, जो अगुआ तबके की तुलना में
सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक स्तर पर
किंही कारणों से पीछे रह गया है। इनमें से स्त्री, दिव्यांग, किसान, मजदूर एवं किन्नर वर्ग को सम्मिलित किया गया है। यद्यपि स्त्री की बात करूँ तो
बिना नायिका के किसी भी फिल्म की कल्पना संभव नहीं है। परंतु इस शोधालेख के लेखन
का ध्येय हाशिये के समाज की उन भूमिकाओं की पड़ताल करना है जिसमें वे समाज की वर्जनाओं, दकियानूसी
विचारधाराओं एवं प्रथाओं को त्यागते हुए
आगे बढ़ी हैं।
विगत कुछ दशकों से भारतीय सिनेमा में आये बदलाव
को दृष्टिगत किया जा सकता है। एक समय नायक प्रधान फिल्मों का बोलबाला था। नायक की
छवि एक यंग एंग्रीमेन की थी तो नायिका की छवि संपूर्ण भारतीय संस्कृति को व्यक्त
करने वाली साधारण महिला की। नायक -नायिका के रूप में सामान्यजन की भागीदारी शून्य
थी। परंतु विगत कुछ दशकों में नायक -नायिका की छवि में, फिल्मों
के कथन में एवं उनके प्रस्तुतीकरण में विशेष बदलाव देखे जा सकते हैं। आवश्यकता इस
बात की है कि हिंदी सिनेमा में ये क्रांतिकारी बदलाव किस कारण आये। इन कारणों की
पड़ताल करें तो ज्ञात होता है कि आज संपूर्ण
विश्व में बदलाव का दौर है उससे सिनेमा कैसे अछूता रह सकता है। पिछली एक शताब्दी
में सिनेमा की तकनीक एवं विषयों में निरन्तर बदलाव आया है। उसके अनेक कारण हैं
जैसे सिनेमा से सम्बन्धित प्रौद्योगिकी का विकास, सिनेमा के दर्शकों की संख्या में बढ़ोतरी, सिनेमा के
मध्यम से प्रसारित होने वाले संदेशों का समाज सापेक्ष होना, भूमंडलीकरण
के प्रभाव आदि। भूमंडलीकरण के परिणाम स्वरुप बाज़ार की बढ़ती ताकतों ने सिनेमा के
व्यवसाय को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फैलाया है। तकनीकी विकास के कारण फिल्मों के
कैसेट्स, ऑडियों, वीडियो, सीडी, डीवीडी, पेन ड्राइव का
एक बिलकुल नया बाज़ार निर्मित हुआ है। साथ ही साथ साहित्य में आये बदलाव भी सिनेमा
के बदलाव के कारण कहे जा सकते हैं। विगत दशकों में साहित्य में स्त्री विमर्श, किन्नर विमर्श, दलित विमर्श,
किसान विमर्श, विकलांग विमर्श ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवायी। इस प्रकार अस्मिताओं की उपस्थिति के कारण साहित्य के कथ्य में क्रांतिकारी बदलाव आये
जिसके परिणाम स्वरुप सिनेमा के कथानक में भी अपेक्षित बदलाव महसूस किए गए। सिनेमा में
बदलाव का एक प्रमुख कारण मल्टीप्लेक्स सिनेमा घरों का प्रचलन भी है जहां जाने वाला
निम्न मध्यम वर्गीय उपभोक्ता झूठी शान के कारण महंगा सिनेमा देखता है। सिनेमा में आये बदलाव का एक कारण स्वयं अभिनेताओं द्वारा किए जाने वाले
प्रचार-प्रसार से भी लिया जा सकता है। आज सिनेमा का नायक अपनी फिल्म का प्रीमियम
करता है, टेलीविजन के प्रसिद्ध धारावाहिकों में जाकर अपनी फिल्म को प्रमोट करता है।
जिसके परिणाम स्वरुप फिल्म की स्क्रिप्ट जनता के सामने आ जाती है और जनता बाजारवाद
की शक्तियों के सामने नतमस्तक हो जाती है।
हमने पहले ही कहा है कि साहित्य और
सिनेमा समाज के प्रतिबिम्ब हैं। अत: जो कुछ समाज में घटेगा उसी को सिनेमा दर्शकों
के समक्ष प्रस्तुत करता है। व्यक्ति की सोच में जैसे जैसे परिवर्तन आता है वैसे ही
सिनेमा अपने स्वरुप को त्याग कर नया रूप धारण करता है। जब समाज स्वतंत्रता की खोज
में था तो सिनेमा का आधार स्वतंत्रता फिर अन्य समस्याएं और वर्तमान में सिनेमा
समाज की विभिन्न समस्याएं की अभिव्यक्ति है।
एक निर्देशक द्वारा रजत पट पर जो कुछ भी
प्रस्तुत किया जाता है समाज उसकी अच्छाई - बुराईयों को भी उसी रूप में स्वीकार कर
लेती है।
अत: नकारात्मक चरित्रों का निर्माण समाज के हित में नहीं होता है। जब अपनी फ़िल्म में किसी किरदार
द्वारा आदर्श की बात करता है तो दर्शक उसे उसी रूप में स्वीकार करता है और एक
खलनायक को बुराई के रूप में प्रस्तुत करता है तो उसे उसी रूप में स्वीकार करता है। अत: निर्देशक का दायित्व है कि वह रजत पटल पर वह
ऐसा कुछ भी प्रस्तुत न करे जिससे समाज की सोच पर विपरीत प्रभाव पड़े। यदि वह किन्नरों, विकलांगों, स्त्रियों,
किसानों का मज़ाक उड़ाता है तो वह नहीं जानता कि उस छोटे-बड़े
शहरों-कस्बों में रहने वाले लाखों किन्नरों, विकलांगों,
स्त्रियों, किसानों को एक दृश्य के कारण
क्या-क्या झेलना पड़ सकता है।
सिनेमा के विषय
परिवर्तित हो रहे हैं जिसका एक प्रमुख कारण समाज की सोच में आये बदलाव को माना जा
सकता है । आज की फ़िल्में नायक प्रधान न होकर हाशिये के लोगों पर केंद्रित हो गयी
है । एक समय जब हिंदी सिनेमा में दिव्यांगों एवं तृतीय प्रकृति के लोगों अर्थात्
किन्नरों को हंसी-मजाक के लिए फिल्मों में दिखाया जाता था परंतु आज ये सिनेमा की
मुख्य भूमिका में है। जिसका एक कारण समाज के दृष्टिकोण में आये बादल को माना जा
सकता है।
सिनेमा का रचना संसार विस्तृत है ।
इसमें आम आदमी से लेकर खास आदमी तक का आईना समाज के सामने प्रस्तुत किया जाता है ।
“सिनेमा समाज का आईना होता है तथा वह समाज की सच्चाइयों से हमें अवगत कराते
हुए तत्कालीन परिस्थितियों के बदलाव में सहायक सिद्ध होता है।”3 सिनेमा और समाज एक दूसरे के पूरक हैं। जहाँ समाज ने सिनेमा के विकास में
अपनी महती भूमिका निभायी है तो पाश्चात्य संस्कृति के रंगीन चश्में में दुनिया को
डुबोया भी है। समाज का हर वर्ग सिनेमा में अभिव्यक्ति पाता रहा है तथा समाज के
नजरिए के बदलाव में भी यह अग्रणी रहा है। जहाँ सिनेमा का एक युग ऐसा था जिसमें
किन्नरों को केवल हास्य के रूप में ही उकेरा जाता था। दर्शकों का मनोरंजन करना ही
किन्नरों का काम रह गया था परन्तु
जैसे-जैसे समय ने करवट ली सिनेमा ने भी इस उपेक्षित वर्ग को पर्दे पर सकारात्मक
स्वरुप में प्रस्तुत किया। केवल नाच-गान या मनोरंजन करना ही इनका काम नहीं रहा
अपितु समाज की मुख्य धारा से जुड़ कर समाज हित में काम करते हुए भी बताया है। ‘अमर, अखबर- एंथोनी’, ‘कुंवारा
बाप’ जैसी फिल्मों में ये किन्नर पुत्र जन्म पर केवल बधाई
देते दिखायी देते हैं परन्तु आधुनिक फिल्मकारों ने समाज के इस उपेक्षित, तिरष्कृत एवं अपमानित समुदाय को भी समाज की मुख्य धारा से जोड़ते हुए उनके
सकारात्मक स्वरुप को लोक के सम्मुख प्रस्तुत किया है। इस दौर की प्रमुख फिल्मों
में यह समुदाय अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है। ‘तमन्ना’,
‘संघर्ष’, ‘वेलकम टू सज्जनपुर’,’सलाम बोम्बे’, ’रज्जो’,सडक जैसी फिल्मों में इस वर्ग की उपस्थिति प्रशंनीय है । ‘तमन्ना’ फिल्म
में एक हिजड़े की जीवटता, मानवीयता तथा सवेंदना को जिस रूप
में प्रस्तुत किया है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि वास्तविक रूप से मानवीयता के
सच्चे हितेषी तो ये ही लोग हैं। इन फिल्मों के माध्यम से समाज के मन में इनके
प्रति व्याप्त भय को दूर कर यह बताने का प्रयास किया है कि ये भी हमारे जैसे ही
लोग हैं, इनके सीने में भी दिल धड़कता है, इन्हें भी आम इंसानों की तरह भूख, प्यास सताती है।
इन फिल्मों में इस समुदाय के दुःख-दर्दों को अभिव्यक्त किया है। इन पर निर्मित
फिल्मे समाज को एक सन्देश देती हैं कि मनुष्य अपनी नपुंसकता को त्याग कर इस
उपेक्षित समाज को गले लगाये। आजादी के इतने वर्षो बाद भी इस समाज के लिए रोजगार,
शिक्षा, चिकित्सा जैसी मूलभूत सुविधाएँ भी
उपलब्ध नहीं है।
सिनेमा के आरंभिक दौर में हम देखते हैं
कि फिल्म ‘कुंवारा बाप’ में इन
किन्नरों के साथ महमूद पर एक गाना फिल्माया गया है। जिसमें ये किन्नर केवल बच्चे
के जन्म पर बधाई माँगते नजर आते हैं। इसी प्रकार फिल्म ‘अमर,
अखबार,एन्थोनी’ में ‘तयब अली प्यार का दुश्मन हाय-हाय..... । गाने पर ऋषि कपूर को किन्नरों के
साथ थिरकते हुए देखा जा सकता है।
आज हिंदी सिनेमा में हिजड़े रियल लाइफ
से रील लाइफ तक पहुंच गए हैं। इनके जीवन पर बनी फिल्मों में महेश भट्ट की ‘तमन्ना’, कल्पना लाजमी की ‘दरम्यां’,
श्रीधर रंगायन की ‘गुलाबी आईना’,विश्वास पाटिल की ‘रज्जो’, योगेश
भारद्वाज की ‘शबनम मौसी’ श्याम बेनेगल
की ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ प्रमुख फिल्में
हैं परंतु ‘गुलाबी आईना’ लेस्बियन और
गे लोगो के जीवन पर आधारित है तथा लेस्बियन और गे किन्नरों में नहीं आते।
सन 2005 में मध्यप्रदेश की एक साधारण किन्नर से विधायक
बनने वाली ‘शबनम मौसी’ पर इसी
नाम से बनी फिल्म में किन्नरों को पहली बार मजाक का नहीं अपितु गंभीर बात कहने का
विषय बनाया गया। योगेश भारद्वाज निर्देशित इस फिल्म में आशुतोष राणा ने किन्नर
शबनम मौसी का किरदार निभाया है। यों कहा जा सकता है कि किन्नरों के वास्तविक जीवन
और सच्ची घटना पर आधारित यह पहली फिल्म है जो उनके दुःख- दर्द को सच्चाई के साथ
अभिव्यक्त करती है।
श्याम बेनेगल निर्देशित फिल्म ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ में मुन्नी मुकरी
(रवि झाँकल) जो कि एक हिजड़ा है वह सज्जनपुर गाँव से सरपंची का चुनाव लड़ता है। उसका
यहाँ से चुनाव लड़ना पुरुषवादी समाज के मुहँ पर तमाचा है क्योंकि गाँव में राम सिंह
की दादागिरी के कारण उसके सामने कोई भी
व्यक्ति चुनाव लड़ने को तैयार नहीं है उसकी दबंगइ से गाँव का हर एक आदमी डरता है।
चुनाव में सीट आरक्षण के कारण महिला सीट सुरक्षित होती है ऐसे में राम सिंह अपनी
भाभी जमना बाई को चुनाव लड़ाना चाहता है, जमना बाई भी
कम नहीं है उस पर धारा 302 के तहत मुकदमा चल रहा है। ऐसे में
गाँव से एक किन्नर का चुनाव लड़ना निश्चय ही बहादुरी का काम है। मुन्नी का चुनाव
लड़ना इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि अलग-अलग वर्गों, जातियों
में बंटे इस गाँव में मुन्नी की जाति का कोई भी व्यक्ति नहीं, उसकी अपनी कोई ताकत नहीं, जातीयता के आधार पर,
लिंग के आधार पर बंटे वोट में उसके अपने कोई भी नहीं है फिर भी वह
चुनाव लड़ती है। जब महादेव इसी बात पर जोर देता है कि ‘तुझे
वोट देगा कौन ?’ तो वह तपाक से जबाब देती है “मुझे सब देगें, मैं सब की हूँ, सब मेरे हैं.”
यह है अपनत्व की भावना जो इन जैसे ही लोगों में पायी जाती है। “दुःख की घड़ियाँ बीतेगी और मुन्नी बाई जीतेगी ” कितने
अपनत्व को लिए हुए है उसके चुनाव का नारा। वह कहती है “भारत
वर्ष को अब सोचना होगा। अब सोचने का समय आ गया है। हम हिंजड़े भी इंसान होते है।
हमारे सीने में भी दिल धड़कता है। हमारी भी भावनाएं होती हैं।” इस फिल्म का यह गीत “आदमी आजाद है, देश स्वतंत्र है, राजा गए रानी गई अब तो प्रजातंत्र है।” मुन्नी
को संबल प्रदान करता है। और अंततः इस प्रजातंत्र में मुन्नी 327 मतों से विजयी होती है। भारतीय राजनीति और सामंती ताने-बाने में अकड़े और
जकड़े समाज के लिए मुन्नी का जीतना कोई आम घटना नहीं है। इस फिल्म के बारे में अरुण
कुमार का कथन है “गाँव की दबंगई से चलने वाली राजनीति को
बखूबी उभरा गया है। पत्र के कलमकार महादेव में भोलेपन के साथ-साथ खास बात है डरते-सहमते
गाँव की राजनीति को समझना। सदियों से चल रही गाँव की राजनीति में ठहराव है जिसका
एक प्रमुख कारण निरक्षरता है। गाँव की राजनीति इसी पर और इसी कारण चलती है।”4 पहले तो पुरुषवादी सत्ता फिर सामंती परिवेश में बढ़ी पली इस राजनीति में
मुन्नी का जीतना एक ऐतिहासिक घटना है। यह घटना ऐतिहासिक इस रूप में भी है कि वह
पुरुष प्रधान समाज को बता देती है कि अब सोचने का और बदलाव का समय आ गया है। आज
समाज नयी बयार की ओर है जिन किन्नरों को हम समाज का हिस्सा नहीं समझते, उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं, समाज की मुख्य धारा
से अलग-थलग रखतें हैं; उनमें से एक हिजड़े को जब लाखों लोग
अपना जन प्रतिनिधि चुनते हैं तो यह एक आम घटना नहीं निश्चय ही एक ऐतिहासिक घटना है।
भारतीय राजनीति में यह घटना एक नए अध्याय का आरंभ मानी जा सकती है। निःसंदेह
मुन्नी ने नोट के बदले वोट खरीदने और जाति एवं लिंग आधारित राजनीति का अंत किया
है। अतः अब समय आ गया है कि इस उपेक्षित वर्ग को समाज की मुख्य धारा से जोड़ा जाए
।
विश्वास पाटिल निर्देशित फिल्म ‘रज्जो’ में भी हिजड़ों के जीवन को रजत
पट पर उतारा गया है। रियल लाइफ से रील लाइफ तक पहुंचे हिजड़े आज हिंदी सिनेमा में
किसी ने किसी प्रकार के किरदारों में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते ही हैं। इस फिल्म
में महेश मांजरेकर ने हिजड़े ‘बेगम’ का
किरदार निभाया है। ‘बेगम’ कोठा चलाने
वाली है जो गाँव से लायी गई लड़कियों को खरीदकर देह व्यापार में धखेलती है। भले ही
बेगम कोठे की मालकिन है परंतु भावनात्मक रूप से वह इन लड़कियों के साथ है। यही कारण
है कि उसके कोठे की तवायफ ‘रज्जो’ जब ‘चंदू’ से प्रेम करने लगती तो वह उससे मिलने की आजादी
दे देती है, इतना ही नहीं रज्जो को पैसों के बल खरीदकर बार
चलाने की लालसा रखने वाला ‘भांडे-भाऊ’ जब
उनके प्यार के बीच आता है तो बेगम उसे रास्ता दिखा देती है और सामान्य मनुष्य से
ऊपर उठकर दो प्यार करने वाले पंछियों को आजाद कर देती है। इस प्रकार इस फिल्म में
भी किन्नर पुरुष समाज को एक राह दिखाती नजर आती है। एक तरफ रज्जो की सगी बहिन और
जीजा है जो मुंबई में फ्लेट खरीदने की लालसा में अपनी ही बहिन को बेगम को बेच जाते
हैं और दूसरी ओर भांडे-भाऊ है जो उससे बार में डांस करवाकर पैसा कमाना चाहता है तो
तीसरी ओर बेगम है जो अपने धंधे की परवाह किये बिना उसे आजाद कर देती है। बेगम से बढ़कर
मानवीयता कहीं नजर नहीं आती।
किन्नरों की सहृदयता, परोपकारिता, दयालुता तथा मानवीयता को प्रकट करने
वाली फिल्म है ‘तमन्ना’। दिल्ली की एक सच्ची घटना पर आधारित, महेश भट्ट
निर्देशित इस फिल्म में परेश रावल ने अपने जीवंत अभिनय के माध्यम से एक हिजड़े के
जीवन की सच्ची घटना को रुपहले पर्दे पर अभिव्यक्ति दी है। रमजान के पवित्र महीने
में ईद की पूर्व संध्या पर पुत्र की चाह रखने वाले एक परिवार में पुत्री ने जन्म
क्या ले लिया मानो घर में कोहराम मच गया। दासी अपनी स्वामी भक्ति और अपने कर्म की
पालना में उस अबोध बच्ची को कचरे के डिब्बे में डाल जाती है। जिनके बच्चे नहीं
होते उन्हें बच्चे प्यारे होते हैं, यह शाश्वत सत्य है परंतु
प्रकृति की मार झेल रहे हिजड़े तो कभी इस सुख को भोग भी नहीं सकते। उनके कभी औलाद
हो भी नहीं सकती। वे तो ऐसा स्वप्न भी नहीं देख सकते। परंतु भगवान की मर्जी के खिलाफ जाकर टिक्कू नामक
हिजड़े (परेश रावल) ने ऐसा ख्वाब देखा कि कचरे के डिब्बे में पड़ी बच्ची को अपनी
बच्ची समझी और कोनवेंट स्कूल में पढाया। इस हेतु उसने अपनी मृत मां की साड़ियां
और गहने भी बेच दिए। पराकाष्ठा तो जब होती है जब वही लड़की जिसके लिए टिक्कू नाचा-गाया, रात-रातभर सीने से लगाकर जागा, नगें पाँव भागता रहा;
उसे ही टिक्कू से घिन्न आने लगती है और अब्बू कहने से भी शर्म महसूस
करती है क्योंकि टिक्कू एक हिजड़ा है। यह है मानवीयता की एक हिजड़ा न बेटा देखता है
और न बेटी और कचरे के डिब्बे में पड़ी नवजात को अपनी बेटी की तरह पालता-पोसता है और
दूसरी ओर वही लड़की उसे हिकारत की दृष्टि से देखती है। वह कहती है -
“कौन है यह आदमी सलीम चाचा,
ये मेरे अब्बू नहीं हो सकते
मैं तुम्हारी बेटी नहीं हो सकती
ये मेरे अब्बू नहीं हो सकते
मुझे ये सोचकर ही उलटी आती है कि
इन हाथों ने मुझे छुआ भी होगा
ये आदमी एक हिजड़ा है ।” (तमन्ना फिल्म से)
कितनी विडम्बना है जिस आदमी ने उसे
पालने-पोसने में अपना जीवन लगा दिया, उसके अपने
तो उसे कचरे के डिब्बे में छोड़ कर चले गए थे; उसी से इतनी
घिन्न ? कैसा है यह संसार ? जहाँ
आदमी-आदमी में इतना फर्क ? एक ही मां के गर्भ से जन्म लेने
के बाद भी आदमी-आदमी में इतना फर्क ? वाह रे विधाता ये कैसी
तेरी सृष्टि ? क्या किसी के हिजड़े होने में उसका कसूर है ?
फिल्म में टिक्कू अपनी इसी बेबसी का रोना रोते हुए कहता है-
“मैं हिजड़ा हूँ इसमें मेरा क्या
दोष ? ऊपर वाले ने मुझे ऐसा बनाया इसमें मेरा क्या कसूर ?”
प्रकृति की मार से मरे इन हिजड़ों से
इतनी नफरत ? दुनिया में कौन किसी के लिए क्या करेगा
जितना उस लड़की के लिए टिक्कू ने किया। उसके अपने तो लड़की को यह सोचकर कचरे के
डिब्बे में छोड़ गए थे कि वंश बेल लड़कियों से नहीं लड़कों से चलती है, जब तक बाप की अर्थी को बेटे के हाथ न लेगे तो उसकी मुक्ति नहीं होती,
लड़कियाँ तो बोझ होती है; ऐसे समाज में हिजड़ों
को हिकारत की दृष्टि से देखतें हैं । फिल्म में सलीम चाचा का यह कथन
‘अगर यह हिजड़ा है तो लानत है हम
दुनियाभर के मर्दों पर।’ निःसंदेह यह
कथन इस फिल्म की ही नहीं, हिजड़ों के जीवन की भी सार्थकता
सिद्ध करता है।
सिनेमा
के आरंभिक इतिहास को उठाकर देखें तो ज्ञात होता है कि हमारी फ़िल्मों में विकलांगता को
कभी भी सामान्य जीवन के साथ जोड़कर नहीं दिखाया गया। इनमें हर दिव्यांग व्यक्ति भिखारी नज़र आता है। पुराने समय में बनी इन फ़िल्मों
में अक्सर विकलांग व्यक्ति को दया और उपहास के पात्र के तौर पर पेश किया जाता था। खुशी की
बात यह है कि भारतीय समाज का विकलांगता के प्रति दृष्टिकोण बहुत धीरे-धीरे ही सही
पर बदल रहा है। 1972 की फ़िल्म “कोशिश” में हरि (संजीव
कुमार) और आरती (जया भादुड़ी) ने एक गूंगे-बहरे दम्पत्ति की भूमिका बड़ी ही कुशलता से निभायी है। 1980 में
बनी फ़िल्म “स्पर्श” प्रमुख
किरदार, अनिरुद्ध परमार (नसीरुद्दीन शाह), नेत्रहीन हैं, जैसी फ़िल्मों के ज़रिए उसकी दयनीय
छवि को चुनौती देने की कोशिश की है, उसके इस परंपरागत स्वरुप को बदला है। लेकिन फिर
भी एक टीस शेष रह जाती है कि क्या ऐसा कोई दिव्यांग व्यक्ति सामान्य जनता से ऊपर
भी उठ सकता है? इस बात का आरंभिक फिल्मों में कोई ज़िक्र नहीं हुआ है। परंतु वर्तमान सिनेमा में काबिल जैसी फिल्मों के माध्यम से भी यह सिद्ध
कर दिया है कि दिव्यांगता मनुष्य के लिए मज़बूरी नहीं है यदि मनुष्य में सच्ची लगन
और धैर्य है तो वह हर मंजिल को प्राप्त कर सकता है।
हमें अपनी स्वस्थ सोच का परिचय देते
हुए सोचना चाहिए कि विकलांग व्यक्ति भी एक सामाजिक प्राणी है अपनी तमाम परेशानियों
के उपरांत भी एक सामान्य जीवन जी सकते हैं। दिव्यांगता मनुष्य को जितना सोचने पर
मजबूर नहीं करती, उतना समाज की उपेक्षा का भाव उसे सोचने पर मजबूर कर देता है, उसकी मानसिकता पर गहरा प्रभाव डालती है। इस पर
समाजशास्त्रीय दृष्टि से मन्थन और विमर्श किया जाना चाहिए।
सुधा चंद्रन भरतनाट्यम नर्तकी हैं।
1981 में एक कार दुर्घटना में उनके पैर कट जाते हैं। 1986 में उनके जीवन पर बनी
फ़िल्म “नाचे मयूरी” ने
समाज को सोचने पर मजबूर किया। इस फिल्म की
विशेषता यह रही कि यह कोरी कल्पना पर आधारित नहीं थी अपितु सुधा चंद्रन का एक
वास्तविक व्यक्ति होना, उनके पैर का वास्तव में कटना और इसके
बावज़ूद वास्तव में उनका फिर से भरतनाट्यम नृत्य करना, इन सब बातों ने भारतीय समाज
को कुछ हद तक सोचने पर मजबूर किया। फिल्म में अपने संदेश रूप में यह दिखाया गया कि
एक विकलांग व्यक्ति भी सितारा बन सकता है और वह भी एक स्त्री। इस प्रकार प्रस्तुत
फिल्म के माध्यम से दिव्यांगों की जिजीविषा को इंगित किया गया है।
हमारे देश में बैसाखियाँ विकलांगता
की परिभाषा हैं। इसी तरह व्हीलचेयर, नेत्रहीनों की सफ़ेद छड़ी और कटे हुए
हाथ-पैर भी विकलांगता का पर्याय हैं। विकलांगता मनुष्य के केवल हाथों, पैरों या आंखो के बेकार होने से ही नहीं होती अपितु वे मानसिक रूप से
विकलांग भी हो सकते हैं, सांस्कृतिक विकलांग भी हो सकते हैं।
विकलांगता के असंख्य रूप और कारण होते हैं। मनुष्य पिछले कुछ समय में ऐसी बीमारियों को मध्य में
रखते हुए फ़िल्में बनीं हैं जिनका अधिकांश दर्शकों ने नाम भी नहीं सुना था। एम्नेसिया,
एस्पर्जर्स, डिस्लेक्सिया, प्रोजेरिया इत्यादि बीमारियों के शिकार
अपेक्षाकृत काफ़ी कम लोग होते हैं। इसलिए आम लोगों की नज़र में ये केवल बीमारिया
हैं, विकलांगता नहीं।
2007 में बनी फ़िल्म “तारे ज़मीं पर” में डिस्लेक्सिया
पीड़ितों की ज़िन्दगी और समस्याओं को पर्दे पर जीवंत किया। इस बीमारी का प्रमुख
लक्षण यह है कि इससे पीड़ित व्यक्ति को इंसानों को पढ़ने और चीज़ों को समझने में बड़ी
दिक्कत होती है। डिस्लेक्सिया से पीड़ित बच्चे पढ़ाई के मामले में अक्सर अपने
सहपाठियों से पीछे छूट जाते हैं।
2009 में “पा”
फ़िल्म में 12 वर्ष के ऑरो को प्रोजेरिया
नाम की एक आनुवांशिक बीमारी थी। प्रोजेरिया में बचपन से ही शरीर में बुढ़ापे के
लक्षण दिखने लगते हैं। शरीर की उम्र सामान्य से बहुत अधिक तेज़ी से बढ़ती है। 2009
में ही “कमीने” नाम
से एक और फ़िल्म आई जिसके मुख्य पात्र गुड्डु और चार्ली तुतलाने और हकलाने की
समस्या से जूझ रहे थे। इसके अलावा बर्फी, ब्लैक, गुजारिश, ख़ामोशी,
लगान में कचरा
का पात्र, ऐसे बहुत से उदाहरण है
जहाँ विकलांगता में छुपी आत्मशक्ति को लोगों ने अनुभव किया
आज
स्त्री और समाज में बहुत ही सार्थक परिवर्तन आया है। टेक्सी ड्राइवर से लेकर
प्रधानमंत्री तक के सारे पदों को स्त्री सुशोभित कर रही है। ममता और प्यार की
मूर्ति,
संवेदनशील और ममता का पर्याय रही नारी आज समाज और साहित्य में विद्रोहात्मक
रूप में सामने आती है। वह कोमल है, संवेदनशील है ममता और प्यार
की मूर्ति है पर बात उसके मान और इज्जत पर आती है तो उसकी कोमल देह दुर्गा का रूप
धारण कर लेती है। आज सिनेमा में वह कुशल राजनीतिज्ञ, समाज
सेविका, नेता और जागरूक नागरिक का रोल निभाने के साथ साथ घर,
परिवार और बच्चों को भी संभालती है। अपने कार्य स्थल पर भी वह
पुरुषों से पीछे नहीं है और घर संभालने में उसकी तरफ से कोई शिकायत नहीं।
आज फिल्मों में नायिका की भूमिका
पत्नी और प्रेमिका की नहीं रही अपितु वह स्वयं नायक है। फिल्मों में उसका स्थान
नृत्य,
गानों या अंग प्रदर्शन से नहीं अपितु उसके अभिनय से है ।
समकालीन फिल्मों में अगर मर्दानी
फिल्म की चर्चा की जाये तो यह कहानी एक ऐसी महिला पुलिस ऑफिसर 'शिवानी रॉय'की है अपने कार्यों से अपराधियों के साथ
साथ संपूर्ण पुरुष वर्ग पर हावी है। वह पुरुष वर्ग, जिसमें
अपराध के खिलाफ लड़ने की ताकत होने के बावजूद भी पद और राजनीती के डर से पीछे हट
जाता है। उस नारी ने परंपरागत स्त्रियोचित गुणों को किनारे रखने के साथ साथ पुरुष के साथ कदम से कदम मिला
कर ही नहीं चलती अपितु अपनी निर्णय शक्ति, दूरदृष्टि और
कर्तव्य बोध से पुरुषों को पीछे धकेल कर उनसे एक कदम आगे है। इसका उदहारण फिल्म के
शुरूआती दृश्यों में मिलता है जब उसके घर की नेम प्लेट दिखायी जाती है 'शिवानी बिक्रम रॉय'।
अर्थात् जो नाम पुरुष के नाम के पीछे होना चाहिए था वह आगे है या यों कहा जा सकता
है कि स्त्री के नाम की आवश्यकता ही क्या थी? शिवानी पुरुषोचित संपूर्ण कार्यों को
पूर्ण निष्ठा के साथ करती नज़र आती है। वह मर्दानी बनकर समाज की समस्याओं से लड़ती
है, न्याय की मांग करती है और स्वयं फैसला लेती है। वह
संपूर्ण समाज को झकझोरती है और भ्रष्टाचार के मूल में जाकर उसको जड़ों सहित निकाल
फैंकती है। वह समाज में हो रहे स्त्री शोषण के खिलाफ मोर्चा लेती है और स्त्री
जागरूकता और और सशक्तिकरण की एक मिसाल कायम करती है। फिल्म के एक दृश्य में वह
कहती "क्या किसी लड़की या स्त्री के साथ दुराचार होने के बाद ही इमोशनल होना
चाहिए ? इस तरह बाद में कैंडल मार्च निकालने का क्या
तात्पर्य ? अच्छा होगा अपराध से पहले अपराधियों को पकड़ा जाये।
फिल्म के अंत में स्त्री जाती को संदेश देती हुई कहती है "अपने अंदर छिपी
मर्दानी को हर स्त्री को खुद ही निकालना होगा। वह जब तक दबेगी पुरुष वर्ग उसे और
अधिक दबाता जाएगा।
'गुलाब गैंग' भी एक नायिका
प्रधान फिल्म है जिसमें पति और समाज से प्रताड़ित स्त्रियाँ स्वयं का एक समूह और समाज बनाती है और स्वावलंबी जीवन जीने के
साथ साथ बच्चों को शिक्षा भी देती है। स्त्रियों का वह स्वतंत्र समूह समाज की बुराईयों
और भ्रष्टाचार से लड़ता है। जिस कार्य को करने में पुलिस और प्रशासन करने में
असमर्थ है उसे वह स्त्री समूह सशक्त रूप से निर्वहन करता है। स्त्रियाँ बगावत कर
अपनी राजनीतिक पार्टी बनाती है और अपने गाँव को भ्रष्टाचार से मुक्त करने और
स्त्रियों पर होने वाले अत्याचारों के ख़िलाफ़ संघर्ष करती है। इस फिल्म में सबसे
महत्वपूर्ण बात यह है कि नायक और खलनायक का किरदार स्त्री द्वारा ही निभाया जाता
है। फिल्म की नायिका रज्जो संपूर्ण स्त्री वर्ग को संदेश देती है -
जैसे तिल में तेल है, ज्यों
चकमक में आग ।
तेरा साईं तुझमें है , जान
सके तो जान । ।
इसी प्रकार फिल्म 'क्वीन' की बात की जाये तो इसकी नायिका नायक द्वारा त्यागने के
उपरांत भी टूटती नहीं है अपितु अपने जीवन में नवीन सपनों को संजोकर अकेली ही
हनीमून के लिए निकल पड़ती है और स्व
अस्मिता,
आत्मबोध और स्वाभिमान से सराबोर होकर वह स्वयं जीवन के आनंद को
प्राप्त करती है। अंत में वह इतनी शक्ति
संचित कर लेती है कि उसी पुरुष को, जिसने उसे त्यागा था, उसे
स्वयं ही ठुकरा देती है।
'कांची' फिल्म भी नायिका
प्रधान फ़िल्म है जिसमें अपने होने वाले पति के हत्या के बाद वह टूटती नहीं अपितु
बदला लेनी की ठानती है। वह प्रेमी के हत्यारे को मारने के साथ साथ राजनीति में
व्याप्त भ्रष्टाचार का पर्दाफाश भी करती है। जब कांची की मां परंपरागत स्त्रियोचित
गुणों को आधार बनाकर उससे कहती है " लड़कियां ऐसे गुस्सा नहीं करती बेटा
" तो कांची कहती है लड़कियां ही ऐसे
गुस्सा करती हैं।"
अतः सारांश रूप में यह कहा जा सकता है कि
किन्नर, दिव्यांग एवं अन्य हाशिये के समाज भी आम इंसानों की तरह ही है। केवल
प्रजनन क्षमता से हीन किन्नर समाज अन्य इंसानों की तरह ही है फिर भी समाज इन्हें
अपनाता नहीं है। दिव्यांग व्यक्ति समाज का
अहम् हिस्सा है। नारी समाज का आधार है। सुप्रीमकोर्ट
ने किन्नरों को निजता और व्यैक्तिक स्वतंत्रता
के सभी अधिकार दिए है। उचित शिक्षा के अभाव में यह वर्ग नाच-गान कर अपना जीवन यापन
करता है। मानवीयता, दयालुता, परोपकारिता का पर्याय यह किन्नर वर्ग आम आदमियों की तरह ही है। इनमें उक्त
गुण कूट-कूट कर भरे हुए हैं। आज अपने आप को सभ्य कहलाने वाला मानव समाज उक्त गुणों
से कोसों दूर चला गया है। मनुष्य सारे रिश्ते-नाते तोड़कर भौतिकता की अंधी दौड़ में
इस कदर शामिल हो गया है कि वह स्वयं रिश्तों के मामले में हिजड़ा हो गया है।
समकालीन हिंदी सिनेमा ने इनकी वास्तविक स्थिति को लोक के समक्ष प्रस्तुत किया
जिससे आम आदमी यह समझ सके कि हिजड़े भी हमारी ही तरह आम इंसान होते हैं उनके प्रति
भेद करना अन्याय है। उक्त फिल्में अपनी सम्पूर्ण ताकत के साथ हिजड़ों के उत्थान की
वकालत करती है और हिजड़ों के मन को समाज के सम्मुख खोलकर समाज की मुख्य धारा से
जुड़ने की पैरवी करती है।
दिव्यांग व्यक्तियों के प्रति समाज का
नजरिया बदलना चाहिए। वे समाज के अहम भाग हैं। फिल्मों में उनके प्रति
दृष्टि बदलनी चाहिए। दिव्यांग दया का पात्र नहीं है, वह शरीर से अपाहिज है परंतु
उसमें सोचने समझने की अपार शक्ति है । उस शक्ति का समाज हित में उपयोग करना
चाहिए।
सिनेमा
में स्त्री के मन की कहानियां, दिल की बातों के प्रयोग बहुत कम देखने को मिलते हैं।
उसका चेहरा घिघियाता जयादा नज़र आता है।
बदलाव के सूत्र कभी कभी देखने को मिलते हैं । आवश्यकता इस बात कि है कि उसे उसका
उचित मान- सम्मान मिलना चाहिए।
संदर्भ
1 मिसाल, चंद्रकांत, सिनेमा और
साहित्य का अंतःसंबंध,हिंदी साहित्य निकेतन बिजनौर, पृ.12
2
दयाशंकर, समाज, साहित्य और सिनेमा, संपादक पुनीत बिसारिया, राजनारायण शुक्ल, भारतीय सिनेमा का
सफरनामा, एटलांटिक
पब्लिशर्ष, दिल्ली, पृ 72
3 मिसाल, चंद्रकांत, सिनेमा और
साहित्य का अंतःसंबंध, हिंदी साहित्य निकेतन बिजनौर, पृ.14
4 कुमार, अरुण, यहाँ से सिनेमा,
साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृ.135
सर नमस्कार। पहली बार आपको ब्लॉग पर देखा। निसन्देह बहुत ही सारगर्भित लेख है। विषय प्रतिपादन और शैली उत्तम है।
ReplyDeleteसर जी नमस्कार। आप के इस लेख से बहुत कुछ सिखने को मिला, इसमें जो भारतीय समाज में व्याप्त असमानता दिखाई गयी है वो वास्तविक हैं।
ReplyDeleteबहुत ही प्रभावी सार्थक आलेख।
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