Saturday, April 4, 2020

जयशंकर प्रसाद और मोहन राकेश के नाटकों के स्त्री पात्रों का तुलनात्मक अध्ययन (ध्रुवस्वामिनी और आधे-अधूरे नाटकों के विशेष सन्दर्भ में)



जयशंकर प्रसाद और मोहन राकेश के नाटकों के स्त्री पात्रों का तुलनात्मक अध्ययन
(ध्रुवस्वामिनी और आधे-अधूरे नाटकों के विशेष सन्दर्भ में)
                                                              
वर्तमान युग तुलनात्मक साहित्य का युग है तथा इस साहित्य का फ़लक बहुत ही विस्तृत है । इसमे एक ही भाषा के दो रचनाकारों, दो रचनाओं या किंही दो भिन्न भाषाओँ, दो भिन्न भाषाओँ के रचनाकारों, दो भिन्न भाषाओँ की दो कृतियों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है । आजकल तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन के संदर्भ में प्रमुख रूप से दो दृष्टिकोण प्रचलित हैं । एक परंपरागत दृष्टिकोण है, जिसमें दो भाषाओं में लिखे गए साहित्य की परस्पर तुलना की जाती है । बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन को लेकर एक दूसरे दृष्टिकोण को भी स्वीकारा गया । इसके अन्तर्गत एक ही भाषा के साहित्य में सांस्कृतिक अंतर को केन्द्र में रखकर साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन किया जा रहा है । वर्तमान दौर में साहित्य दो प्रमुख धाराओं में विभक्त है एक मुख्य धारा का साहित्य और दूसरा हाशिए का साहित्य । हाशिए के साहित्य ने ही आधुनिक विमर्शों को जन्म दिया है । इन  विमर्शों में दलित विमर्श, नारी विमर्श, आदिवासी विमर्श, विकलांग विमर्श तथा किसान विमर्श अपनी विशिष्ट पृष्ठभूमि के साथ मुख्य धारा के साहित्य से इतर खड़ा है । इस प्रकार मुख्य धारा के साहित्य और इन प्रचलित विमर्शों  के साहित्य में भी विशिष्ट अंतर को रेखांकित करना तुलनात्मक साहित्य के अन्तर्गत ही आता  है । यहाँ तुलनात्मक साहित्य की इस नई दिशा के अंतर्गत ध्रुवस्वामिनी और आधे-अधूरे नाटकों के स्त्री पात्रों का तुलनात्मक अध्ययन करने का  प्रयास किया गया है ।
‘ध्रुवस्वामिनी’ और ‘अधूरे-अधूरे’ नाटकों के चयन के पीछे आग्रह यह रहा है कि दोनों ही नाटकों में  कथानक, पात्र और उद्देश्य की दृष्टि से कुछ साम्य दृष्टिगत होता है । दोनों ही नाटकों  में पारिवारिक विघटन कथानक के मूल में है । यह बात अलग है कि ध्रुवस्वामिनी नाटक में परिवार के टूटन का आधार रामगुप्त की स्वार्थी प्रवृतियाँ और उसका व्यक्तित्वहीन होना है क्योंकि वह एक कायर, नपुंसक और क्लीव पुरुष है;जो अपनी ही पत्नी को पर पुरुष शकराज की अंकशायनी बनने को भेज देता है जबकि आधे-अधूरे नाटक में परिवार के टूटन का आधार सावित्री का अत्यधिक महत्वकांक्षी होना और महेन्द्रनाथ का बेरोजगार होना है । दोनों ही नाटकों में प्रधान पात्र स्त्री हैं । जहां ध्रुवस्वामिनी नाटक का कथानक इसकी प्रमुख पात्र ध्रुवस्वामिनी के इर्द-गिर्द घूमता है तो आधे-अधूरे के मूल में सावित्री है । दोनों ही नाटकों में नायिका अपने पति से दुखी हैं । ध्रुवस्वामिनी का पति राम गुप्त कायर,नपुंसक और क्लीव है जो अपनी ही पत्नी को दूसरे पुरुष शकराज की अंकशायिनी बनने को भेज देता है तो आधे-अधूरे में सावित्री का पति महेन्द्रनाथ बेरोजगार है जो सावित्री की दृष्टि में आधे से भी आधा पुरुष है । दोनों ही नाटकों में प्रेम की समस्या प्रधान समस्या है ।ध्रुवस्वामिनी चन्द्रगुप्त से प्रेम करती है परंतु विवाह कायर रामगुप्त के साथ हो जाता है  तो वह चाहकर भी चन्द्रगुप्त का वरण नहीं कर सकती है जबकि आधे-अधूरे में सावित्री पूर्ण पुरुष की तलाश में ही कभी जुनेजा के साथ तो कभी मनोज के साथ तो कभी सिंघानिया के साथ तो कभी महेन्द्रनाथ के साथ समय व्यतीत करती है ।  दोनों ही नाटकों में स्त्री का विद्रोही स्वरुप सामने आता है । ध्रुवस्वामिनी रामगुप्त का विरोध  करती  है तो आधे-अधूरे में सावित्री महेन्द्रनाथ का विरोध करती है,यद्यपि विरोध का स्वरुप भी है। दोनों ही नाटकों में स्त्री-पुरुष संबधों की चर्चा है साथ ही साथ स्त्री समस्या को भी दोनों ही नाटक प्रमुखता से उठाते हैं ।
ध्रुवस्वामिनी और आधे-अधूरे दोनों ही नाटकों की पृष्ठ भूमि कुछ मायनों में  अलग-अलग भी है । जहाँ प्रसाद ने नारी उदात्तता को इस नाटक में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है तो वहीं राकेश ने आधे-अधूरे में नारी की सबलताओं और दुर्बलताओं को प्रकट किया है । ध्रुवस्वामिनी नाटक के सभी नारी पात्र उदात्त हैं, गरिमामय है उनकी चारित्रिक विशेषताएँ श्रेष्ट हैं वे सब किसी न किसी रूप में दूसरों के लिए परोपकार की भावना से जुड़े हुए हैं । कोमा शकराज से प्रेम करती है और उसी की प्रवंचना की  शिकार होती है परन्तु स्त्री धर्म के मार्ग का अनुसरण करते हुए वह चन्द्रगुप्त के शिविर में जाती है और अपने प्रवंचक पति के शव की याचना करती है और उसके साथ सती होना चाहती है । जबकि आधे-अधूरे नाटक में राकेश ने नारी को आधुनिक संदर्भों में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है । इस नाटके सभी स्त्री पात्र स्व की कोटर में बंध हैं,चाहे वह सावित्री हो,बिन्नी हो या फिर सबसे छोटी लड़की किन्नी हो । उनमें किसी के भी प्रति सहानुभूति नहीं है, सभी में मानवीय संवेदनाओं का अभाव है और सभी अपनी आजादी से जीने वाले पात्र हैं ।
हिंदी साहित्य में जयशंकर प्रसाद और मोहन राकेश दोनों ही प्रसिद्ध एवं चर्चित नाटककार हैं । जयशंकर प्रसाद ने अपने नाटकों में ऐतिहासिक स्त्री पात्रों का चित्रण किया है वहीं राकेश ने भी आधे-अधूरे को छोड़कर अपने अन्य नाटकों में ऐतिहासिक स्त्री पात्रों को स्थान दिया है । प्रसाद की भारत के अतीत के गौरव पूर्ण इतिहास के प्रति गहरी श्रध्दा थी और वे भारतीय संस्कृति के उदात्त गुणों के पोषक थे इसी कारण वे नारी के प्रति अत्यधिक सम्मान का भाव रखते थे, उसे आदरणीया और और श्रध्देय मानते थे। यही कारण है कि उन्होंने अपने साहित्य में नारी चरित्रों को कहीं भी किसी भी रूप में लांछित, कलुषित नहीं होने दिया। प्रसाद जब कहीं भी किसी भी तरह से नारी को पीड़ित, शोषित या अपमानित होते देखते हैं तो उनका मन एक प्रकार के आक्रोश से भर उठता है और वह आक्रोश उनकी रचनाओं में अभिव्यक्ति पाता है । वहीं मोहन राकेश ने स्त्री के उदात्त गुणों का बखान करते हुए उसके वास्तविक स्वरुप को भी अपने नाटकों में उठाया है । आलोचकों के अनुसार प्रसाद का मन केवल इतिहास और स्त्री को महिमा मंडित करने में ही रमता रहा अर्थात नारी के आदर्श रूप की अभिव्यक्ति में ही रमता रहा जबकि राकेश ने नारी की वास्तविक स्थिति, उसकी दुर्भावनाओं, उसकी बुराईयों और उसकी अच्छाईयों को भी समान रूप से पाठकों के सामने लाने का सफल प्रयास किया । राकेश का मानना था कि आधुनिक स्त्री पूर्णतया पौराणिक पात्र सावित्री नहीं है, उसका मन नाना प्रकारों के विकारों से युक्त है ।    
ध्रुवस्वामिनी प्रसाद का सन 1933 में प्रकाशित सामाजिक समस्या प्रधान नाटक है और यह वह काल था  जिसमें स्त्री की सामाजिक स्थिति किसी भी दृष्टि से सुदृढ़ नहीं थी । इस काल की नारी अपने सम्मान और अधिकारों से पूर्णतया वंचित थी। समाज में नारी की स्थिति बहुत ही दयनीय थी। उसे किसी भी प्रकार के अधिकार प्राप्त नहीं थे   समाज में बाल विवाह,अनमेल विवाह का प्रचलन थानारी की इच्छा,अनिच्छा की कोई अहमियत नहीं थीपिता जिस किसी के साथ भी उसका विवाह करने के लिए स्वतंत्र था । विधवा विवाह और पुनर्विवाह वर्जित थे परंतु परिवार  पुरुष सत्तात्मक होने के कारण विधुर विवाह का प्रचलन था । बहु विवाह प्रथा भी कायम थी। संसार नई करवट ले रहा था । परंतु समाज अभी भी दकियानूसी विचारों से ग्रसित था । यद्यपि देश में स्वतंत्रता का बिगुल बहुत पहले बज चुका था । कई आंदोलन भी हो चुके थे। समाज सेवी नारी की दयनीय स्थिति को देख कर चिंतित थे। अनेक समाज सुधारकों ने पाश्चात्य देशों का अनुसरण कर स्त्री को पुनर्विवाह और तलाक के अधिकार को मान्यता दी। परंतु अनेक दकियानूसी विचारधारा के लोगों ने धर्म की आड़ लेकर इसका विरोध किया कहा कि तलाक और पुनर्विवाह एक घोर धार्मिक अपराध है है क्योंकि भारतीय संस्कृति में तो एक जन्म का नहीं अपितु सात जन्म का साथ माना जाता है और यह बंधन कैसे छूटे ? जो भी स्त्री इस बंधन को छोड़ने की सोचती है वह परिवार और समाज के लिए नर्क का द्वार खोलती है। धर्म के ठेकेदारों द्वारा इस प्रकार से तीव्र विरोध करने के कारण सामाजिक चिंतकों को गहरा अघात लगा परंतु प्रसाद ने इतिहास और धर्म शास्त्र के भूले-बिसरे पृष्ठों की छान-बीन कर प्रमाणित किया कि विशेष परिस्थितियों में नारी को भी पुनर्विवाह का अधिकार है । जिसमें उन्होंने नारी के अधिकारों, पुरुष के चंगुल से मुक्ति, विवाह विच्छेद या तलाक के अधिकार, प्रेम-विवाह अन –इच्छित विवाह, धर्म, समाज, परिवार, राजनीति में नारी के महत्त्व और अधिकार की बात उठायी है। प्रस्तुत नाटक में प्रसाद ने यह जानने का प्रयास किया है कि शास्त्र,राजसत्ता,समाज एवं प्रथाओं में नारी का स्थान क्या है ? उसकी हैसियत क्या है? उसके बंधन किस प्रकार के हैं ? इन्ही प्रश्नों को खोजने की चेष्टा की है प्रसाद ने। इस नाटक में प्रसाद ने पुरुष और स्त्री के भौतिक व्यक्तित्व की एक वस्तुपरक तुलना की है । इस प्रकार प्रसाद ने नारी मुक्ति को जीवन मुक्ति से जोड़ा है। नाटककार का मानना है कि पुरुष यदि गौरव से नष्ट और आचरण से पतित है तो स्त्री के लिए उसका साथ करने के योग्य नहीं है। यह केवल विवाह के संबंध में ही नहीं,संपूर्ण जीवन व्यवस्था के बारे में भी एक महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि है। विवाह एक तकनीकी बंधन नहीं, एक जीवन व्यवस्था है ,जिसे धर्म के अनुसार चलना चाहिए। इस प्रकार यह नाटक नारी मुक्ति का नाटक है,स्त्री के अधिकारों का घोषणा-पत्र है।  वहीं  दूसरी ओर मोहन राकेश ने ‘आधे- अधूरे’ नाटक में सावित्री के चरित्र को आधुनिक परिवेश में चित्रित कर समाज में उसकी वास्तविक स्थिति का चित्रण किया है। प्रस्तुत नाटक में राकेश ने स्त्री-पुरुष के बीच के लगाव व तनाव, पारिवारिक विघटन, मानवीय संतोष के अधूरेपन और व्यक्तियों की विभिन्नता के बावजूद मानवीय अनुभव की समानता को उद्घाटित किया है या यह कहा जा सकता है कि आधे-अधूरे राकेश का एक यथार्थवादी समस्यापरक नाटक है जिसमें शहरी माध्यमवर्गीय परिवार की विसंगतियों, आर्थिक दबाओं, पारिवारिक तनावों, सामाजिक रिश्तों के खोखलेपन एवं व्यक्ति के अधूरेपन की समस्या को यथार्थ के धरातल पर प्रस्तुत किया गया है ।
 प्रसाद के ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक में स्वयं ध्रुवस्वामिनी, मंदाकिनी और कोमा प्रमुख स्त्री पात्र है जबकि राकेश के ‘आधे-अधूरे’ नाटक में सावित्री,बिन्नी और किन्नी प्रमुख स्त्री पात्र हैं। प्रसाद ने ध्रुवस्वामिनी, मंदाकिनी और कोमा को उदात्त स्त्री चरित्रों के रूप में प्रस्तुत किया है जहाँ  ध्रुवस्वामिनी अपने राष्ट्र,धर्म और प्रेम की रक्षा कर, कोमा अपने प्रेम की उदात्तता का परिचय देकर और मंदाकिनी अपने स्त्री धर्म को निभाते हुए कर्तव्य पथ का अनुसरण कर नाटक के अमर पात्रों की अग्रणी पंक्ति में आ जाती हैं ।
जयशंकर प्रसाद ने ध्रुवस्वामिनी को एक शोषित और पीड़ित नारी के प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत किया है । राज परिवार में जन्म लेने के उपरांत भी उसे किसी से भी स्नेह, प्यार और सम्मान प्राप्त नहीं होता है। अपितु दो-दो बार, प्रथम बार पिता द्वारा तो दूसरी बार पति द्वारा; उसे उपहार की वस्तु बनाया जाता है । उसे अपने ही घर में स्नेह- वंचिता, परित्यक्ता और बंदी का-सा जीवन व्यतीत करने को बाध्य होना पड़ता है । रामगुप्त पति होकर भी अपनी शंकालु प्रवृति के कारण उसे पहरे में रखता है और पहरेदार भी गूंगे-बहरे ।
 ‘आधे –अधूरे’ नाटक की धुरी पात्र है सावित्री। सावित्री महेन्द्रनाथ की पत्नी है परन्तु वह उसे आधा-अधूरा समझती है और पूर्ण पुरुष की चाह में परपुरुषों के पीछे भागती रहती है अर्थात काल्पनिक पूरेपन की तलाश में वह भटकती रहती है। मोहन राकेश ने सावित्री का किरदार एक महत्वाकांक्षी औरत को केंद्र में रख कर रचा है।  सावित्री की चाह उस हर एक वस्तु को पाने की है जो संसार में उसे दिखाई दे जाती है इसी कारण वह धन की प्यासी बनकर हर एक व्यक्ति,उसके पद और प्रतिष्ठा के पीछे भागती रहती है । राकेश के आधे-अधूरे की सावित्री का चरित्र ध्रुवस्वामिनी के चरित्र से सर्वथा भिन्न है। जहाँ ध्रुवस्वामिनी स्नेहसिक्त, कोमल हृदया,त्यागी,करुणा, समर्पण और क्षमा की देवी है वहीं सावित्री में उक्त गुणों का सर्वथा अभाव है। सावित्री नौकरीपेशा और एक मात्र घर चलाने वाली एवं महेन्द्रनाथ के घर घुसरा होने के कारण घर की सर्वेसर्वा है उसकी आज्ञा के बिना घर में पत्ता तक नहीं हिलता उसका पति महेन्द्रनाथ दब्बू किस्म का है । वह सावित्री के सामने बोल भी नहीं पाता है ,यहाँ तक कि उसके सामने ही वह पर पुरुषों के साथ घूमने निकल जाती है और वह बेचारा देखता रहता है ।
 ध्रुवस्वामिनी और सावित्री दोनों ही वैवाहिक जीव न से असंतुष्ट है । यद्यपि दोनों की असंतुष्टि के आधार अलग-अलग हैं । ध्रुवस्वामिनी अनमेल विवाह तथा उसके बाद की परिस्थितियों के कारण असंतुष्ट है जबकि सावित्री चुनाव की समस्या के कारण असंतुष्ट है ।अत: एक शोषण के कारण तो दूसरी अतिशय स्वछंदता के कारण असंतुष्ट है। ध्रुवस्वामिनी का पति कायर है, नपुंसक है, क्लीव है जो अपनी ही पत्नी को पर पुरुष की अंकशायनी बनाने को तत्पर हो जाता है तो सावित्री का पति घर घुसरा है, पराश्रयी है, निक्कमा है, बेरोजगार है, विवेकहीन है जो हर हाल में घर में ही घुसा रहता है और सावित्री के अनुसार वह दूसरों पर ही अवलंबित रहता है। ध्रुवस्वामिनी रामगुप्त से हुए विवाह से पूर्व ही चन्द्रगुप्त से प्रेम करती है, उसका यह प्रेम भी परिस्थितियों की ही देन है । वह उसी के साथ वैवाहिक जीवन जीना चाहती है जबकि सावित्री ऐश्वर्य और धन की प्यासी है। वह सोसायटी में अपना रुतबा जमाना चाहती है। इसीलिए अपने ऑफिस बोस  को बार-बार घर बुलाना चाहती है। आरम्भ में जब महेन्द्रनाथ के पास बिजनेस था, अपार पैसा था तो वह उसके पीछे दौड़ी चली आयी और आज जब उसका बिजनेस ठप्प हो गया और वह बेकार हो गया तो उसकी नज़रों में आधा-अधूरा पुरुष रह गया । सावित्री के चरित्र को इंगित करते हुए सिद्धनाथ कुमार ने इंगित किया है सावित्री की असन्‍तोषजनित विक्षुब्‍धता ही उसकी भटकन की सहज परिणति बनती है । सावित्री की ट्रेजेडी एक साथ ही अनेक भौतिक उपलब्धियों के प्रयत्‍न में हारने वाले व्‍यक्ति की ट्रेजेडी है।1 इस प्रकार सावित्री की दृष्टि में व्यक्ति की सम्पति महत्वपूर्ण है न कि व्यक्ति और प्रेम । यही कारण है कि वह महेन्द्रनाथ की पूंजी के प्रेम के कारण उससे विवाह तो करती है परन्तु आज जब महेन्द्रनाथ बेरोजगार है तो सावित्री अन्य पुरुषों से प्रेम करने लगती है । सावित्री की मूल समस्या है एक साथ बहुत कुछ पाने की । तुम्हारे लिए जीने का मतलब  रहा है-कितना कुछ एक साथ होकर, कितना कुछ एक साथ पाकर और कितना कुछ ओढ़कर जीना । वह उतना कुछ कभी तुम्हे किसी एक जगह न मिल पाता , इसलिए जिस किसी के साथ भी जिंदगी शुरू करती,तुम हमेशा इतनी ही खाली,इतनी ही बेचैन बनी रहती ।“2 वह एक साथ पद, प्रतिष्ठा सब कुछ पाना चाहती है जबकि ध्रुवस्वामिनी की इच्छा अपना प्रेम पाने की है । यही मूल अंतर है ध्रुवस्वामिनी और सावित्री में । ध्रुवस्वामिनी घर चाहती है तो सावित्री स्वर्ण पिंजर ।    
ध्रुवस्वामिनी का चरित्र परंपरागत भारतीय नारी और आधुनिक नारी का सुंदर समन्वय है । नाटक के आरम्भ में वह अनिश्चित परिस्थितियों को भी अपनी नियति मानकर उसे स्वीकार करती रहती है और चन्द्रगुप्त के प्रेम को ह्रदय में छिपाकर परिस्थितियों के कारण प्राप्त पति रामगुप्त के साथ भी निर्वाह करने को तैयार हो जाती है । वह परंपरागत भारतीय नारी के समान अपने पति के उत्पीड़न को आँखे मूँद कर सहन करती है परन्तु जब रामगुप्त उसे शकराज  के पास भेजने को तैयार होता है तो उसका आहत स्वाभिमान विद्रोह में परिणित हो जाता है । ध्रुवस्वामिनी परंपरा को तोड़ने वाली नारी है । वह उस विवाह संस्था का विरोध करती है जो कायर, क्लीव,  नपुंसक पति का साथ दे । इसीलिए वह कहती है मैं उपहार में देने की वस्तु शीतलमणि नहीं हूँ मुझमें भी रक्त की तरल लालिमा है मेरा ह्रदय उष्ण है और उसमें आत्म सम्मान की ज्योति हैउसकी रक्षा मैं ही करुँगी।“3 जबकि सावित्री की समस्या ध्रुवस्वामिनी के जैसी नहीं है उसका पति महेंद्रनाथ कायर,क्लीव और नपुंसक नहीं है अपितु वह अपनी पत्नी से अत्यधिक प्रेम करता है । इसी बात को इंगित करते हुए जुनेजा कहता है “फिर भी कहता हूँ कि वह इसे बहुत प्यार करता है ।“4
ध्रुवस्वामिनी का व्यक्तित्व स्थिर है जबकि सावित्री का व्यक्तित्व अस्थिर है। सावित्री अपनी इस अस्थिरता के कारण ही किसी भी व्यक्ति के प्रति पूर्णतया समर्पित नहीं हो पाती है और नहीं किसी को कर पाती है अर्थात् न किसी को अपना बना पाती है और न किसी की हो पाती है । एक काल्पनिक पूर्ण पुरुष की खोज में वह प्रयोग करती चली जाती है। अपनी असीमित आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अलग-अलग पुरुषों यथा जगमोहन, जुनेजा, मनोज और सिंघानिया को अपना माध्यम बनाती है। ये सभी पुरुष अपनी वासनाओं की तृप्ति कर उसे उसी हाल में छोड़ देते हैं । मनोज तो उसकी पुत्री को ही ले भागता है। ये स्त्री अपना सर्वस्व लुटाकर भी अय्याशी की जिंदगी जीना चाहती है। यही कारण है कि नाटक के समापन के समय वह सदा-सदा के लिए महेन्द्रनाथ का घर छोड़कर जगमोहन के साथ रहना चाहती है जबकि  जगमोहन तो उसे मात्र उपभोग की वस्तु समझता है । निर्देशक के वक्तव्य में ओम शिवपुरी ने इस नाटक की भूमिका में लिखा है “यह आलेख एक स्‍तर पर स्‍त्री-पुरुष के बीच के लगाव और तनाव का दस्‍तावेज है। महेन्‍द्रनाथ सावित्री से बहुत प्रेम करता है। सावित्री भी उसे चाहती रही होगी, लेकिन ब्‍याह के बाद महेन्‍द्रनाथ को बहुत निकट से जानने पर उससे वितृष्‍णा होने लगी, क्‍योंकि जीवन से सावित्री की अपेक्षाएं बहुत कटु हो गई है। एक ओर घर को चलाने का असह्य बोझ है तो दूसरी ओर जिंदगी में कुछ भी हासिल न कर पाने की तीखी कचोट। अपने बच्‍चों के बरताव से अत्‍यंत तिक्‍त हुई सावित्री बची-खुची जिंदगी को ही एक पूरे, संपूर्ण पुरुष के साथ बिताने की आकांक्षा रखती है। पर यह आकांक्षा पूरी नहीं हो पाती, क्‍योंकि संपूर्णता की तलाश ही शायद वाज़िब नहीं। ।“5 यहाँ भी  सावित्री के चरित्र और ध्रुवस्वामिनी के चरित्र  में अंतर देखा जा सकता है । ध्रुवस्वामिनी अपने प्रेम के पीछे भागती है और एक अवस्था में तो वह अपने क्लीव पति को भी स्वीकार करने को तैयार हो जाती है । वह अत्यंत ही दीन  भाव से राजा से प्रार्थना करती है “ राजा आज में शरण की प्रार्थनी हूँ । मैं स्वीकार करती हूँ कि आज तक मैं तुम्हारे विलास की सहचरी नहीं हुई,किंतु वह मेरा अहंकार चूर्ण हो गया । मैं तुम्हारी होकर रहूंगी ।“6 ध्रुवस्वामिनी परोपकारी है,वह दूसरों की पीड़ा को समझती है। वह स्वयं कष्ट झेलकर दूसरों को सुखी देखना  चाहती है । यही कारण है कि जब शकराज के पास उसे भेजा जाता है तो चन्द्रगुप्त भी साथ जाना चाहता है परन्तु वह उसका विरोध करती है। साथ ही उसमें स्त्रियोचित गुण भी हैं । इन्ही गुणों के कारण वह कोमा की मदद करती है।  जबकि सावित्री एक सुविधाभोगी नारी है अपने बलबूते पर तो वह उन सुविधाओं का उपभोग करने में असमर्थ है; क्योंकि परिवार की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ नहीं हैं, फिर इन सुविधाओं का उपभोग करने के लिए उसे अन्य पुरुषों की ओर आकर्षित होना पड़ता है और उनकी अंकशायनी बनना पड़ता है । महेन्द्रनाथ बेरोजगार है और सावित्री की दृष्टि में एक निठल्ला, बेकार और पराधीन पुरुष है। जिसकी अपनी कोई अहमियत या माद्दा नहीं है। इसीलिए सावित्री इसकी खोज अन्य स्थानों पर, अन्य पुरुषों (जुनेजा,मनोज, सिंघानिया, आदि) में करती रहती है। महेन्द्रनाथ तो उसकी दृष्टि में पूर्णतया अधूरा पुरुष है। वह अधूरे पुरुष को स्वीकार नहीं कर पाती। यही तनाव, संशय और कुंठा इन दोनों की नियति बन गई है । महेन्द्रनाथ भी स्वयं को बार-बार घिसने वाला रबर का एक टुकड़ासमझता है जिसकी परिवार के सदस्यों की दृष्टि में कोई अहमियत नहीं है। यही कारण है कि उनके घर में  ‘इतनी गर्द भरी रहती है हर वक्त इस घर में । पता नहीं कहाँ से चली आती है ।’ वस्तुतः यह ‘गर्द’ और कुछ नहीं पारिवारिक घुटन, संत्रास, अविश्वास और विचारों की ‘गर्द’ है जो इस परिवार में जम चुकी है ।  इस घर में ही अपने अंदर कुछ ऐसी चीज है जो किसी भी स्थिति में किसी को भी स्वाभाविक नहीं रहने देती है जिसे ‘हवा’ कहा जा सकता है जो सावित्री और महेन्द्रनाथ के बीच गुजरती है तो कभी  बिन्नी और मनोज के बीच से गुजरती है    
             ध्रुवस्वामिनी एक सीधी,सरल और निष्कपट नारी है । उसके मन में किसी प्रकार की गाँठ नहीं  है । थोड़ा –सा प्रेम तंतु पाकर वह खड़गधारणी के सामने अपना मन खोल देती है जबकि सावित्री एक जटिल चरित्र है जिसे समझ पाना न केवल कठिन है अपितु नामुमकिन भी है । उसके भीतर और बाहर में गहरा असामंजस्‍य है, और उसके चेहरे भी अनेक हैं । वह परिस्थितियों के फेर में पड़कर अनदेखे पूर्ण पुरुष की तलाश में भटकती रहती है । हर एक व्यक्ति ने उसका उपभोग किया और छोड़ दिया । इसीलिए वह कहती है ‘“सब के सब एक से ।  बिलकुल एक से हैं आप लोग । अलग-अलग मुखौटे,पर चेहरा ?   चेहरा सबका एक ही । ”7
सावित्री भौतिक संसाधनों के ही पीछे लगी रहती है वह अय्याशी की जिंदगी जीना चाहती है । सावित्री  की भटकन देख कर लगता है कि वह व्‍यक्तियों के पीछे नही, पैसे और प्रतिष्‍ठा के पीछे भागती रही । यही कारण  है कि वह ऊँचे वेतन वाले, रुतबे वाले  और प्रतिष्ठा वाले व्यक्ति के पीछे भागती रहती है । उसके बेटे ने उसे बहुत सही समझा है ‘‘उसकी किसी ‘बड़ी’ चीज की वजह से । एक को कि वह इंटेलेक्चुअल बहुत बड़ा है । दूसरे को कि उसकी तनख्वाह पांच हजार है । तीसरे को कि उसकी तख्ती चीफ़ कमिश्नर की है । जब भी बुलाया है,आदमी को नहीं – उसकी तनखाह को, नाम को, रुतबे को बुलाया है।“8 इसी  कारण अशोक  मानता है  कि ‘जिनके आने से हम जितने छोटे हैं, उससे और छोटे हो जाते हैं अपनी नजर में ।’  सावित्री की दृष्टि में व्यक्ति का महत्त्व नहीं  अपितु पद और पैसे का महत्त्व है । सावित्री व्‍यक्ति की अपेक्षा दुनिया की चमक-दमक-वाली दूसरी बहुत सारी चीजों के पीछे दौडती रही, पर सारी चीजों का किसी एक ही बिन्‍दु पर या एक ही व्‍यक्ति में मिल पाना सम्‍भव नहीं होता। जुनेजा उससे कहता है- वह उतना कुछ कभी तुम्‍हें  किसी एक जगह नहीं मिल पाता, इसलिए जिस किसी के साथ भी जिन्‍दगी शुरू करती, तुम हमेशा इतनी ही खाली, इतनी ही बेचेन बनी रहती।9 परन्तु यह भी एक विडंबना ही है कि पूरे आदमी की खोज में, दूसरे शब्‍दों में, पूर्णता की खोज में भटकने वाली सावित्री स्‍वयं अपूर्ण है, आधी-अधूरी है । सावित्री के घुटनभरे दुखी जीवन का कारण यह भी है कि वह व्‍यक्ति से नहीं, बल्कि उससे सम्‍बद्ध 'वस्‍तु' से जुडना चाहती  है और ये वस्तु है पैसा,रुतबा और नाम । सावित्री  को चाहिए एक पूर्ण पुरुष ।  ‘वह एक पूरा आदमी चाहती है अपने लिए एक पूरा आदमी ।’ उसे ‘लिजलिजा- सा’ और ‘चिपचिपा- सा’ महेन्द्रनाथ जैसा आदमी नहीं चाहिए । मोहन राकेश ने आधे अधूरे नाटक में घर का आर्थिक बोझ उठा रही सावित्री जैसी भारतीय स्त्री की स्थिति का यथार्थ चित्रण किया है । वह इतनी टूट चुकी है मेरे पास बहुत साल नहीं है जीने को । पर जितने हैं, उन्हें मैं इसी तरह निभाते हुए नहीं काटूंगी । मेरे करने से जो कुछ हो सकता था इस घर का, हो चुका, आज तक । मेरी तरफ से अब अंत है उसका, निश्चित अंत ।10    
ध्रुवस्वामिनी नाटक में ध्रुवस्वामिनी, मंदाकिनी और कोमा  प्रमुख स्त्री पात्र हैं  ध्रुवस्वामिनी प्रेम को सर्वस्व मानती है । यद्यपि बाल्यावस्था में उसका वाग्दान शकराज से हो जाता है परन्तु उसके पिता द्वारा समुद्र गुप्त को दिए गए वचनानुसार उसे समुद्रगुप्त के उतराधिकारी के साथ विवाह करना है । रामगुप्त ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण राजगद्दी पर बैठता है परंतु वह नपुंसक,कायर और क्लीव पुरुष है । ध्रुवस्वामिनी चन्द्रगुप्त से प्रेम करती है ।
बिन्नी अपनी माँ सावित्री का युवा संस्करण है । उसके चरित्र पर घर-परिवार के मुखिया महेन्द्रनाथ और सावित्री के सद-असद  व्यवहार का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है ।  राकेश ने युवा पीढ़ी का चरित्रांकन मनोवैज्ञानिक धरातल पर किया है । बिन्नी का परिचय देते हुए पात्र परिचय में लेखक ने कहा है “उम्र बीस से ऊपर नहीं । भाव में परिस्थितियों से संघर्ष का अवसाद और उतावलापन । कभी -कभी उम्र से बढ़कर बड़प्पन । साड़ी मां से साधारण । पुरे व्यक्तित्व में बिखराव ।“11 इस प्रकार नाटककार ने मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बिन्नी के  चरित्र का जो वर्णन किया है वह सत्य के अत्यधिक नजदीक है । वास्तव में बिन्नी आंतरिक रूप से घर-परिवार की टूटन-घुटन और कुंठा अपने साथ लेकर ही मनोज के साथ जाती है।उसने जैसा वातवरण अपने पिता के घर देखा वह उसके मन मस्तिष्क पर छा गया और चाहते हुए भी वह उससे बाहर निकल नहीं पाती है । वह मनोज का साथ इसलिए निभा नहीं पाती है कि परिवार का प्रभाव उसके मन और मस्तिष्क पर छाया रहता है। वह अपने मां – बाप के अस्वाभाविक व्यवहार से सदैव एक तनाव से घिरी रहती है,वही व्यवहार वह मनोज से करती है। उसे अपना घर चिड़िया घर जैसा लगता है । वह उस चिड़िया में अवसर पाते ही अपने माँ के प्रेमी के साथ भाग भी जाती है । अपनी माँ सावित्री जैसी अनचाही स्थितियां ,घुटन और अपने परिवार का तनाव भरे वातावरण में रहने की एक अमर्यादित विवशता उसके व्यक्तित्व में है ।  इसी कारण मनोज का उसके प्रति कथन उचित ही प्रतीत होता है “मैं इस घर से ही अपने अंदर कुछ ऐसी चीज लेकर गई हूँ जो किसी भी स्थिति में मुझे स्वाभाविक नहीं रहने देती है ।“12 बिन्नी के चरित्र की एक और बड़ी खूबी है कि वह अपने सुधार के लिए नहीं अपितु अपनी मां सावित्री, भाई अशोक और छोटी बहिन किन्नी के लिए ज्यादा चिंतित रहती है  और स्वयं के बारे में कम सोचती है।
आधे-अधूरे नाटक की सबसे छोटी पात्र है किन्नी। वह अपनी मां के असफल जीवन की प्रक्रिया एवं प्रतीक बनकर ही नाटक में प्रस्तुत होती है । वह भी उसी ढांचे में ढलती जा रही जिस ढांचे की उसकी मां सावित्री और बहिन बिन्नी है। वह आवारा किस्म की लड़की है जो जिद्दी,मुंहफट,वाचाल,स्वकेंद्रित,अनैतिक कृत्यों में रूचि लेने वाली है । वह अपनी मां की लाडली है और उसके अत्यधिक लाड-प्यार के कारण ही पूर्णतया बिगड़ जाती है इसीलिए  बिन्नी कहती भी है अगर हम इतना बोल जाते तो राशें खींच ली जाती । वह अबोध होते हुए भी उसका भाव और वस्तुबोध काफी विकसित है । अपनी माँ और भाई की डाट और मार खा-खा कर ढीठ हो जाती है साथ ही साथ अभद्र, बेपरवाह तथा विद्रोही बन जाती है। यही कारण है कि उसके स्वर, हाव-भाव और चाल तक में विद्रोह की स्पष्ट झलक दिखाई देती है ।  अभी वह अबोध है मात्र 13 वर्ष की फिर भी स्त्री-पुरुषों के संबंधों में रूचि लेने लगती  है। वह अपनी सखी सुरेखा के समक्ष दाम्पत्य जीवन में होने वाले सारे क्रिया-कलापों का चित्रण करती है,भाई अशोक की अश्लील पत्रिका को चुराकर पढ़ती है। वह छोटे बड़े का कोई लिहाज नहीं रखती है।
ध्रुवस्वामिनी नाटक में मन्दाकिनी भी सशक्त पात्र के रूप में उभरकर आती है । वह सदैव सत्य का साथ देने वाली  नारी है । वह स्त्री की पक्षधर है इसीलिए कहती है “जिन स्त्रियों को धर्म बंधन में बांध कर, उनकी सम्मति के बिना आप उनका सब अधिकार छीन लेते हैं, तब क्या धर्म के पास कोई प्रतिकार कोई संरक्षण नहीं छोड़ते जिससे वे स्त्रियाँ अपनी आपति में अवलंब मांग सकें ? क्या भविष्य के सहयोग की कोरी कल्पना से उन्हें आप संतुष्ट आज्ञा देकर विश्राम कर लेते हैं ?....................       स्त्रियों के इस बलिदान का भी कोई मूल्य नहीं । कितनी असहाय दशा है । अपने निर्बल और अवलंब खोजने वाले हाथों से यह पुरुषों के चरणों को पकड़ती है और वह सदैव ही इनकों तिरस्कार,घृणा और दुर्दशा की भिक्षा से उपकृत करता है ।“13 पृ.52         
मेरे शोध पत्र का विषय यह दिखाना कदापि नहीं है कि स्त्री को पुरुष की उचित या अनुचित आज्ञा का पालन करना चाहिए और न ही यह दिखाने का कि पुरुष स्त्री को अपने पाँव की जूती समझे किसी का भी किसी पर कोई अधिकार नहीं होता है परन्तु प्रकृति  और पुरुष को अपनेअपने क्षेत्रों का, अपने अपने कर्तव्यों का पूर्णतया पालन करना चाहिए। स्त्री और पुरुष दोनों की अपनी अपनी अलग-अलग सताएं हैं दोनों को एक दूसरे का सम्मान करते हुए अपने कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ना चाहिए।
अत: निष्कर्ष रूप में यही कहा जा सकता है कि  दोनों ही नाटकों के स्त्री पात्र अपनी-अपनी परिस्थितियों की उपज हैं। ध्रुवस्वामिनी नाटक में ध्रूव देवी अपने कायर, नपुंसक और क्लीव पति के कारण विद्रोह का रास्ता  तय करती है फिर भी उसमें करुणा,त्याग,परोपकार जैसे गुण विद्यमान है जबकि आधे-अधूरे कि  सावित्री की स्थिति का मूल कारण उसका महत्वाकांक्षी होना,अय्याश जीवन, धन के पीछे अंधी दौड़, उसकी विलासी प्रवृति और नकारापति है । इस प्रकार इन सब परिस्थितियों के कारण ही वह निरन्‍तर पुरुषों द्वारा छली जाती रही और अन्‍तत: उसी अधूरेपन  को समेट कर रह जाती है जिससे मुक्‍त होने के लिए वह भटकती रही ।

पाद टिप्पणी
1  कुमार, सिद्धनाथ- आधे-अधूरे संवेदना और शिल्प,सरोज प्रकाशन,रांची,संस्करण 1987,पृ.सं.65
2  राकेश,मोहन,आधे-अधूरे, प्रकाशक राधाकृष्ण, दिल्ली,संस्करण 1993, पृष्ठ 91
3  प्रसाद,जयशंकर,  ध्रुवस्वामिनी, प्रकाशक मयूर पेपरबैक्स,नोएड़ा, संस्करण 1998, पृष्ठ 26
4  राकेश,मोहन,आधे-अधूरे, प्रकाशक राधाकृष्ण, दिल्ली,संस्करण 1993, पृष्ठ 80
5  राकेश,मोहन,आधे-अधूरे, प्रकाशक राधाकृष्ण, दिल्ली, संस्करण 1993, निर्देशक का वक्तव्य पृष्ठ V
6  प्रसाद,जयशंकर, ध्रुवस्वामिनी,प्रकाशक मयू रपेपरबैक्स,नोएड़ा,संस्करण1998, पृष्ठ 25
7  राकेश,मोहन,आधे-अधूरे, प्रकाशक राधाकृष्ण, दिल्ली,संस्करण 1993, पृष्ठ 93
8  राकेश,मोहन,आधे-अधूरे, प्रकाशक राधाकृष्ण, दिल्ली,संस्करण 1993, पृष्ठ 53
9  राकेश,मोहन,आधे-अधूरे, प्रकाशक राधाकृष्ण, दिल्ली,संस्करण 1993, पृष्ठ 91
10  राकेश,मोहन,आधे-अधूरे, प्रकाशक राधाकृष्ण, दिल्ली,संस्करण 1993, पृष्ठ 56
11 राकेश,मोहन,आधे-अधूरे, प्रकाशक राधाकृष्ण, दिल्ली,संस्करण 1993, पृष्ठ निर्देशक का वक्तव्य पृष्ठ IX
12 राकेश,मोहन,आधे-अधूरे, प्रकाशक राधाकृष्ण, दिल्ली,संस्करण 1993, पृष्ठ 28
13 प्रसाद,जयशंकर,  ध्रुवस्वामिनी, प्रकाशक मयूर पेपरबैक्स,नोएड़ा, संस्करण 1998, पृष्ठ 52
















Friday, April 3, 2020

समृद्ध वाचिक परम्परा का क्षीण होता लोक


समृद्ध वाचिक परम्परा का क्षीण होता लोक


हज़ारों हज़ारों साल नर्गिस अपनी बेनुरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है, चमन में दीदावर पैदा ।।

            उक्त पंक्तियाँ मेरे विषय को सारगर्भित रूप से स्वत: ही इंगित कर देती हैं। क्योंकि हजारों वर्षों की साधना के उपरांत लोक की किसी स्वस्थ विधा यथा - किसी परम्परा, किसी लोकोक्ति, किसी लोकगीत या लोक कथा का सर्जन होता है। परन्तु निष्ठुर काल के प्रवाह को भी मात देकर सदियों-सदियों से लोकजन के कंठहार बने लोक साहित्य को अपनों द्वारा  ही आधुनिकता के फेर में पड़कर, भविष्य से अनजान बनकर, पाश्चात्य संस्कृति का चोला पहनकर उसे काल कवलित कर देना ह्रदय में हुक पैदा करता है। 
          आधुनिकता के परिणाम स्वरुप आज लोक साहित्य हाशिए के साहित्य में परिवर्तित हो गया है। आधुनिकता की चकाचौंध में फंसा आज का युवा लोक और लोक-साहित्य से कट-सा गया है। प्रस्तुत शोधालेख में लोक की विलुप्त होती वाचिक परम्पराएं यथा -लोक कथा, लोक गाथा, लोक गीत, लोक नाट्य, लोक गायिकी की चारबैत शैली, लोक ख्याल एवं लोकोक्तियों में निहित ज्ञान सम्पदा को अभिव्यक्त करते हुए यह बताने का प्रयास किया है कि हमारे पूर्वजों के जीवनानुभव, उनके जीवन संघर्ष की अनुभूतियाँ इस लोक साहित्य में समाहित हैं। ये अनुभवजन्य लोक साहित्य अनेक समस्याओं और जटिल प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत करता हैं। विरासत में मिली इस प्राचीन लोक ज्ञान सम्पदा को संकलित, संरक्षित एवं सुरक्षित रखने के लिए सचेत और संकल्पित होना चाहिए। 
          आज की उपभोक्तावादी संस्कृति में लोक संस्कृति का ह्रास तीव्र गति से हो रहा है। उसे अपनी जड़ों से उखाड़ा जा रहा है। ऐसी स्थिति में लोक शैली की अस्मिता को कैसे और कब तक बचा पायेंगे, इस पर विचार होना चाहिए। उत्तर आधुनिकता, औद्योगीकरण, बाज़ारवाद, वैश्वीकरण तथा समूह संचार माध्यमों ने लोक साहित्य के स्वरुप और कथ्य में परिवर्तन किया है। पूंजीवाद की गिरफ़्त में आकर अब लोक साहित्य बाज़ार की वस्तु हो गई है।
          लोक साहित्य अतीत से लेकर भविष्य तक सर्वत्र और सर्वदा व्याप्त विधा है। लोक साहित्य में लोक मानस की अभिव्यक्ति होती है। लोक मानस में नैतिक मूल्यों, रीति-रिवाजों, विश्वासों और धारणाओं के साथ- साथ साहित्यिक रूपों को भी अभिव्यक्ति मिलती है। इस प्रकार लोक साहित्य लोक जीवन की अभिव्यक्ति है। लोक साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह व्यवसाय प्रधान नहीं होता, परम्परागत मौखिक रूप से उपलब्ध होता है जिसे लोक मानस अपनी ही कृति स्वीकार करता है। लोक साहित्य या लोक संस्कृति व्यक्ति रचित न होकर लोक रचित होती है। यह अतीत का दस्तावेज़ भी है और भविष्य का दिशावाहक भी। लोक साहित्य लोक संस्कृति का निर्माण करता है। अत: लोक साहित्य में लोक संस्कृति का ज्ञान संचित रहता है। लोक साहित्य न समाप्त होने वाली अगाध यात्रा है क्योंकि यह पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रहती है।
          लोक साहित्य की परम्पराओं के अध्ययन से एक ओर अतीत को समझने की दृष्टि मिलती है, तो दूसरी ओर वर्तमान परिदृश्य में उसकी आवश्यकता, अनुकूलता ही नहीं अपरिहार्यता का भी अनुभव होता है। यह लोक साहित्य आज के खंड- खंड होते जा रहे सामाजिक जीवन को लगाव- जुड़ाव की ओर ले जाने की पुनः ललक दे सकता है।
           यह सर्व विदित है कि परम्परा और आधुनिकता दोनों एक दूसरे के विलोम और विपरीतार्थक शब्द हैं। आधुनिकता की ओट में आज का युवा अपने परंपरागत साहित्य एवं संस्कृति से विलग होता जा रहा है या यूँ कहा जा सकता है कि वह अपने लोक से कटता जा रहा है। जिसका सीधा अर्थ यह है कि वह अपनी परम्पराओं और जड़ों से कटता जा रहा है।  
          जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि लोक साहित्य का लिखित रूप प्राप्त नहीं होता है यह पीढ़ी दर पीढ़ी वाचिक परम्परा द्वारा ही जन तक पहुंचता है। लोक साहित्य अलिखित एवं  तर्क से परे होता है। वाचिक शब्द का अर्थ है - वाणी सम्बन्धी, वाणी से किया हुआ, संकेत में कहा हुआ। अर्थात् मौखिक रूप से अभिव्यक्त हुई वाणी या बातचीत। वैसे तो लोक का मूल स्वरूप ही वाचिक परम्परा पर टिका हुआ है या यूँ कहा जा सकता है कि लोक की प्रमुख विशेषता ही उसका वाचिक होना ही है लोक की वाचिक परम्परा की एक ओर महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें केवल भाषा ही नहीं होती, वक्ता का सम्पूर्ण व्यक्तित्व और उसके सामाजिक संसार के सारे हाव-भाव और संकेत भी इसमें समाहित होते हैं।   
          मौखिकी की परम्परा अनादि, अनंत और सतत चलने वाली प्रक्रिया है। अत: लोक साहित्य न समाप्त होने वाली अगाध यात्रा है। सम्पूर्ण लोक साहित्य यथा -लोरियां, लोकगीत, दादी -नानी द्वारा कही जाने वाली कथाएँ, लोक कथाएँ, लोक नाट्यों के संवाद, कहावतें लोकोक्तियाँ आदि सभी का मूलाधार वाचिक परम्परा ही है।
          यदि देश के परिदृश्य में राजस्थान के लोक की बात करें तो यहाँ का सांस्कृतिक वैभव बेजोड़ है। यहाँ के लोक साहित्य का क्षेत्र बहुत ही व्यापक और विस्तृत है। त्याग और वीरता -की इस भूमि को ऐसे ही वीर प्रसूता नहीं कहा जाता। त्यागमयी ललनाओं, साहसी वीरो और गरिमामयी संस्कृति के इस प्रदेश का लौकिक साहित्य अनूठा है। इस मरु प्रदेश की लोक गाथाएँ, लोकगीत, लोकसंगीत, लोकनाट्य, लोक कला और जीवन शैली निराली और जीवंत है। राजस्थान के लोक साहित्य पर विचार करें तो ज्ञात होता है कि अनेक वाचिक परम्पराएँ विलुप्त होने के कगार पर हैं।  
          राजस्थान की प्रमुख वाचिक परम्परा में यहाँ के लोकगीतों का स्थान प्रमुख है। लोकमानस की सुखात्मक-दुखात्मक अनुभूतियों का नाम ही लोकगीत है। प्राचीन समय में मनुष्य के जन्म से मरण तक अर्थात् सोलह संस्कारों पर लोकगीत गाये जाते थे। संस्कार गीत, बन्ने, बन्नी एवं हरजस गाने वाली बूढी नानी-दादी, काकियां कहाँ बची हैं? ये भी इन वाचिक परम्पराओं के सामान ही लुप्तप्राय हो गई हैं। प्राचीन काल में समधी जी को गालियाँ गायी जाती थीं, जिनमें प्रेम पूर्वक भोजन करने के निमंत्रण के साथ-साथ समधी और समधन के हास -परिहास होता था तो साथ ही समधी जी के सारे परिवार को आधार बनाकर उन्हें उलाहने भी दिए जाते थे परन्तु आज ये समधी गाने वाली नानी-दादियाँ लोक में कहीं भी नज़र नहीं आती हैं।
          राजस्थानी लोक में त्योहारों का विशेष महत्त्व है। यहाँ ख़ुशी एवं त्योहार के अवसर पर पहले  घर-घर में महिलाओं और ललनाओं द्वारा गोखे पर बैठकर कर्ण प्रिय लोक गीत गाये जाते थे और सुनते-सुनाते कंठगत हो जाते थे। सोलह संस्कारों पर हर घर में लोकगीत गाये जाते थे। प्राचीन समय में अवसरों पर गीतों का न गाया जाना अशुभ माना जाता था परंतु आज की भाग-दौड़ भरी जिंदगी में न तो त्योहारों का महत्त्व ही शेष रहा है और न ही प्रदूषित होते संस्कारों के कारण न तो  ललनाएं ही घर से बाहर निकलती हैं और न ही उन्हें त्योहारों के गीत ही आते हैं।  किसी भी मौखिक साहित्य का मूल तत्त्व शब्द, उसकी बनावट, उसकी संरचना तथा उसके अर्थ में होता है।  
          जैसे उड़ -उड़ रे म्हारा काला र कागला, कद म्हारा पिव जी घर आवै
सोने की चोंच मंडाऊँ .....
यहाँ बताना चाहता हूँ कि बाज़ारवाद के बढ़ते प्रभाव के कारण लोकगीत पुनः जीवित तो हो रहा है परन्तु उसके प्राण तत्व खो गए हैं, अर्थ का अनर्थ होता जा रहा है। जैसे उक्त गाने में परन्तु काला और काळ। के दो अर्थ हैं - काला -काला रंग ,  नालायक, अव्यवाहारिक, बेईमान । परन्तु मूल लोकगीत में नायिका कवै के रंग के कारण उसे काला कहती हैं एवं लालच स्वरूप उसकी चोंच सोने से मंडवाने की बात करती है। अप्रत्यक्ष रूप से उसे उपहार देना चाहती है।
लोक साहित्य में प्रतिमान एवं बिम्ब भी लोक से ही ग्रहण किए जाते हैं। यहाँ नायिका कवै को शगुन कारक मानकर अपने दुःख का साथी बनाती है।
                    इसी प्रकार एक और उदाहरण देखिए  -
सूती छी रंगमहल में, सूती ने आयो र जनजाळ, सपना रे बैरी भंवर मिला दीज्यो।
साधारण -सा यह लोकगीत परन्तु शब्द गाम्भीर्य और अर्थ गाम्भीर्य इसमें विशिष्ट है ।
प्रथमत: नायिका सामान्य नहीं है। वह विरह दग्द है। पल-पल अपने पति की बाट जोहती है, परन्तु प्रियतम विदेश में है, मिले तो कैसे? वह रनिवास में नहीं अपितु रंगमहल में सोई हुई है। रंगमहल से तात्पर्य आमोद प्रमोद की स्थली अर्थात् आंग्ल भाषा का बेड रूम। नायिका जंजाल (स्वप्न) देखती है, जंजाल से तात्पर्य अस्पष्ट दिखाई देना, विचित्र सी घटनाएँ, हो सकता है वहां नायिका को नायक भी विरह में दग्द दिखाई दे, प्रिय मिलन की उत्कंठा उधर भी हो?  (नदी किनारे धुंवा उठत, मैं जानू कछु होय, जिसकी याद में मैं जलु, वो न जलता होय)  
          वह विरह दग्द्द नायिका जंजाल देखकर सपने को बैरी कहती है। सपन क्यों बैरी है ? क्योंकि नायिका को प्रिय वियोग के कारण नींद नहीं आती और जब नींद नहीं आती तो सपना कैसे आये  और बिना सपने के प्रियतम दर्शन संभव नहीं। अत: नायिका सपने से कहती है कि मेरा प्रियतम तो विदेश में है प्रत्यक्ष रूप से तो आकर नहीं मिल सकते कम से कम सपने में तो उसके दर्शन हो जाए।
अत: कहा जा सकता है कि लोक साहित्य अपने अर्थगत स्वरुप को लेकर विशिष्ट होता है।
जैसे - झख मारना, हाणतो फिरे, हुन्करियो, छोगे।   
          राजस्थान की वाचिक परम्परा में यहाँ की लोक कथाएँ भी अन्यत्तम स्थान की अधिकारी हैं। पहले गाँवों में चौपाल लगता था, लोग बैठते थे, कथाएँ सुनते-सुनाते थे। जो न केवल मनोरंजन करती थी अपितु बातों ही बातों में उपदेश भी दिया करती थी साथ ही सामूहिकता की भावना का विकास भी करती थी। परंतु आज के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कारण न तो कथाएँ कही जाती है और न ही इन्हें सुनाने वाले बचे हैं।
          राजस्थान की प्रमुख वाचिक परम्परा यहाँ की लोक गाथाएँ भी हैं, जो लोक का कंठाहार बनी हुई थी। बगड़ावत गाथा, निहालदे-सुलतान, पृथ्वीराज-सुरजां, जीणमाता, सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र, राजा भरथरी, सत्यवान-सावित्री, राजा मोरध्वज, अमर सिंह राठौड़, वीर तीजाजी, रामदेव जी आदि के वीरता पूर्ण चरित द्वारा लोक का स्वस्थ मनोरंजन होता था।  परन्तु लोक की यह वाचिक परम्परा आज लुप्त प्राय हो गई है। चिराग लेकर दूँढने पर भी लोक गाथाओं के उस्ताद नहीं मिलते हैं।
          कठपुतली, अंग आलेखन (गोदना), चारबैत, घूमर नृत्य, चरी नृत्य आदि भी विलुप्त होने के कगार पर हैं।  इतना ही नहीं शहनाई, सारंगी, पेटीबाजा, ढ़ोलक, मंजीरे जैसे वाद्य यंत्र भी समय के प्रवाह में खो गए हैं।
          चारबैत :-  चारबैत उर्दू की वह शायरी है जो समूह में गायी जाती है और जिसके हर बंद में चार मिसरे होते हैं। अर्थात् जिस प्रकार ग़ज़ल के प्रत्येक शे'र में दो मिसरे होते हैं उसी प्रकार चारबैत के हर बंद में चार मिसरे होते हैं। चारबैत शायरी क़व्वाली की तरह एक ख़ास अंदाज में गायी जाती है। उत्साह एवं जोशो ख़रोश इसकी गायकी की विशिष्टता है। शे'र के आधे हिस्से को पंक्ति या मिसरा कहा जाता तथा दो मिसरे मिलकर एक शे'र बनता है 
          चारबैत शब्द के अर्थ को देखें तो ज्ञात होता है कि फ़ारसी भाषा में 'बैत' शब्द का अर्थ 'पंक्ति' होता है। इस प्रकार चारबैत का अर्थ है, चार पंक्तियों वाली कविता क्योंकि इसके हर बंद में चार मिसरे होते हैं और ये एक विशेष 'बहर' अर्थात एक धुन में लिखी जाती है। इसलिए इसे चारबैत के नाम से जाना जाता है। कुछ आलोचक इसे अफ़गानी लोक गीत भी मानते हैं। यह भी माना जाता है कि इस शैली का उद्भव अफगानिस्तान में हुआ था। "चार बैत मूलतः पठान संस्कृति से जुड़ी गायन परंपरा है। फ़ारसी भाषा में चार पंक्ति के विशेष तुक युक्त छंद को बैत कहा जाता है। चार बैत के समुच्चय को चारबैत नाम से जाना जाता है।"1 पुरानी मान्यताओं के अनुसार यह गायन शैली करीब 1,500 साल पहले पश्तो और फारसी के माध्यम से अफगानिस्तान में शुरू हुई जहां युद्ध के दौरान  एवं आराम के समय ये लोक गीत गाए जाते थे।    
          कुछ आलोचक चारबैत का अर्थ चार व्यक्तियों की परस्पर तकरार से भी लेते हैं। क्योंकि चारबैत मुख्यतः चार व्यक्तियों की तकरार से ही आरंभ होती है। अर्थात गायक दो दल बनाकर सवाल-जबाब करते थे। चारबैत में जो शायरी गायी जाती है उसमें कविता को सवाई, दो बंदी, चौबंदी, पांच बंदी और छह बंदी आदि कहते हैं। परंतु अधिकांश चारबैंतों में चौबंदी लिखी गयी है। सवाई चारबैंत में एक पूरी पंक्ति और दूसरी पंक्ति प्रथम की एक चौथाई होती है। दो बंदी में दो पंक्तियाँ तथा चौबंदी में चार पूरी-पूरी पंक्तियाँ  होती हैं। पांच बंदी में पांचो पंक्तियाँ तथा छह बंदी में छहों पंक्तियाँ बराबर होती हैं।   
          कुछ आलोचकों का मानना है कि चारबैत सेना में जोश भरने का काम भी करती थी। इस कारण इसे फ़ौजी राग़ के नाम से भी जाना जाता है।  जैसे -
          हम वो जंगी हैं जिन्हें देखकर थर्राते थे।
             नाम सुनते ही उदु दिल में लरज जाते थे।
              एक इशारे पे खुदा की कसम लड़ जाते थे।
               रुकने वाले थे कहीं मीर खां तलवारों में। 2
                    (कलाम - मुहम्मद उमर मियां टोंक) 
          राजस्थान के एक लोकनाट्य के रूप में भी इसे मान्यता प्राप्त है। राजस्थान का तुर्रा-कलंगी लोक नाट्य इससे बहुत कुछ साम्य रखता है। उसमें भी दो दल एक, तुर्रा एवं दूसरा कलंगी शिव और शक्ति  के प्रतीक के रूप में सवाल जवाब करते हैं।
          चारबैत एक लोकनाट्य - भारत में चारबैत को विभिन्न नामों से जाना जाता है यथा पठानी लोक गीत, पठानी राग़, कबाइली राग, अखाड़ा, पार्टियाँ, पठानों का लोक गीत आदि। राजस्थान में चारबैत से मिलता-जुलता लोकनाट्य है- तुर्रा-कलंगी एवं हेला ख्याल। इन दोनों लोकनाट्यों में भी सवाल-जवाबी एवं हाज़िर जवाबी अनिवार्य शर्त है। तुर्रा-कलंगी तो हुबहू चारबैत से मिलता है।
 वाद्ययंत्र- चारबैत में गायक एक विशेष प्रकार के वाद्य यंत्र का प्रयोग करते हैं जिसे ढप कहते हैं।  ये ढप लकड़ी के फ्रेम के बने होते हैं तथा बकरे या हरिन की खाल से मढ़े होते हैं। अर्थात एक ओर इन  पर ख़ाल चढ़ाई जाती है तो दूसरी ओर यह पूरा खाली होता है जिससे थाप ख़ाल पर पड़ने के कारण जोर की आवाज आती है।
मंच - चारबैत एक प्रकार से अखाड़ों में आयोजित की जाती है क्योंकि इसमें दो दल परस्पर सवाल-जवाब शैली में प्रतिस्पर्धा करते हैं इसलिए चारबैत का कार्यक्रम प्राय: बड़े मैदानों में आयोजित किया जाता है।
चारबैत के वर्ण्य विषय - चारबैत में हर प्रकार की शायरी गायी जाती है। जैसे नात, बारहमासा वर्णन, त्योहार, चौमासे, बारह मासे, आशिकाना, इश्क, जुदाई आदि। इस प्रकार चारबैत में ऋतु वर्णन होता है, बारह महीनों के तीज त्योहारों, ऋतु प्रकृति वर्णन, चौमासे के समय बारिश की फुहारों में भीगते तन-मन एवं आशिकों की दशा का वर्णन इसमें विशेष प्रकार से किया जाता है। साथ ही आशिकी की जुदाई और विरह को भी विशेष तरजीह दी जाती है। चारबैत की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें सबसे पहले हम्द अर्थात् अल्लाह की शान में ख़ुदा की इबादत के लिए नात- ए -पाक का गायन किया जाता है जिसमें खुदा के आशीर्वाद की कामना के साथ साथ सर्वे भवंतु सुखिनः की भावना निहित होती है और सबके मंगल की कामना की जाती है। जैसे
                                      आओ आओ मेरे महबूबे ख़ुदा बिस्मिल्लाह।
   आफ़ताबे अरबीमाहे लकब बिस्मिल्लाह।
ये इरादा है कि अब हम्द इलाही लिखूं।
    बाते सरदारे रसूल सुबहा मसाहिल लिखूं।3
         
                    श्रृंगार -
बाहर पर्दानशी  बैठी है  करके सिंगार।
       हर घडी चिलमन उठाकर देखती है बार-बार।
    आशिके नाशाद का करती है सीना फ़िगार।
         हेफ़ यह सद हेफ़ किस बेरहम पे दिल आया है।4
                                                                      (कलाम- मुहम्मद उमर मियां टोंक)
          प्रेम और विरह मनुष्य के जीवन के अहम पहलू हैं। जो मिलता है वह बिछुड़ता भी है चाहे वह प्रेमी हो, प्रियतम हो या फिर पत्नी। टोंक के चार बैत शायर मुहम्मद उमर मियां ने बताया कि उनका प्रेम विवाह हुआ था और वे अपनी पत्नी को 'रफ्फो' कहकर बुलाते थे। पत्नी के निधन पर परिवार के सब लोग मातम मना रहे थे, उसी वक्त मुहम्मद उमर मियां उनकी जुदाई में चारबैत गा रहे थे -
                   
          क्या कहू इस दिल की हालत में दिखा सकता नहीं।
  गम जुदाई का तो रफ्फो अब सहा जाता नहीं।
 बिन तेरे मुझ से तो रफ्फो अब रहा जाता नहीं।  
मैंने तेरी याद में दुनियां से निसबत तोड़ दी। 5
                                                                          (कलाम- मुहम्मद उमर मियां टोंक)
          साहित्य का मुख्य विषय मानव अध्ययन माना गया है परन्तु प्रकृति के साहचर्य बिना मनुष्य की चेष्टाओं और मनोदशाओं का वर्णन करना असंभव है। प्रकृति और मनुष्य का सम्बन्ध स्थायी होने के कारण मन की किसी भी दशा में प्रकृति उसे प्रभावित करती है। प्राकृतिक दृश्य संयोग-वियोग में आश्रय के हृदय में जगे हुए भावों को तीव्रतर कर देते हैं। यही कारण है कि काव्य में प्रकृति चित्रण हर काल में मिलता है। संस्कृत काव्य से लेकर आधुनिक काव्य तक में प्रकृति के दर्शन होते हैं। अत: प्रकृति के अभाव में किसी सुंदर काव्य की कल्पना कुछ अधूरी-सी ही प्रतीत होती है। चारबैत में बारहमासा का वर्णन परिलक्षित होता है। वर्षा ऋतु में जैसे ही पपीहा या  मेंढक बोलता है तो विरहणी हृदय में हुक -सी उठ जाती है
       प्यारी प्यारी ये पपीहे की सदा कोयल की कूक।
     सुनके दादर की सदा उठती है मेरे दिल में हूक।
उसपे तेरी याद करती है ज़िगर के टूक-टूक।
   दिल को तड़पाती है मेरे घर अदा बरसात की। 6
(कलाम- मुहम्मद उमर मियां टोंक)
वियोग की दशा में प्रकृति के समस्त उपकरण वियोग मग्न ह्रदय  के ताप को बढ़ाने वाले होते हैं। नायिका का दिन रात -रो रोकर बुरा हाल है, वह अपने प्रिय से यही फ़रियाद करती है कि अब तो तुम आ जाओ तुम्हारे बिना ये बेरन रैन काटे नहीं कटती है -
सेज पे तड़पूं अकेली मैं पीया की याद में।  
तुम वहाँ पर शाद रहो और यहाँ नाशाद मैं।  
रातों दिन रो-रो के करती हूँ यही फ़रियाद मैं।  
रात अँधेरी कैसे काटूँ पी बिना बरसात की। 7   

          लोकोक्ति :- लोक में प्रचलित उक्ति को लोकोक्ति कहा जाता है। लोक के अनुभवजन्य ज्ञान को लोकोक्ति अभिव्यक्त करती है। इसे इस प्रकार भी कहा जाता है कि लोकोक्ति लोक का अलिखित संविधान है। लोक जीवन की ज्ञान संपदा अगाध है। जीवन का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है, जहाँ व्यक्ति की दृष्टि न पहुंची हो। प्रकृति, पशु-पक्षी, धरती-आसमान आदि से सदैव निकटता रही है। लोकोक्तियाँ भी किसी एक क्षेत्र से सम्बंधित नहीं है मानव का सम्पूर्ण क्षेत्र इसमें समाहित है।
          वस्तुतः कहावतों की विविध दृष्टियाँ होती हैं। यथा 
प्रथम अर्थ पोषण की दृष्टि से - गाय न बाछी नींद आवे आच्छी। अर्थात् इस प्रकार की कहावतों में अर्थ को प्रधानता दी जाती है। 
          द्वितीय शिक्षण की दृष्टि - ऐसी कहावतों में कोई न कोई शिक्षा होती है। यह शिक्षा नीति या ज्ञान विषयक होती है।  जैसे -
          तीसरी दृष्टि आलोचना विषयक होती है। जिसमें वस्तु स्थिति की गंभीर एवं कटु आलोचना निहित होती है। साथ ही  अनेक मानसिक तथ्यों को भी प्रकट करती है। जैसे गधे को घी पिलाये तो सोचता है, उसकी आंख फोड़ रहे हैं।
          चौथी दृष्टि सूचना विषयक होती है। इनमें ऋतु, खेत, व्यवसाय, व्यवहार आदि के लिए उपयोगी बातें निहित होती हैं । जैसी बुध बावणी, बिस्पत लावणी।  
          इन कहावतों में जनमानस को प्रभावित करने की अद्भुत क्षमता है। यथा-स्वास्थ्य एवं भोजन से सम्बंधित, नीति एवं मानव से सम्बंधित, ऐतिहासिक, धन-माया से सम्बंधित, भाग्य एवं कर्मवाद से सम्बंधित व्यवसाय सम्बंधित सबका सुखद-दुखद विश्लेषण कर लोकोक्तियाँ प्रस्तुत की हैं। जैसे सुखद जीवन के लिए स्वास्थ्य पर लोकोक्तियाँ कही-
पहलो  सुख नीरोगी काया, दूजो  सुख घर में माया ।
तीजो  सुख पतिवरता नारी, चौथो  सुख पुतर आज्ञाकारी ।।
           लोकोक्तियों की उपयोगिता को इंगित करते हुए डॉ. सत्येंद्र ने कहा है "लोकोक्तियाँ मानवी ज्ञान का सार हैं । ये मर्म को स्पष्ट करती हैं और थोड़े में ही बहुत कुछ कह देने की सूत्र प्रणाली को साधारण लोक में बनाए हुए हैं। इनमें नीति तो होती ही है, ग्रामीण दर्शन भी होता है। ये गाँवों के ज्ञान कोश का भी काम करती हैं।  पशुओं एवं कृषि से सम्बन्ध रखने वाली अनेकों प्रामाणिक रचनाएँ इनमें भरी पड़ी हैं। इस प्रकार कहावतों में हम लोक मानस के कितने ही पक्षों का साक्षात्कार कर सकते हैं। ये कहावतें लोक जीवन के यथार्थ पक्ष से निबद्ध होती हैं। अतएव इनकी उपयोगिता लोक व्यवहार में पद-पद पर दिखायी पड़ती है।" 8
          समीक्षकों का मानना है कि इन लोकोक्तियों में जीवन का समस्त विस्तार अंकित हुआ है। पशु-पक्षी, ग्राम-जनपदों के स्त्री-पुरुष और नगरों के राजा और मंत्री सबके लिए स्वागत का भाव है। वस्तुतः लोकोक्तियाँ सबको अपना मानकर जीवित रहती हैं। उनके लिए त्याज्य कुछ नहीं है। नगर, ग्राम, धनी और निर्धन के जो वर्ग हमने सब कल्पित कर लिये हैं और जिनके तापमान से साहित्य भी अछूता नहीं बचा है, उसके लिए लोक-साहित्य में और लोकोक्तियों में स्थान नहीं है।  इस प्रकार कहा जा सकता  है कि लोक कथा की विषय व्यापकता अन्य साहित्यिक विधाओं से अपेक्षतया अधिक है।
          लोकोक्तियाँ वस्तुतः लोक की काम चलाऊ अभिव्यक्तियाँ हैं। बहुत सीधे-सादे शब्दों में लघुत्तम रूप में अपने भावों को प्रकट करने की चेष्टा में व्यवहार दृष्टि से उपयोगी बनाने के लिए इनका जन्म हुआ होगा।  
          स्वास्थ्य का ध्यान रखते हुए जन सामान्य को सचेत करते हुए लोकोक्तियों में खाद्य -अखाद्य  के बारे में बताया गया है कि कौनसे मौसम में कौनसी  खाद्य सामग्री का सेवन करना चाहिए। चैत्र मास में गुड़,बैसाख में तेल, ज्येष्ठ मॉस में महुवा, आषाढ़ में बेर,सावन के महीने में हरी सब्जी, भादों में मठा क्वार में करेला तथा कार्तिक महीने में दही नहीं खाना चाहिए।  
चैते गुड़ बैसाखे तेल जेठे पंथ असाढ़े बेल ।
सावण साग भादवै दही, क्वार करेला काती दही ।।
जनसामान्य जानता है कि खाने की तासीर ठंडी और गर्म होती है परन्तु हम बिना जाने ही ठंडी तासीर की वस्तु के साथ गर्म तासीर का वस्तु का सेवन कर लेते हैं जिससे कफ़, पित्त एवं वात रोगों में वृद्धि हो जाती है।  खाने में किन -किन वस्तुओं को साथ में नहीं खाना चाहिए। इस हेतु सावधानी के रूप में बताया है -  
केला संग इलायची, आम संग पय पाय ।
शरबत खरबूजा सहित, ककड़ी नमक लगाय ।।
खाना किस समय खाना चाहिए, उसका भी उल्लेख इन लोकोक्तियों में हुआ है।  यह ऐसे ही संभव नहीं हुआ है अपितु लोक परीक्षण की प्रवृति इसमें समाहित है-

सूर्योदय, सूर्यास्त में खाना कबहूँ न खाय ।
जो मनुष्य भोजन करे बुद्धि मंद हो जाय ।।
प्रतिदिन भोजन का समय निश्चित कर खाय ।।
मिटे कब्जियत बल बढे, अरु जठराग्नि बढाय ।
          लोकोक्तियाँ एवं कहावतें देखने में छोटी लगे पर घाव करे गंभीर वाली कहावत को चरितार्थ करती हैं। कहावतों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जन-जन के कंठ में समाहित हैं। ये तत्काल और सटीक प्रभाव डालती हैं। लोक के मध्य ये कहावतें लुप्त होती जा रही हैं। प्राचीन समय में बात-बात में कहावतें बोलकर एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति पर प्रभाव जमा लेता था। अब ऐसा नहीं है आज ये कहावतें किसी बुजर्ग व्यक्ति के कंठ का ही हार हो सकती है, युवा की नहीं।
          कोई व्यक्ति एक व्यक्ति के समझाने से भी समझ जाता है तो कोई पचास के समझाने पर भी नहीं समझता है, ऐसे व्यक्ति को आधार बनाकर लोकोक्ति कही गई है-  
मान र पांच्या पांचन की, न माने तो पचासन की

घड़ा गेल ठीकरी माँ गेल ढीकरी
खेती करो तो राखो गाड़ो, राड़ करो तो बोलो आडो
आयुर्वेद के ज्ञाता जानते हैं कि स्वस्थ शरीर के लिए खाना खाने के बाद लघुशंका जाना चाहिए और बायां करवट लेकर कुछ समय विश्राम करना चाहिए। ठन्डे पानी से स्नान करना चाहिए। जन सामान्य भी इस बात को अपने शब्दों में इस प्रकार व्यक्त करता है - 

खाकै मूते सोवै बाउं, काहै वैद बसवै गाऊं
ठंडो नहाय तातो खाय, ताके वैद कबहूँ न जाय
भोजन करके  परे उतान, आठ स्वांस ताको परमान
सोलह दहिने बत्तीस बायें, तब कल परै अन्न के खायें


कार्तिक दूध अगहन में आलू, पूस पान अरु माघ रतालू
फागुन शक्कर घी जो पाय, चैत आंवला कच्चा खाय
बैसाखे जो खाय करेला, जेठ दाख असाढे केला
सावन निसि में जब तब खाय, भादौ ब्यारु कबहुं न पाय
क्वार कामना देय बचाय, तो शत बरस आयु जन पाय
          लोक में कुछ बातें विज्ञान सम्मत नहीं होती है। आधुनिक विज्ञान यह कहता है कि शाम को भोजन नहींकरना चाहिए या हल्का भोजन करना चाहिए। स्वास्थ्य की दृष्टि से लोक में प्रसिद्ध है कि शाम का खाना कभी भी नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि उसे शरीर निर्बल हो जाता है -

ब्यालू कबहूँ न छोडिए, जासौ ताकत जाय
जो ब्यालू अवगुण करै, दुपेरे थोरो खाय
राजस्थानी लोकोक्तियों में न केवल आयुर्वेद ही समाहित है अपितु समुद्र शास्त्र भी इसमें समाया हुआ है । प्राचीन समय में मौसम विज्ञान के अभाव में भी लोक जीव- जंतुओं एवं प्रकृति के आधार पर मौसम का सही आकलन कर लेते थे।  यदि मटकें में पानी गरम रहने लग जाए, चिड़िया मिटटी में नहाने लग जाए, चींटियाँ अंडे लेकर बिल से निकलने लगे तो समझना चाहिए कि बरसात होने ही वाली है -    
मटके में पाणी गरम, चिड़िया नहावै
चींटी लै अंडा चले, तौ वर्षा नहिं दूर
यह लोक ज्ञान की ही विशेषता थी कि तिथियों के आधार पर भी मौसम, प्रकृति के मिज़ाज एवं फ़सल की समृद्धता का पता लगा लिया करते थे 
चौदस पून्यू जेठ की बरखा बरसे जोय
चौमासो बरसे नहीं, नदियां में नीर न होय
ज्योतिषीय ज्ञान के आधार पर  यदि चित्रा नक्षत्र में वर्षा होती है तो कोदो, तिली और कपास की फ़सल की उपज नहीं होती है और गेहूं, गन्ना और घास की उपज बहुत अच्छी होती है

चित्रा बरसे तीन गए कोदो तिली कपास
चित्रा बरसे तीन भए गेहूं, शक्कर, घास
कार्तिक शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को यदि बुधवार हो तो उस दिन बीस अंगुल वर्षा होती है 

पंचम कार्तिक शुक्ल की, जो बुधवार की होय
बीस बिसे वृष्टि परै बरसा झमाझम होय
इसी प्रकार
चैत चमके बीजली बरखा सुदी बैसाख
जेठे सूरज जो तपै, निश्चै बरसा भाख
रोहणी बरसे भृगु तपै, कुछ-कुछ बरसा जाय
बहु कहे सब जनन से स्वान भात खाय

माघ मास में हिम पड़े, बिजली चमके जोय
जगत सुखी निश्चय रहे, वृष्टि घनेरी होय
कृष्ण अषाढ़ी प्रतिपदा, को अम्बर गरजंत
छतरी-छतरी जुझिया, निहचे काळ पड़न्त
लोक का पशु ज्ञान भी बहुत समृद्ध है। किसी भी पशु के लक्षण, उसकी कद-काटी एवं शरीर को देखकर उसके बारे में जान सकते हैं कि वह पशु शुभ या अशुभ, मेहनती है अथवा नहीं। जिस बैल की पूंछ लम्बी हो और कान छोटे हो तो समझना चाहिए वह बैल मेहनती है । यदि किसी बैल के सींग मुड़े हुए हो, सर उठा हुआ हो, मुंह गोल हो, रोम नरम हो, कान चंचल हो तो समझना चाहिए कि ऐसा बैल अनमोल है। 

लम्बी पूंछ छोटे कान, ऐसे बळद मेहनती जान
सींग मुड़े माथो उठ्यो मुंडो हुवे गोळ, रोम नरम चंचल कान
ऐसे बैल अनमोल
इसी प्रकार दुधारू गाय के लक्षणों के बारे में भी जाना जा सकता - 
पतली पिंडी मोटी राण, पूंछ हो मुंह के परमान
लंबा थण होवै जिके गाय, होय दुधारू सबको भाय
प्राचीन समय में  घोड़ा सवारी एवं युद्ध में बहुतायत से प्रयुक्त होता था। युद्ध में भी उसी घोड़े को  प्रयोग  में लिया जाता था जो शुभ हो, और शुभ के लक्षण लोक ने अपने आधार पर निर्मित किए हैं -
मेंढा सिंगी कंठ मन जिस घोड़े के होय
अरजुन के रथ में जुटे, रोक सके न कोय

तीन पाँव एक रंग हो, एक पाँव एक रंग
                                  घर आये सम्पति घटे, पिया पड़े परदेस

          लोक साहित्य के समक्ष बहुत चुनौतियां हैं। जिन गाँवों ने इस अगाध परम्परा को जीवित रखा आज वहीं इस लोक का रस सूखने लगा है। व्यावसायिकता की प्रदूषित हवा ने लोक जीवन के सहज सौन्दर्य बोध को मुरझाने के लिए विवश कर दिया है। लोक गीतों पर फ़िल्मी राग -रंग चढ़ने लगा है। उत्तर आधुनिकता, औद्योगिकीकरण, वैश्वीकरण तथा समूह संचार माध्यमों ने लोक साहित्य का रूप भी बदला है और कथ्य पर भी प्रभाव छोड़ा है। पूंजीवाद की गिरफ़्त में आकर अब लोक साहित्य बाज़ार की वस्तु हो रहा है। उत्सव धर्मिता बढ़ तो रही है परन्तु व्यवसाय के रोप में। वर्जनाएं तो स्वीकार हो रही हैं, आस्था खंडित हो रही है। परम्परा जिस रूप में अपनी विरासत और धरोहर को आगे बढ़ा रही थी उसमें न केवल अवरोध आया है बल्कि उसे विकृत करके उसे बाज़ार का रूप देकर प्रस्तुत करने की साजिश भी रची जा रही है। क्योंकि किसी भी देश की पहचान उसकी संस्कृति होती है, उसकी परम्परा होती है। आज भारतीय समाज के सामने ऐसे बाज़ार हैं, जहाँ ख़रीदे गए चश्में से भारतीय परम्परा को जो देखते- दिखाते हैं, वह सहज रूप नहीं है। आज भी उस परम्परा का सहज रूप  अत्यंत सरल, सरस, मधुर और अपनेपन की सुगंध से भरा है ।
         
          निष्कर्ष :- वाचिक परम्परा के लिए आज के युग की मांग है कि उसे लिखित और दृश्य-श्रव्य रूप भी प्रदान किया जाए। आज केवल संकलन, संग्रहण की ही नहीं, सुचारू क्रमबद्ध -अनुशीलन और इनके मर्म की आत्मीय व्याख्या और मूल्याङ्कन की भी आवश्यकता है।
          कहने का तात्पर्य है कि हमारी जीवन संस्कृति से जुडी यह विविध वर्णी, बहुरंगी अनुभूत ज्ञान सम्पदा जीवन का अक्षय कोष है। अधिकांश सम्पदा ऐसी है जो शाश्वत और अक्षुण्ण है। आज की  अंग्रेजी और विज्ञान शिक्षा से सम्पन्न नयी पीढ़ी अहंकारवश इसकी उपेक्षा करके अपना ही अनर्थ करके महत्वपूर्ण ज्ञान सम्पदा से दूर हो रही है, जो घातक है। विरासत में मिली इस पुरा लोक ज्ञान सम्पदा को संकलित, संरक्षित, सुरक्षित रखने के लिए सचेत और संकल्पित होना चाहिए।   
          लोक में व्यक्तित्व का विलय हो जाना ही लोक साहित्य की पहली शर्त है। आज लोक साहित्य को मुख्य धारा से विलग करके देखा जा रहा है। इसका मूल कारण यह है कि उसे वस्तु के रूप में देखने की हमारी दृष्टि प्रबल हो रही हैलोक को बाज़ार की वस्तु बनाने की कोशिश हो रही है, उसे उपभोक्ता संस्कृति का शिकार होने से बचाया जाना चाहिए। लोक साहित्य का मुख्य ध्येय लोक मंगल की भावना, परोपकार, त्याग, करुणा आदि है तो यह आवश्यक हो उठा है कि उसे मुख्य धारा में बनाए रखने की पहल की जाए। यदि लोक साहित्य बाज़ार की वस्तु बन जायेगी तो उसमें समाहित लोक मंगल भाव, आत्मीयता का भाव समाप्त हो जाएगा तो हम जमीन से उखड़ जायेंगे क्योंकि लोक साहित्य में हमारी परम्पराएं निवास करती हैंएक प्रकार से लोक हमारा मौखिक संविधान है। यह आवश्यक हो उठा है कि उसे मुख्य धारा में बनाए रखने की पहल की जाए।
अत: निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि हमारी परम्परा लोक और शास्त्र दोनों में मौजूद है। लोक जितना शास्त्र से संचालित नहीं होता उससे कई गुना ज्यादा परंपरा से संचालित होता है, गतिशील होता है। जिसका मूल कारण लोक का परस्पर संवाद है। लोक के अनुभव में आयी हुई चीज आख्यान बन जाती है ।
          मन के मरुस्थल में, रूखेपन से बेजान वीरानियों को, अनजाने में घर बना लिया है।
          कामना है मेरी, सावन की घटाएँ छाये, लोक बने दीवाली हम सब ख़ुशी मनाएं  

पाद टिप्पणी -

1.      भानावत, डॉ. महेंद्र, भारतीय लोक नाट्य,आर्यावर्त्त संस्कृति संस्थान, दिल्ली
2.      मुहम्मद, उमर मियां का हस्तलिखित अप्रकाशित चारबैत संग्रह,  टोंक
3.      मुहम्मद, उमर मियां का हस्तलिखित अप्रकाशित चारबैत संग्रह,  टोंक
4.      मुहम्मद, उमर मियां का हस्तलिखित अप्रकाशित चारबैत संग्रह,  टोंक
5.      मुहम्मद, उमर मियां का हस्तलिखित अप्रकाशित चारबैत संग्रह,  टोंक
6.      मुहम्मद, उमर मियां का हस्तलिखित अप्रकाशित चारबैत संग्रह,  टोंक
7.      मुहम्मद, उमर मियां का हस्तलिखित अप्रकाशित चारबैत संग्रह,  टोंक
8.      डॉ. सत्येन्द्र, लोक साहित्य विज्ञान, राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, द्वितीय संशोधित संस्करण  2007, पृष्ठ सं. 369

जयशंकर प्रसाद और मोहन राकेश के नाटकों के स्त्री पात्रों का तुलनात्मक अध्ययन (ध्रुवस्वामिनी और आधे-अधूरे नाटकों के विशेष सन्दर्भ में)

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