विभिन्न
रसों का परिपाक : लोक गायिकी की चारबैत शैली
चारबैत उर्दू
की वह शायरी है जो समूह में गायी जाती है और जिसके हर बंद में चार मिसरे होते हैं।
अर्थात् जिस प्रकार ग़ज़ल के प्रत्येक शे'र में दो मिसरे होते हैं उसी प्रकार चारबैत
के हर बंद में चार मिसरे होते हैं। चारबैत शायरी क़व्वाली की तरह एक ख़ास अंदाज में
गायी जाती है। उत्साह एवं जोशो ख़रोश इसकी गायकी की विशिष्टता है। शे'र के आधे हिस्से को पंक्ति या मिसरा कहा जाता तथा दो
मिसरे मिलकर एक शे'र बनता है।
चारबैत शब्द के अर्थ को देखें तो ज्ञात
होता है कि फ़ारसी भाषा में 'बैत' शब्द का अर्थ 'पंक्ति' होता है। इस प्रकार चारबैत
का अर्थ है, चार पंक्तियों वाली कविता क्योंकि इसके हर बंद में चार मिसरे होते हैं
और ये एक विशेष 'बहर' अर्थात एक धुन में लिखी जाती है। इसलिए इसे चारबैत के नाम से
जाना जाता है। कुछ आलोचक इसे अफ़गानी लोक गीत भी मानते हैं। इस प्रकार यह अनुमान लगाया
जा सकता है कि अफगान के लोक में यह गायकी रची -बसी थी। अत: यह भी माना जाता है कि इस शैली का उद्भव अफगानिस्तान में
हुआ था। "चार बैत मूलतः पठान संस्कृति से जुड़ी गायन परंपरा है। फ़ारसी भाषा में चार पंक्ति के विशेष तुक
युक्त छंद को बैत कहा जाता है। चार बैत के समुच्चय को चारबैत नाम से जाना
जाता है।"1 पुरानी मान्यताओं के अनुसार यह गायन शैली करीब 1,500
साल पहले पश्तो और फारसी के माध्यम से अफगानिस्तान में शुरू हुई
जहां युद्ध के दौरान एवं आराम के समय ये
लोक गीत गाए जाते थे।
कुछ आलोचक चारबैत का अर्थ चार
व्यक्तियों की परस्पर तकरार से भी लेते हैं। क्योंकि चारबैत मुख्यतः चार
व्यक्तियों की तकरार से ही आरंभ होती है। अर्थात गायक दो दल बनाकर सवाल-जबाब करते
थे। चारबैत में जो शायरी गायी जाती है उसमें कविता को सवाई, दो बंदी, चौबंदी, पांच
बंदी और छह बंदी आदि कहते हैं। परंतु अधिकांश चारबैंतों में चौबंदी लिखी गयी है। सवाई
चारबैंत में एक पूरी पंक्ति और दूसरी पंक्ति प्रथम की एक चौथाई होती है। दो बंदी
में दो पंक्तियाँ तथा चौबंदी में चार पूरी-पूरी पंक्तियां होती है। पांच बंदी में पांचो
पंक्तियां तथा छह बंदी में छहों पंक्तियाँ बराबर होती हैं।
कुछ आलोचकों का मानना है कि चारबैत सेना
में जोश भरने का काम भी करती थी। इस शैली में युद्धोपरांत प्रतिदिन रात को विजय के
गीत गाये जाते थे। जिसमें उस दिन की वीरता का गुणगान होता था। वीरगति को प्राप्त
हुए शहीद सैनिकों के प्रति श्रद्धा का भाव तथा घायल हुए सैनिकों में उत्साह का
संचार कर मातृ भूमि के प्रति प्रेम का भाव जागृत किया जाता था। चारबैत सुनने भर से
लोगों की नसों में जोश भर जाता था और वे द्विगुणित उत्साह से युद्ध के लिए तैयार रहते
थे। साथ ही उपस्थित जनसमूह में भी अपनी मातृभूमि हेतु शहीद हुए सैनिकों के प्रति श्रदा का भाव
जागृत करने एवं शत्रु से लोहा लेने हेतु प्रेरित करती थी। इस कारण इसे फ़ौजी राग़ के
नाम से भी जाना जाता है। जैसे -
हम वो जंगी हैं जिन्हें देखकर थर्राते
थे।
नाम सुनते ही उदु दिल में लरज जाते थे।
एक इशारे पे खुदा की कसम लड़ जाते थे।
रुकने वाले थे कहीं मीर खां
तलवारों में।
क्या जवां मर्द बहादुर हैं जंवा
नाने बहीर।
मारा जनरल को रामपुर के
जिसकी नहीं नज़ीर।
चढ़ गए सूली पे खुद हाथ से खेंची
ज़ंजीर।
हो गए जांबजा मशहूर वो अख़बारों में।
(कलाम
- मुहम्मद उमर मियां टोंक)
स्थान विशेष के आधार पर चारबैत गायिकी
के तरीके अलग-अलग हैं परंतु दो दलों के रूप में विभक्त होकर अखाड़ों के रूप में
गायन की शैली विशेष है। अर्थात् दो दल आमने- सामने बैठकर शे'रों-शायरी में
सवाल-जबाब करते हैं और एक दूसरे पर विजय प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। इसलिए
राजस्थान के एक लोकनाट्य के रूप में भी इसे मान्यता प्राप्त है। राजस्थान का
तुर्रा-कलंगी लोक नाट्य इससे बहुत कुछ साम्य रखता है। उसमें भी दो दल एक, तुर्रा
एवं दूसरा कलंगी शिव और शक्ति के प्रतीक
के रूप में सवाल जबाब करते हैं।
इतिहास
- भारत
में इस शैली का आगमन कब हुआ? इस पर आलोचक एक मत नहीं है परंतु फिर भी कयास लगाए
जाते हैं कि मुग़लों के समय ही भारत में इसका आगमन हुआ था। मुग़ल पठानों के समय इस शैली के आगमन के कारण ही आलोचक
इसे पठानी राग भी कहते हैं। यद्यपि कुछ आलोचकों की स्पष्ट
मान्यता है कि बाबर के शासनकाल में चारबैत का आगमन हुआ था। इस प्रकार भारत में चारबैत
शैली का इतिहास सदियों पुराना है।अरब देश, ईरान एवं अफगानिस्तान होते हुए भारत में
यह कला आयी। भारत में सर्वप्रथम हैदराबाद में इस कला को फलने-फूलने का पर्याप्त
अवसर एवं वातावरण मिला। टोंक के चार बैत गायक मुहम्मद उमर मियां के अनुसार भारत
में इस कला का सर्व प्रथम आगाज़ मुरादाबाद में हुआ था। अरब के लोग इस शैली में गायन
करते थे। इस शैली के गायन एवं वाद्ययंत्र ढप के संदर्भ में मान्यता है कि अरब के
लोग ढप के साथ चारबैत गाकर ख़ुशी का इजहार करते थे। सर्व विदित है कि अरब के लोग
कबीलों में रहते थे और कबीले के सरदार का हुक्म ही सर्वोपरि होता था। ये कबीले
परस्पर युद्धरत रहते थे। अत: युद्ध ही इनका जीवन था। ये कबीले जब युद्ध जीत कर आते
थे तो विजयोत्सव के रूप में ढप बजाते हुए अपनी ख़ुशी का इज़हार करते थे तथा दूसरे
कबीलों पर इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी पड़ता था। इनके ढप की आवाज से दूसरे कबीले
के लोग भी जान जाते थे कि वे युद्ध जीत कर आ रहें हैं, वे कुशल योद्धा हैं, उनसे
दूर रहना ही हितकर है। इस प्रकार मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने में भी इसका उचित प्रयोग
होता था। विजयगान होने के कारण अरब लोग सामूहिक स्थलों यथा मेलों, उत्सवों, धार्मिक
त्योहारों के अवसरों पर इस शैली में ढप बजाकर गायन किया करते थे। इन सबके पीछे
उनका मंतव्य अपने वीरों के शौर्य का बखान करना था जिससे भावी पीढ़ी प्रेरित हो सके
तथा अपने कबीले की मान मर्यादा पर आंच न आने दे। इस प्रकार बहादुरी के कारनामों के
मध्यम से भावी पीढ़ी में जोश, उत्साह और जूनून इस शैली के माध्यम से भरते थे। वीरता
का बखान ही इसका प्रमुख उद्देश्य था। एक प्रकार से ये विजयगान होते थे जिसमें
बहादुरों के युद्ध कौशल, उनके उत्साह, जोश, वीरता एवं शौर्य के साथ साथ दुश्मनों
की पराजय का भी अरबी भाषा में अतिशयोक्तिपूर्ण चित्रण किया जाता था। परन्तु
प्राप्त चार बैतों का अनुशीलन करें तो ज्ञात होता है कि चार बैत में जन्म से
मृत्यु पर्यंत तक का उल्लेख होता है।
अरब देशों के बाद ईरान में चारबैत शैली
का विकास हुआ। यहाँ यह शैली पर्याप्त मात्रा में विकसित हुई। यहाँ अरबी भाषा के
अतिरिक्त स्थानीय भाषा फ़ारसी में भी चारबैत गायी जाने लगी। चारबैत शैली ने अरब देशों से ईरान होते हुए
अफगानिस्तान का सफ़र तय किया। परंतु अफगानिस्तान के पठानों द्वारा गायी जाने के
कारण यहाँ इसे पठानी राग या कबाइली राग भी कहा जाने लगा। साथ ही पश्तो भाषा में
इसे गाया जाने लगा।
मुग़लों, तुर्कों और पठानों ने जब भारत पर आक्रमण किया तो उनके
सैनिकों के साथ ढप और चारबैत गायकी भी भारत आयी। ये सैनिक अपने मनोरंजन के लिए या
विजयोत्सव के रूप में भारतीय लोगों के समक्ष ढपों पर चारबैत गाने लगे तो भारतीय
लोग भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। यह बात अलग है कि आरंभ में इसकी भाषा
फ़ारसी थी लेकिन बाद में जब हिंदी और उर्दू का विकास हुआ तब इस कला की भाषा उर्दू
और हिंदी हो गयी।
विशेष बात यह भी स्वीकार्य है कि
जहाँ-जहाँ नबाबों का राज रहा वहां-वहां चारबैत शैली का सर्वाधिक विकास हुआ एवं इसे
फलने -फूलने का पर्याप्त अवसर मिला। आलोचकों का यह भी मानना है कि आज़ादी के पूर्व
देश के विभिन्न घरानों की पलटनों में ये पठान सैनिक बहुतायत से भर्ती होते थे और
भारतीय जनों से मिलकर फुर्सत के समय अपनी बहादुरी, विजय एवं कामयाबी के गीत गाते
थे। हैदराबाद में भी चारबैत का गायन सबसे पहले फ़ौज की बैरिकों में ही पहुंचा था
उसके बाद ही सामान्यजनों तक।
चारबैत एक लोकनाट्य - भारत में
चारबैत को विभिन्न नामों से जाना जाता है यथा पठानी लोक गीत, पठानी राग़,
कबाइली राग, अखाड़ा, पार्टियां, पठानों का लोक गीत आदि। राजस्थान में चारबैत से
मिलता-जुलता लोकनाट्य है- तुर्रा-कलंगी एवं हेलाख्याल। इन दोनों लोकनाट्यों में भी
सवाल-जबाबी एवं हाज़िर जबाबी अनिवार्य शर्त है। तुर्रा-कलंगी तो हुबहू चारबैत से
मिलता है। उसमें भी चारबैत के समान ही दो दल होते हैं -तुर्रा एवं कलंगी जो शिव और
शक्ति के प्रतीक होते हैं। स्थान विशेष के आधार पर चारबैत गायिकी के तरीके अलग-अलग
हैं परंतु दो दलों के रूप में विभक्त होकर अखाड़ों के रूप में गायन की शैली विशेष
है। अर्थात् दो दल आमने- सामने बैठकर शे'रों-शायरी में सवाल-जबाब करते हैं और एक
दूसरे पर विजय प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। जैसे - तुर्रा-कलंगी ख्याल में
“सवाल तुर्रा’ : महादेव विकराल रूप ले, जोत चन्द्रमा नजर पड़ी ।
पार्वती और गंगा लड़ती, इन दोनों में कौन बड़ी ?
‘जवाब कलंगी" : मिथ्या सायरी करते हो, बातें करते हो बड़ी-बड़ी ।
पार्वती और गंगा दोनों, बतलाओं किस रोज लड़ीं
?”2
वाद्ययंत्र-
चारबैत में गायक एक विशेष प्रकार के वाद्य यंत्र का प्रयोग करते हैं जिसे ढप कहते
हैं। ये ढप लकड़ी के फ्रेम के बने होते हैं
तथा बकरे या हरिन की खाल से मढ़े होते हैं। अर्थात एक ओर इन पर ख़ाल चढ़ाई जाती है तो दूसरी ओर यह पूरा खाली
होता है जिससे थाप ख़ाल पर पड़ने के कारण जोर की आवाज आती है। "बैत में चंग,
जिसे ये कलाकार ढपली, ढप याकि दप ही अधिक कहते हैं, बजाकर गाने के साथ -साथ घुटनों
के बल पर उछलते हुए नृत्य की विशेष अदाएं प्रस्तुत की जाती हैं।"3 राजस्थान के टोंक शहर के चार बैत गायक मुहम्मद उमर
मियां थाली को वाद्य यंत्र के रूप में भी प्रयुक्त करते हैं।
मंच
- चारबैत एक प्रकार से अखाड़ों में आयोजित की जाती है क्योंकि
इसमें दो दल परस्पर सवाल-जबाब शैली में प्रतिस्पर्धा करते हैं इसलिए चारबैत का
कार्यक्रम प्राय: बड़े मैदानों में आयोजित किया जाता है। मुकाबलें में जितनी
पार्टियां होती हैं उन्ही के अनुसार तख़्त लगाये जाते हैं और एक पार्टी के लिए एक
तख़्त दिया जाता है। दो पार्टियों के बीच में लगभग 15-20 फीट की दूरी रखी जाती है। इस
प्रकार चारबैत का कार्यक्रम प्राय: सुबह तक होते हैं क्योंकि दो दल परस्पर
सवाल-जबाबों में उलझे रहते हैं। अत: कोई समय सीमा निर्धारित न होने के कारण देर तक
दोनों दल मुकाबला करते हैं। परंतु विशेषता यह है कि जिस तुक में एक दल ने सवाल
किया है, दूसरे दल को उसी तुक में जबाब देना होता है। अर्थात् जिस बहर (धुन) और
काफ़िया (तुक) रदीफ़ में एक पार्टी ने चारबैत सुनाया, दूसरी पार्टी उसी में अपना
चारबैत सुनाती है। चारबैत का आरंभ आमतौर पर नात-ए-पाक (नात) द्वारा होता है।
नात-ए-पाक में ख़ुदा की इबादत की जाती है। उसके बाद सूफियाना कलाम, इश्किया कलाम और
बहादुरों को ख़ुश करने के लिए उनकी तारीफ़ में कविताएं पढ़ी जाती हैं।
लोक गायिकी की शैली होने के कारण एवं गायक
संगीत शास्त्र के जानकार न होने के कारण चारबैत को एक नियत राग में नहीं गाया जाता
है, अपितु यह अनेक रागों में गाया जाती है। दूसरा यह कि बिना संगीत ज्ञान के नियत
सुरों में ढालना संभव नहीं। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि परंपरागत रूप से यह शैली
पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रहती है। या फिर अपने उस्ताद से धुनें सीखकर, सुरताल
का थोड़ा ज्ञान लेकर चारबैत गाते हैं। परंतु गायिकी के लिए अच्छी आवाज़ होना पहली
शर्त है। लोक से जुडी होने के कारण इस गायिकी में उस्ताद का सम्मान अधिक होता है।
ये प्राय: शायर होते हैं और नियमित रचनाएं लिखते रहते हैं और आशु शायर होते हैं,
हाज़िर ज़बाबी इनकी विशेषता होती है।
चारबैत गायिकी का ढ़ंग क़व्वाली से बहुत
कुछ मिलता जुलता है। चारबैत की प्रत्येक पार्टी में एक मुखिया के अलावा चार, छह या
इससे अधिक सदस्य होते हैं। क़व्वाली में जहां तालियों का प्रयोग किया जाता है तो
इसमें ढप का प्रयोग किया जाता है, वह भी टीप की पंक्ति पर। बंद के बाक़ी तीन मिसरे
बिना ढप के गाये जाते हैं।
हिंदुस्तान में चारबैत पांच रंग में
होती है। हम्द, नात, आशिकाना, रकीबखाना तथा गम्माज़खानी।
हम्द में ईश्वर की स्तुति, ख़ुदा की तारीफ़ की
चारबैत लिखी जाती है जैसे -
सबकी बिगड़ी तू बनाता है ख़ुदा वंदकरीम।
पार
बड़ा तू लगाता है खुदा वन्दकरीम।
रंज़ो गम तू ही मिटाता है ख़ुदा वन्दकरीन।
तेरा हर हाल में हम बंदों पे इनआम रहा।4
(कलाम अज़ीज़)
नात
-इसमें मुहम्मद साहब की छन्दोबद्ध स्तुति की चारबैत लिखी जाती है जैसे-
आपके
सामने मेहशर में वह जलवा होगा।
तूर
पर हज़रते मूसा ने जो देखा होगा।
रब से बेपर्दह मुलाकात का मौका होगा।
वादा बखशिश क जो फ़र्माया वह पूरा होगा।
कलाम -मोहम्मद अज़हर 'ज़ाहिर' भोपाली।5
आशिकाना
- इसमें प्रेम, आशिकी, विरह, जुदाई से
संबंधित चारबैत लिखी जाती है जैसे-
दिन रेन
जुदाई में तड़पत हूँ पिया तुमरी।
परदेश गए जब से कुछ ली न ख़बर हमरी।
सब छान लियो बन -बन और दूंढ फिरी नगरी।
पायो न पतों तुमरो कित रम गये पी जा के ।
रकीबखाना-
इसमें विभिन्न विषयों के साथ साथ सौतिया डाह, प्रेम में प्रतिस्पर्धा से संबंधित
चारबैत लिखे जाते हैं।
गम्माज़खानी-
इसमें गाली -गलोच, जासूसी से संबंधित चारबैत लिखी जाती है।
चारबैत
के वर्ण्य विषय - चारबैत में हर प्रकार की शायरी गायी
जाती है। जैसे नात, बारहमासा वर्णन, त्योहार, चौमासे, बारह मासे, आशिकाना, इश्क,
जुदाई आदि। इस प्रकार चारबैत में ऋतु वर्णन होता है, बारह महीनों के तीज
त्योहारों, ऋतु प्रकृति वर्णन, चौमासे के समय बारिस की फुहारों में भीगते तन-मन
एवं आशिकों की दशा का वर्णन इसमें विशेष प्रकार से किया जाता है। साथ ही आशिकी की
जुदाई और विरह को भी विशेष तरजीह दी जाती है। "चारबैत सूफ़ियाना व आशिक़ाना
होने के साथ ही सामाजिक धार्मिक कलाम आदि से ओतप्रोत रही है।"6 चारबैत की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें
सबसे पहले हम्द अर्थात् अल्लाह की शान में ख़ुदा की इबादत के लिए नात- ए -पाक का
गायन किया जाता है जिसमें खुदा के आशीर्वाद की कामना के साथ साथ सर्वे भवंतु
सुखिनः की भावना निहित होती है और सबके मंगल की कामना की जाती है। जैसे
आओ आओ मेरे महबूबे ख़ुदा बिस्मिल्लाह।
आफ़ताबे अरबीमाहे लकब बिस्मिल्लाह।
ये
इरादा है कि अब हम्द इलाही लिखूं।
बाते
सरदारे रसूल सुबहा मसाहिल लिखूं।7
प्रस्तुत चार बैत में मुहम्मद उमर मियां उस परवर दिगार
की ख़िदमत में उनका गुणगान करना चाहते हैं। वे उसी के बारे में
लिखना चाहते हैं ।
शाक तूबा से
कलम आज में लाऊ मिस्कीन ।
आँख की तिल की सियाही मैं बनाऊं मिस्कीन।
आरिजे हूर का
कागज़ भी मैं लाऊं मिस्कीन।
इस अदब से मैं लिखूं हम्दों सना बिस्मिल्ला।8
लेखक जानता है कि उस खुदा के अलावा इस
संसार में दुखी लोगों की फ़रियाद को कोई सुनने वाला नहीं है। इसलिए कहीं और भटकने
की आवश्यकता नहीं है। वह ख़ुदा ही सबके गुनाहों को बक्श्ता है -
जुज तेरे सिवा किससे फ़रयाद करें जाकर।
सुनता तू ही सबकी हर दिल को दुखी पाकर।
उम्मीद ना
क्यों रखें ऐ फर्द सरे महशर।
सदके मैं मोहम्मद के बख्शेगा खता मोला
ये इरादा है
कि अब हम्द इलाही लिखूं ।
नाते सरदारे रसूल सुबहा मसाहिल लिखूं।
अपना में
शहरे सखून नाहीं तबाही लिखूं।
सर झुका किल्क ने यूँ मुझसे कहा बिस्मिला। 9
श्रृंगार -
बाहर
पर्दानशी बैठी है करके सिंगार।
हर घडी चिलमन उठाकर देखती
है बार-बार।
आशिके नाशाद का करती है सीना
फ़िगार।
हेफ़ यह सद हेफ़ किस बेरहम पे दिल आया है।
(कलाम-
मुहम्मद उमर मियां टोंक)
प्रेम और विरह मनुष्य के जीवन के अहम पहलू
हैं। जो मिलता है वह बिछुड़ता भी है चाहे वह प्रेमी हो, प्रियतम हो या फिर पत्नी।
टोंक के चार बैत शायर मुहम्मद उमर मियां ने बताया कि उनका प्रेम विवाह हुआ था और
वे अपनी पत्नी को 'रफ्फो' कहकर बुलाते थे। पत्नी के निधन पर परिवार के सब लोग मातम
मन रहे थे, उसी वक्त मुहम्मद उमर मियां उनकी जुदाई में चारबैत गा रहे थे -
कर दिया नाशाद मुझको, दिल को वीरां कर
दिया।
क्या
सितम मुझपे ये रफ्फो कैसा तूने कर दिया।
जिंदगी
भर का खत्म क्यों ए हदो पैमा कर दिया।
साथ रहने
की सदा खाकर कसम क्यों तोड़ दी।
क्या कहू इस दिल की हालत में दिखा सकता नहीं।
गम जुदाई का तो रफ्फो अब सहा जाता नहीं।
बिन तेरे मुझ से तो रफ्फो अब रहा जाता नहीं।
मैंने तेरी
याद में दुनियां से निसबत तोड़ थी। 10
मेरी रग- रग
में बसा फिर जुदा क्यों कर हुआ।
ख़्वाब बनके मेरी आँखों से जुदा क्यों कर हुआ।
क्या खता थी दिल रुबा मुझसे जुदा क्यों कर
हुआ।
ऐ शकिस्ता
दिल मेरे फ़रयाद अब तो छोड़ दे।
दिन
रात इसी गम में अश्कों की रवानी है ।
बरबाद हुई
जाती लो मेरी जवानी है।
ऐ फ़रद पिया अब तो यही दिल में ठानी है।
मर जाउंगी एक दिन मैं तुम देखना विष खा के। 11
साहित्य का
मुख्य विषय मानव अध्ययन माना गया है परन्तु प्रकृति के साहचर्य बिना मनुष्य की
चेष्टाओं और मनोदशाओं का वर्णन करना असंभव है। प्रकृति और मनुष्य का सम्बन्ध
स्थायी होने के कारण मन की किसी भी दशा में प्रकृति उसे प्रभावित करती है।
प्राकृतिक दृश्य संयोग-वियोग में आश्रय के हृदय में जगे हुए भावों को तीव्रतर कर
देते हैं। यही कारण है कि काव्य में प्रकृति चित्रण हर काल में मिलता है। संस्कृत
काव्य से लेकर आधुनिक काव्य तक में प्रकृति के दर्शन होते हैं। अत: प्रकृति के
अभाव में किसी सुंदर काव्य की कल्पना कुछ अधूरी-सी ही प्रतीत होती है। चारबैत में
बारहमासा का वर्णन परिलक्षित होता है। वर्षा ऋतु में जैसे ही पपीहा या मेंढक बोलता है तो विरहणी हृदय में हुक -सी उठ
जाती है
प्यारी प्यारी ये पपीहे की सदा कोयल की
कूक।
सुनके दादर की सदा उठती है मेरे दिल में हूक।
उसपे तेरी
याद करती है ज़िगर के टूक-टूक।
दिल को तड़पाती है मेरे घर अदा बरसात की।
(कलाम-
मुहम्मद उमर मियां टोंक)
वियोग की दशा में प्रकृति के समस्त उपकरण वियोग मग्न ह्रदय के ताप को बढ़ाने
वाले होते हैं। फूलों के वन में फूलने से,
भौरों के गुंजारने से, बंसत में कोकिल की
किलकार सुनकर सबके कंत विदेश से लौट आते हैं नायिका अपने प्रिय से आग्रह करती हैं
कि तुम इतने कठोर क्यों हो गये कि मेरी पीर का तुम्हें अनुभव नहीं होता। नायिका का
कोकिल की कूक सुनकर वियोग-ताप और बढ़ जाता है। हृदय में हूक-सी होने लगती है- इतना ही नहीं
काली काली घटाएँ जब घिर आती हैं तो विरहणी हृदय तड़प उठता है, प्रिय के बिना सूनी
सेज उसे काटने को दौड़ती है।
नायिका का दिन रात -रो रोकर बुरा हाल है, वह अपने प्रिय से यही फ़रियाद करती है कि अब
तो तुम आ जाओ तुम्हारे बिना ये बेरन रैन काटे नहीं कटती है -
सेज
पे तड़पूं अकेली मैं पीया की याद में।
तुम
वहां पर शाद रहो और यहाँ नाशाद मैं।
रातों
दिन रो-रो के करती हूँ यही फ़रियाद मैं।
रात
अँधेरी कैसे काटूँ पी बिना बरसात की।
आप से होकर जुदा क्यों कर जियें।
आरजू
थी हाथ से तेरे मरे।
क़त्ल की दरखास्त तुझ से क्या करें ।
तेग कब तुझ से संभाली जायेगी।
(कलाम-
मुहम्मद उमर मियां टोंक)
होली के अवसर पर गई जाने वाली चारबैत में -
जो
दिल पे गुज़रती है किससे कहे दुखयारी
प्यासा
है मोरा जीवन सुखी है मोरी सारी
रंग
दे मोरी अंगया को तू मार के पिचकारी
अमवां
के तले आजा है आज सजन होली 12
(कलाम
-मसऊद हाशमी)
उक्त विषयों के अतिरिक्त भी चारबैत में सामाजिक,
आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक विषयों के साथ साथ हास्य एवं व्यंग्य पर भी बल
दिया जाता रहा है। आमजन को किसी गंभीर विषय को समझाने के लिए ग्रामीण भाषा में भी
चारबैत गायी जाती रही है। अत: निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि मुग़लों के समय
ही भारत में इसका आगमन हुआ था। यह लोक गायिकी की एक शैली थी जिसमें अनेक विषयों को
प्रतिपादित किया जाता रहा है। वर्तमान में भी इसके अनेक उस्ताद मौजूद हैं।
पाद टिप्पणी -
1.
भानावत, डॉ. महेंद्र, भारतीय लोक
नाट्य,आर्यावर्त्त संस्कृति संस्थान, दिल्ली
2.
मील,महेन्द्र,
राजस्थानी लोकनाट्य और शेखावाटी ख्याल, पृष्ट संख्या-82
3.
भानावत, डॉ. महेंद्र, भारतीय लोक
नाट्य,आर्यावर्त्त संस्कृति संस्थान, दिल्ली
4.
संपादक
कपिल तिवारी, मेहफिले चारबैत, मध्य प्रदेश आदिवासी लोक कला परिषद् , पृष्ठ 34
5.
संपादक कपिल तिवारी, मेहफिले चारबैत, मध्य प्रदेश
आदिवासी लोक कला परिषद् , पृष्ठ 35
6.
दैनिक भास्कर, टोंक विशेषांक, एम असलम का लेख,
19 दिसम्बर, 2016
7.
मुहम्मद,
उमर मियां का हस्तलिखित अप्रकाशित चारबैत संग्रह,
टोंक
8.
मुहम्मद, उमर मियां का हस्तलिखित अप्रकाशित
चारबैत संग्रह, टोंक
9.
मुहम्मद, उमर मियां का हस्तलिखित अप्रकाशित
चारबैत संग्रह, टोंक
10.
मुहम्मद, उमर मियां का हस्तलिखित अप्रकाशित
चारबैत संग्रह, टोंक
11.
मुहम्मद, उमर मियां का हस्तलिखित अप्रकाशित
चारबैत संग्रह, टोंक
12.
संपादक कपिल तिवारी, मेहफिले चारबैत, मध्य प्रदेश
आदिवासी लोक कला परिषद्, पृष्ठ 115
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